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इस छह जून, शनिवार को प्रात: पौने आठ बजे यादवराव ने अपना शरीर छोड़ दिया। इसी के साथ यादवराव के साथ भौतिक धरातल पर मेरे सात दशक लंबे सतत् सम्पर्क के अध्याय का पटाक्षेप हो गया।
यादवराव के साथ मेरे सम्पर्क का अध्याय जून 1947 में प्रारंभ हुआ। हम दोनों उसी वर्ष संघ के प्रचारक निकले। मैंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बी.एस.सी की पढ़ाई छात्रावास में रहकर पूरी की, मैं वहीं स्वयंसेवक बना और वहीं से प्रचारक निकला। यादवराव काशी नगर के अगस्तकुंडा मुहल्ले में जो महाराष्ट्रीय ब्राह्मणों की बस्ती थी, बाल्यकाल से शाखा में जाने लगे थे और विश्वविद्यालय से बी.ए.की पढ़ाई पूरी करके उसी समय प्रचारक निकले। वे पुरोहिती कर्म पर निर्भर एक धर्मनिष्ठ कर्मकांडी परिवार में जन्मे थे, अपने पिता के छह सगे पुत्रों में से पांच संघ के निष्ठावान स्वयंसेवक बने। केवल सबसे बड़े भाई शाखा नहीं जाते थे और अविवाहित रहकर परिवार चलाते थे, शेष पांच में से तीन संघ के पूर्णकालिक प्रचारक रहे। माधवराव देशमुख ने विवाह करके गृहस्थ प्रचारक का उदाहरण प्रस्तुत किया। एक भाई केशवराव गुजरात के प्रांत प्रचारक रहे और संघ के किसी कार्यक्रम में जाते समय जीप में बैठे-बैठे ही हृदयाघात से मृत्यु को प्राप्त हुए। शेष दो भाई बाल भाऊ और राम गृहस्थ में रहकर भी प्रचारकवत् जीवन जिए।
इस कर्मकांडी परिवार के जीवन में भारी झंझावात पैदा हुआ जब वे सब भाई संघ के एक शीत शिविर में एक साथ चले गये। वापस आने पर पिता ने उनका घर में प्रवेश बंद कर दिया क्योंकि एक कर्मकांडी परिवार में जन्मे होकर भी उन्होंने अन्य जातियों के स्वयंसेवकों के साथ एक पंगत में भोजन करके अपने ब्राह्मणत्व को भ्रष्ट कर लिया था। पर जब ब्राह्मण समाज ने इसी अपराध के लिए उनके परिवार का जाति बहिष्कार किया तो इनके पिताजी का सात्विक क्रोध भड़क उठा। उन्होंने जाति के निर्णय को मानने से इनकार कर दिया, उल्टे यह निर्णय लेने वालों का ही बहिष्कार कर दिया। यादवराव के कथनानुसार उनके पिताजी ने अपनी मृत्यु के पूर्व आदेश दिया कि उनके परिवार का बहिष्कार करने वाले ब्राह्मणों को उनके श्राद्ध भोज में कदापि न बुलाया जाए। ऐसे तेजस्वी पिता के पुत्र थे यादवराव।
जून,1947 में प्रचारक निकलने पर उत्तर प्रदेश के प्रांत प्रचारक भाऊराव देवरस ने मुझे बनारस से बाहर किसी जिले में भेजने के पूर्व कुछ समय बनारस शहर में ही यादवराव के पास भेज दिया। शायद यह निर्णय उन्होंने विचारपूर्वक लिया। वे मनुष्यों के अदभुत पारखी थे। उन्होंने सोचा होगा कि यह देवेन्द्र काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रावास में रहकर तात्विक बहसों के साथ स्वयंसेवक बना है इसे संगठन शास्त्र का जमीनी अनुभव नहीं है जबकि यादवराव बाल्यकाल से बनारस शहर की गलियों में खेलते हुए स्वयंसेवक बना उसे जमीनी धरातल पर शाखा चलाने का अनुभव है। यादवराव के साथ वह मेरा पहला परिचय और सम्पर्क था। बनारस के पक्का महल मुहल्ले के राजा दरवाजे में उमरावचंद जैन के अहाते में हम दोनों ने साथ-साथ प्रचारक जीवन आरंभ किया। इस प्रकार व्यावहारिक प्रशिक्षण लेकर मुझे पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में भेज दिया गया। वहीं गांधी हत्या के बाद छह महीने गाजीपुर जेल में काटकर मैं बाहर आया तो एक दिन भाऊराव ने मुझे काशी से चेतना नामक साप्ताहिक पत्र में श्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ संपादनकला सीखने के लिए भेज दिया। 2 अक्तूबर 1948 को चेतना साप्ताहिक स्व.भगवानदास अरोड़ा के गांडीव पत्र के आदिभैरव स्थित कार्यालय से निकलने लगा और यादवराव पर उसकी व्यवस्था का भार आ गया। 9 दिसम्बर 1948 को प्रतिबंध के विरुद्ध सत्याग्रह प्रारंभ होते ही अटल बिहारी वाजपेयी अन्तर्धान हो गये शायद किसी अगले पत्र की तैयारी करने के लिए… और दो तीन अंकों के बाद चेतना को भी सरकार ने बंद कर दिया। तब यादवराव और मुझे सत्याग्रह काल में भूमिगत प्रचार विभाग में इकट्ठे काम करने का अवसर मिला।
यादवराव बड़े हृदयवान व्यक्ति थे। वे संबंध बनाने और उन्हें निभाने में निष्णात थे। गाजीपुर, बलिया, प्रयाग, लखनऊ, देहरादून और पुन: प्रयाग में प्रचारक जीवन बिताते हुए मुझे 1958 में पाञ्चजन्य के संपादकीय विभाग में लखनऊ भेज दिया गया और संयोग देखिए कि यादवराव भी 1960 में लखनऊ आ गये। प्रचारक जीवन से वापस लौटकर 1961 में अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ लखनऊ के जिस गुजराती परिवार में किरायेदार के नाते मैंने गृहस्थ जीवन आरंभ किया और उस श्रेष्ठ गुजराती परिवार ने स्नेहपूर्वक मुझे अपने ज्येष्ठ पुत्र का दर्जा दे दिया, मेरी मित्रता की डोर पकड़कर यादवराव भी उस परिवार के सदस्य बन गये- वह भी इस सीमा तक कि जब 1964 में मुझे लखनऊ छोड़कर दिल्ली आना पड़ा तो उस मकान में मेरी जगह मित्रवर अच्युतानंद मिश्र का परिवार रहने लगा और कुछ वर्ष बाद जब अच्युतानंद जी ने वह मकान छोड़ा तो उनकी जगह हम सबके मित्र संबंधी शशिधर अवस्थी रहने लगे। इन सब कडि़यों के जोड़क यादवराव ही थे।
संबंधों की यह कड़ी इस सीमा तक आगे बढ़ी कि एक दिन यादवराव ने उस गुजराती परिवार की एक कन्या गौरा शुक्ला को अपनी पुत्रवधू के रूप में स्वीकार कर लिया। पर इस रिश्ते ने मेरे सामने एक अजीब धर्मसंकट खड़ा कर दिया। यादवराव जी का पुत्र यशवंत मुझे मामा कहता था तो गौरा मुझे ताऊ जी। यशवंत का आग्रह था कि मैं गौरा को अपनी पुत्रवधू मानूं जबकि गौरा मेरे लिए जन्म से ही बेटी समान थी। ताऊजी-मामाजी के रिश्ते की इस गुत्थी के सूत्रधार तो यादवराव ही थे। यादवराव ने स्नेह का ऐसा वितरण केवल मेरे लिए ही नहीं किया, वह अनेक मित्रों को दिया। हिंदी पत्रकारिता के अनेक जाने माने नाम हैं जो यादवराव के बृहद् परिवार का अंग बन गये। यादवराव ने कभी स्वयं को पत्रकार नहीं माना पर पत्रकारों को स्नेह संबंधों से बांधने का काम अवश्य किया।
1964 में दिल्ली आने के बाद उन्होंने मुझे पाञ्चजन्य का दिल्ली प्रतिनिधि घोषित कर दिया, पाञ्चजन्य के सम्पादक के नाते मुझे अखिल भारतीय समाचार पत्र सम्पादक सम्मेलन की सदस्यता दिलायी। मैं उस सम्मेलन के अधिवेशनों में जाने लगा। और इसी क्रम में मुझे भारत सरकार का पत्रकार मान्यता पत्र मिल गया जो उन दिनों बड़ी बात मानी जाती थी।1968 में पाञ्चजन्य का संपादन लखनऊ के बजाय दिल्ली से होने लगा और उसका दायित्व मुझे दिया गया। तब यादवराव लखनऊ में पाञ्चजन्य के स्वामी, राष्ट्रधर्म प्रकाशन के महासचिव बने और इस प्रकार हम लोगों के बीच संपादक व व्यवस्थापक का संबंध बना रहा।
1977 में आपातकाल की समाप्ति के बाद मेरा मन नानाजी देशमुख के ग्राम पुनर्रचना के कार्य में रमने लगा और उसी समय यादवराव लखनऊ में रहते हुए नानाजी के इस प्रयोग का अंग बन गये। इस प्रकार हम दोनों पुन: दीनदयाल शोध संस्थान में नानाजी के सहयोगी बन गये। और यह संबंध अंत तक बना रहा।
यादवराव के साथ संबंधों का जो अध्याय प्रारंभ हुआ वह सहज गति से पारिवारिक संबंधों में परिणत हो गया। नियति की योजना देखिए कि 1947 में जो सम्पर्क संघ के माध्यम से प्रारंभ हुआ वह आगे चलकर पारिवारिक संबंधों में परिणत हो गया। संबंध का आरंभ यादवराव थे तो उसे बांधने वाली राखी शांता बहन बन गयीं। शांता बहन हम लोगों के सहपाठी, मित्र व प्रचारक शशिधर अवस्थी की छोटी बहन होने के कारण हम लोगों की मुंहबोली बहन बन गयीं और यादवराव जी के साथ बने पुराने संबंधों पर भारी पड़ गयीं। यादवराव जी के साथ उनका विवाह होते देखा। यशवंत ने मुझे मामा घोषित कर दिया और मेरे सब बच्चे यादवराव जी को फूफा जी मानते हैं। प्रतिवर्ष भैयादूज और रक्षाबंधन पर यशवंत अपनी बहनों को मिलने आता है तो उसकी धर्मपत्नी गौरा अपने भाइयों को राखी बांधती है।
यादवराव के संबंध विस्तार की यह कहानी केवल मेरे परिवार तक सीमित नहीं है। अधिकांश लोग यशवंत को ही यादवराव के एकमात्र पुत्र के रूप में जानते हैं। उन्हें पता नहीं कि यादवराव ने अन्य दो बालकों को भी पुत्रवत् पाला पोसा है, उनके विवाह करवाए हैं, उनके परिवारों की व्यवस्था की है। यादवराव कहा करते थे कि मेरा एक नहीं, तीन पुत्र हैं। शायद इसे प्रमाणित करने के लिए ही उन्होंने उनके नाम हेमंत, यशवंत और बसंत रखे होंगे। इस दृष्टि से एक प्रसंग मुझे स्मरण आता है जब यादवराव लखनऊ में यदुनाथ सान्याल रोड वाले मकान में रहते थे तो हेमंत उनके साथ रहता था। एक दिन यादवराव के एक पड़ोसी ने कहा कि क्या यह लड़का जो आपके यहां काम करता है हमारे लिए बाजार से दूध ला सकेगा। यह सुनकर यादवराव को धक्का लगा। उन्होंने शांत भाव से अपने पड़ोसी को कहा कि वह मेरा बड़ा बेटा है, इस समय कोई काम कर रहा है। मैं आपके लिए दूध ला देता हूं। यह सुनकर वे पड़ोसी शरमा गये। यादवराव जी का यशवंत को निर्देश था कि हेमंत को हमेशा बड़े भाई का सम्मान देना और वह उसने मनोयोगपूर्वक किया है। दीनदयाल शोध संस्थान की छठी मंजिल की व्यवस्था संभालने वाली कुमुद, जिसे हम सब लोग अन्नपूर्णा के रूप में देखते हैं, यादवराव की ही खोज है। कुमुद के पति श्रीकांत बनारस में यादवराव जी के परिवार में रहते थे और तपेदिक रोग से ग्रस्त थे। यादवराव उन्हें दिल्ली ले आये। यहां उनका इलाज करवाया और नानाजी देशमुख की छत्रछाया में रख दिया। नानाजी ने अपने देहदान के संकल्प पत्र में कुमुद को अपनी बेटी और हेमंत को अपना बेटा घोषित किया। ऐसा है यादवराव के संबंधों का विस्तार।
इस अपार स्नेह भावना के कारण ही वे अपने सभी मित्रों के सुख-दु:ख में सम्मिलित होने के लिए दौड़ पड़ते थे और इस कारण बहुत यात्रायें करते। यशवंत को विनोदप्रियता अपने परिवार से मिली है। एक दिन लखनऊ में यदुनाथ सान्याल रोड वाले मकान में वह यादवराव के बिस्तर को दिखाकर बोला कि यदि बाबा के इस बिस्तर में स्प्रिंग लगा दिये जाएं और रात को सोते समय वे स्प्रिंग हिलते रहें तो बाबा को गहरी नींद आयेगी क्योंकि तब उन्हें लगेगा कि मैं ट्रेन में सफर कर रहा हूं। दो वर्ष पूर्व यादवराव जी ने अचानक अपने दोनों पैरों के घुटने बदल डाले। मुझे भी कई वर्षों से यह सलाह मिल रहीं थी पर मैं साहस नहीं बटोर पा रहा था इसलिए जब दिल्ली के परमानंद अस्पताल में यादवराव जी के दोनों घुटनों के ऑपरेशन की सूचना मिली तो मैं सिहर उठा अगले ही दिन मैं उन्हें देखने पहुंचा। मैं अंदर से हिला हुआ था पर यादवराव बिल्कुल सामान्य थे, मुस्करा रहे थे। कुछ समय बाद हेमंत का फोन आया कि काका आपको मिलने आ रहे हैं। मैंने चौंककर कहा क्यों? इसकी क्या जरूरत है? बिना लिफ्ट के मेरी चौथी मंजिल तक चढ़ने की क्या आवश्यकता है? उसने कहा कि वे चल चुके हैं, कुछ ही मिनट में पहुंच जाएंगे। और सचमुच यादवराव पहुंच गये। दो घंटे तक हम लोग गप्पें लड़ाते रहे।
घुटनों के संकट से पार निकले तो यादवराव को गले की बीमारी ने पकड़ लिया, आवाज बंद हो गयी किंतु वे उससे भी जूझते रहे, थोड़ी आवाज वापस आयी तो फिर एक दिन वे चार मंजिल चढ़कर मुझे देखने पहुंच गये, पुन: दो घंटा बैठे और हमारी गप्पों का विषय एक ही रहता राष्ट्र की वर्तमान स्थिति, राजनीति का नकारात्मक चरित्र, संघ के सामने अनेकविध चुनौतियां। आखिर हमें जोड़ने वाला सूत्र तो संघ ही था, वही अंत तक बना रहा। यादवराव से अंतिम भेंट उनके महाप्रयाण के पूर्व 26 अप्रैल को उनके निवास पर ही हो पायी। वे बहुत कमजोर थे, अधिकांश समय मौन रहकर हम लोगों को स्नेह स्थिर आंखों से देख रहे थे। शशिधर अवस्थी, अच्युतानंद और मैं उनके तीन मित्र सामने थे उसी समय भूकंप का झटका भी आया था। ऐसे हृदयवान मित्र और समर्पित राष्ट्रभक्त से चिर विछोह के इन क्षणों में एक ही भाव आता है कि यादवराव के कुछ गुण विधाता मुझे अगले जन्म में अवश्य प्रदान करे। यादवराव आयु में मुझसे एक वर्ष पीछे थे पर हृदय की विशालता और निर्हेतुक स्नेह की पूंजी में अनेक वर्ष आगे। इसीलिए 6 जून को प्रात: 8 बजे प्रिय यशवंत ने जब यह कहा कि शरीर छोड़ते समय बाबा के चेहरे पर कोई तनाव नहीं था, पहले जैसी ही शांति और सौम्य भाव था तो मेरी पहली प्रतिक्रिया थी कि उन्होंने पूरे जीवनभर जो पुण्य किये, उनका प्रतिफल उनकी ऋषि मृत्यु में हुआ। -देवेन्द्र स्वरूप
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