अलगाव का ताप - हताशा का तमाशा, सरकार से आशा
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अलगाव का ताप – हताशा का तमाशा, सरकार से आशा

by
May 9, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 May 2015 17:09:05

आजमाया हुआ हर दांव लगाकर और हर तरह की कलाबाजी दिखाकर भी जो तमाशेबाज मजमा न लगा पाए उसकी हताशा को पढ़ना-समझना हो तो ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के ओहदेदारों के चेहरे देखिए। अप्रैल माह का तीसरा हफ्ता । कश्मीर घाटी के चंद चौराहों और सड़कों पर राजनैतिक कठपुतलियों का तमाशा सजाया जा रहा था। अलगाववाद के सारे बड़े चेहरे मौजूद थे- यासीन मलिक, मीरवाइज उमर फारुख, सैयद अली गिलानी। ठंडे पड़ते अरमानों को गर्मी देने के लिए मीडिया कैमरों की तेज रौशनी भी थी पर भीड़ नदारद थी। हाथ पैर सर सब कुछ लगाकर जितने लोग जुटे उनकी संख्या राज्य सरकार द्वारा सुरक्षा प्रदान किए गए अलगाववादियों जितनी भी न पहुंच सकी। जम्मू कश्मीर सरकार सालों से चौदह सौ से ऊपर 'राजनैतिक एक्टिविस्ट्स' को सुरक्षा मुहैया करवा रही है। अब औसत के हिसाब से इस हजार-बारह सौ की भीड़ के हिस्से करने की कोशिश करते हैं। ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉन्फ्रेन्स दर्जनों अलगाववादी नेताओं और पार्टियों का जमावड़ा है। इसमें मीरवाइज उमर फारुख की आवामी एक्शन कमेटी, लोन की जम्मू-कश्मीर पीपुल्स कांफ्रेन्स, यासीन मलिक का जे के एल एफ, आसिया अंद्राबी की दुखतरन-ए- मिल्लत, मसरत आलम की जम्मू-कश्मीर मुस्लिम लीग, सैय्यद कासिम बुखारी की अन्जमान-ए-तबजीग-उल -इस्लाम, बिलाल गनी लोन की ताकत मिलाएं तो हर एक के हिस्से में कितने श्रोता आते हैं? ढोल की यही पोल है।
आज घाटी के मुठ्ठी भर अलगाववादी खुद को हाशिए पर पाकर परेशान हैं। उन्होंने राज्य के विधानसभा चुनावों के बहिष्कार की अपील की थी। लेकिन जनता ने बढ़-चढ़कर वोट डाले। भाजपा और पीडीपी की गठबंधन सरकार यदि अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम को सफलतापूर्वक पूरा करती है तो अधमरी हो चुकी अलगाववादी मुहिम को घातक झटका लगना तय माना जा रहा है। वैसे भी अपने उभार के दिनों में अलगाववाद कश्मीर घाटी के मात्र पांच जिलों तक ही अपनी उपस्थिति दर्ज करवा सका था। राज्य के तीन में से दो हिस्सों- जम्मू और लद्दाख में राष्ट्रवाद प्रबल है। राज्य के 85 प्रतिशत भू-भाग में आज तक कोई भारत-विरोधी प्रदर्शन नहीं हुआ। जम्मू हिन्दू बहुल है। लद्दाख में बौद्घ-पंथियों की बहुसंख्या है। राज्य की मुस्लिम आबादी में 12 प्रतिशत शिया, लगभग इतने ही गुज्जर मुस्लिम और करीब 8 प्रतिशत पहाड़ी राजपूत मुस्लिम हैं। इनमें से किसी भी समुदाय में अलगाववाद का असर नहीं है। पुंछ में 90 प्रतिशत मुसलमान हैं। कारगिल में 99 प्रतिशत मुसलमान हैं। यहां पर कभी कोई भारत विरोधी आवाज नहीं उठी। जम्मू के सभी दस जिले और लद्दाख के दोनों जिले पूरी तरह शांत हैं। केवल कश्मीर घाटी के 10 में से 5 जिलों में कुछ दर्जन अलगाववादी नेता हैं। ये सभी कश्मीरी बोलने वाले सुन्नी मुस्लिम हैं। जिनकी नेतागिरी इनके गली-मुहल्लों तक सीमित है, और जो एक विधानसभा सीट जीतने तक की हैसियत नहीं रखते। कश्मीर घाटी में चल रहे अलगाववाद के यही आंकड़े हैं, और इतनी ही सच्चाई है। ये सारे के सारे प्रचार के हथकंडों से पैदा हुए शेर हैं।
मौजूदा दौर में इनकी बची-खुची जमीन भी हाथ से फिसलने की कगार पर है और ये तेजी से समर्थन खो रहे हैं। समर्थकों का भरोसा उठ ही गया है। हाल ही में जब कश्मीर में भयंकर बाढ़ आई और सेना के जवान युद्घस्तर पर राहत कार्यों में जुट गए तब कश्मीरियों ने इन 'रहनुमाओं' को मैदान से नदारद पाया। 28 अप्रैल को केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने लोकसभा मे खुलासा किया कि कश्मीरी अलगाववादी बाढ़ राहत कार्यों में बाधा पहुंचा रहे थे। गृह मंत्रालय ने आगे बताया कि अनेक अलगाववादी समूह कश्मीरी पंडितों की वापसी, सरकार द्वारा किए जा रहे बाढ़ राहत कार्यों, सैन्य विशेषाधिकार कानून, नागरिक सुरक्षा कानून आदि को लेकर जनभावनाएं भड़काने का काम कर रहे हैं। अलगाववादियों ने अमरनाथ यात्रा के दौरान घोड़ेवालों और भण्डारे वालों के मामूली विवाद को मजहबी रंग देने का प्रयास किया। अगस्त 2014 में सैयद अली शाह गिलानी और शब्बीर शाह ने कौसरनाथ यात्रा के समय सांप्रदायिक तनाव पैदा करने का प्रयास किया। इसी प्रकार गिलानी ने जुलाई 2014 में हुए एक सड़क हादसे में, जिसमें 6 नागरिक मारे गए थे, को 'कश्मीरियों की हत्या की सोची समझी कोशिश' बताकर दो दिन का बंद बुलाया था। 23 मार्च 2015 को सैयद अली शाह गिलानी, मीरवाइज उमर फारुख और यासीन मलिक पाकिस्तानी उच्चायोग गए और पाकिस्तान के राष्ट्रीय दिवस में शामिल हुए। गृहमंत्रालय ने इन नेताओं के जिन कारनामों के खुलासे किए हैं वे भी अब इन्हें ऑक्सीजन दिला पाने में नाकाम साबित हो रहे हैं, और इसलिए उनकी छटपटाहट साफ देखी जा सकती है। अप्रैल माह में हुर्रियत नेता दिल्ली जाकर पाकिस्तानी राजनयिकों से मिले लेकिन कोई खास सुगबुगाहट पैदा न हो सकी। अब वे कश्मीरी पंडितों की वापसी को लेकर मजहबी फसाद खड़ा करने की कोशिश में हैं।
अपने को आवाम का मसीहा बताने वाले नेताओं की शाहखर्ची भी चर्चा का विषय है। वे महंगे होटलों में रुकते हैं, जिसका खर्च राज्य सरकार उठाती आ रही हैं। ऐसे राजनैतिक 'एक्टिविस्टों' की संख्या 440 है जो जनता के खर्चे पर भव्य आरामगाहों में आराम फरमाते हैं। 708 चौपहिया वाहन इनकी सेवा में नियुक्त हैं। 2010 से 2015 तक इनकी सुरक्षा पर 309 करोड़ खर्च हो चुके हैं। इनकी सुरक्षा में लगे पीएसओ की पिछले पांच सालों की तनख्वाह ही 150 करोड़ के करीब बैठती है। कुल मिलाकर सारा खर्चा 506 करोड़ तक जा पहुंचता है। गौर तलब है कि पिछले वर्ष का राज्य का सर्वशिक्षा अभियान का बजट 484़4 करोड़ था। वे कश्मीरी युवकों को जिहाद के नाम पर भडकाते हैं। 'बड़े मकसद' के लिए उनसे किताबें छुड़वाकर दिहाड़ी पर पत्थर फिंकवाते हैं, जबकि खुद उनके बच्चे शेष भारत और दुनिया के दूसरे हिस्सों में महंगी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। सैयद अली शाह गिलानी के साहबजादे नईम गिलानी पाकिस्तान के रावलपिंडी में पेशेवर चिकित्सक के तौर पर काम कर रहे हैं। नईम की पत्नी भी चिकित्सक हैं। गिलानी के दूसरे बेटे जहूर गिलानी नई दिल्ली में अपने परिवार के साथ रहते हैं। उनका पोता एक निजी एयर लाइन्स में नौकरी करता है। उनकी बेटी जेद्दाह में अपने इंजीनियर पति के साथ रहती है। आसिया अंद्राबी का लड़का मोहम्मद बिन कासिम मलेशिया में रह रहा है। आसिया के ज्यादातर रिश्तेदार पाकिस्तान, सऊदी अरब, इंग्लैंड और मलेशिया में रह रहे हैं। उसका भतीजा पाकिस्तानी फौज में कैप्टन है। दूसरा भतीजा इस्लामाबाद की इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी में पढ़ाता है। ये सारी बातें कश्मीरियों के ध्यान में आ रही हैं, और इसलिए 'आजादी के इन दीवानों' की बची खुची जमीन भी सरक रही है। इनमें से कई पर आईएसआई के लिए भाड़े पर काम करने के आरोप भी लग चुके हैं।
कश्मीरियत के नाम पर फिरकापरस्ती
जब जम्मू कश्मीर सरकार ने कश्मीरी पंडितों की सुरक्षित वापसी के लिए रिहायशी कालोनियां बनाने की पहल की तो घाटी के अलगाववादियों के पेट में मरोड़ उठने लगी। इस्रायल और गाजा पट्टी के उदाहरण उठाकर लाए जाने लगे। 'कश्मीरियत' पर चोट पड़ने लगी। यासीन मलिक ने हुंकार भरी कि कश्मीरी पंडितों के लिए अलग कॉलोनी न बसाई जाए, वे सबके बीच आकर रहें, हम उनकी हिफाजत करेंगे। भेडि़ये द्वारा भेड़ों की हिफाजत का दावा इसी को कहते हैं। यासीन मलिक का नाम उन लोगों में सबसे आगे है जिनके कृत्यों के चलते कश्मीरी पंडितों को अपने पुरखों की जमीन से बेदखल होना पड़ा था। कश्मीरी पंडितों की इस प्रस्तावित बसाहट की खिलाफत के पीछे का एकमात्र उद्देश्य उनके राजनीतिक सशक्तीकरण को रोकना है। वैसे भी पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा विधानसभाओं का परिसीमन इस प्रकार कर दिया गया है कि घाटी में कहीं भी कश्मीरी पंडितों का वोट निर्णायक स्थिति में नहीं रह गया है। अलगाववाद की वैचारिक लड़ाई में पिछड़ने पर कश्मीरियत का पत्ता फेंका गया। कश्मीरियत क्या है? और इसके ठेकेदार क्या गिलानी, गनी और यासीन मलिक ही हैं? फिर कश्मीरियत की बात हो रही है तो 'जम्मूइयत' और 'लद्दाखियत' की बात भी होनी चाहिए।
सवाल ये भी उठता है कि जिसे कश्मीरियत कहा जा रहा है वह पंजाबियत से कितनी अलग है ? और भारत में यदि तमिल, मराठी, बंगाली, गुजराती, असमिया आदि लोकाचार फल-फूल सकते हैं तो कश्मीरियत को खतरा कैसे हो सकता है? 'कश्मीरियत' के नाम पर किए जा रहे इस पाखंड का जवाब देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई ने घाटी में शांति के लिए इंसानियत की बात की थी। इंसानियत की ये बात चल निकली तो इससे सबसे बड़ी राजनैतिक चपत अलगाववादी फिरकों को ही लगने वाली है, क्योंकि कश्मीर के नाम पर किए जा रहे इनके फसादों से कश्मीर बेहाल है। शिक्षा व्यवस्था अस्त-व्यस्त है। उद्योग-धंधे पनप नहीं पा रहे हैं। पिछले दिनों में घाटी के दो चार मुहल्लों में अलगाववादियों ने जो नौटंकियों की महफिलें सजाईं और मीडिया ने उन्हें जिस प्रकार कवरेज दिया उसके कारण बाढ़ से बेहाल कश्मीरियों का पर्यटन सीजन भी मारा गया, क्योंकि हमेशा की तरह राज्य के बाहर वही दोषपूर्ण सन्देश गया कि सारा जम्मू -कश्मीर जल रहा है। शिकारे वाले शिकार सजाते रह गए, होटल – पर्यटन व्यवसायी और दुकानदार पर्यटकों की राह देखते रह गए। अचरज क्या है कि ज्यादातर लोग इनसे हलकान हो चुके हैं।
नए प्रयोग से जगी उम्मीदें जम्मू – कश्मीर के 2014 विधानसभा चुनावों ने एक नयी इबारत लिखी। सारी अलगाववादी और आतंकी जालसाजियों के बावजूद 65 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं ने वोट डाले। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने वक्तव्य दिया कि अलगाववादी, आतंकी कुंठित हो गए हैं क्योंकि उन्हें महसूस हो रहा है कि बम – बन्दूक – हत्याओं के बावजूद भी राज्य में लोकतंत्र यथावत है। यूरोपियन यूनियन ने भी प्रशंसा करते हुए कहा कि- मतदान का उच्च प्रतिशत सिद्घ करता है कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें गहरी हैं। जम्मू – कश्मीर राज्य में हिंसा रहित, निष्पक्ष चुनाव कराने पर यूरोपियन यूनियन भारत और उसकी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बधाई देता है। यूरोपियन यूनियन ने इस बात का भी संज्ञान लिया कि अलगाववादियों के बहिष्कार के बावजूद कश्मीर घाटी के लोगों ने बड़ी संख्या में वोट डाले। जहां एक ओर ये पाकिस्तान के लिए बड़ी कूटनीतिक पराजय थी वहीं कश्मीरी अलगाववादियों के लिए एक बड़ा आघात था। राज्य के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का प्रदर्शन भारत के लोकतंत्र में एक मील का पत्थर है। राज्य में तुलनात्मक रूप से मुसलमानों का प्रतिशत अधिक होने के कारण ये आम धारणा रही है कि वहां भाजपा के लिए कोई चुनावी संभावना नहीं है। कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस राज्य के पुराने चुनावी खिलाड़ी रहे हैं। इन दोनों की गहरी दोस्ती और कट्टर दुश्मनी के बीच जम्मू कश्मीर की राजनीति भी थपेड़े खाती रही है ।
नेहरू और शेख की मित्रता, फिर शत्रुता (जब शेख ने कांग्रेस को नाली का कीड़ा कह डाला था), शेख -इंदिरा समझौता और फारुख – राजीव समझौते के बाद वर्तमान सरकार राज्य के लोगों के लिए एक नया अनुभव है। भारतीय जनता पार्टी ने कश्मीर में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पंडित टीकालाल टपलू जैसे नेताओं सहित अनेक कार्यकर्ताओं को खोया है। लेकिन इसके पूर्व वह राज्य में किसी निर्णायक भूमिका में नहीं पहुंच सकी थी। भाजपा की राज्य सरकार में भागीदारी पाकिस्तान के दुष्प्रचार हिन्दू भारत द्वारा मुस्लिम कश्मीर पर अत्याचार, को भी भोथरा करती है। इसलिए सनसनी मात्र के लिए भाजपा की राज्य सरकार में भागीदारी को विचारधारा से समझौता और सत्ता की राजनीति कहना हलकी बात होगी। इसे गंभीर चर्चा के स्थान पर स्लोगन छाप राजनैतिक विमर्श कहना पड़ेगा।
मुद्दे और चुनौतियां
गठबंधन सदा चुनौतीपूर्ण काम होता है। निस्संदेह, कई मुद्दों पर भाजपा और पीडीपी विपरीत ध्रुव हैं। फिर चाहे वह पाकिस्तान से बातचीत की सीमा और सन्दर्भ का मामला हो, अथवा धारा 370 के भविष्य की बहस हो। या सैन्य विशेषाधिकार कानून को लेकर दोनों दलों का दृष्टिकोण हो। लेकिन दोनों दल न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत सरकार चलाने के लिए सहमत हुए हैं। दोनों को कुछ न कुछ छोड़ना पड़ा है। इस न्यूनतम साझा कार्यक्रम के अनुसार भाजपा धारा 370 को छूने की स्थिति में नहीं है , तो पीडीपी को 'राज्य को अधिक स्वायत्तता' देने की टेक पर लगाम लगानी पडी है। राज्य में संवैधानिक संशोधनों से जुड़े मुद्दों पर दोनों दलों की संयुक्त शक्ति (कुल 45) कम पड़ती है, क्योंकि वांछित आंकड़ा 60 है। पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों को राज्य में उनके अधिकार दिलाने के मामले पर दोनों पार्टियों में सैद्घांतिक सहमति है , लेकिन यहां भी संविधान संशोधन का रोड़ा राह में अटका है। लिहाजा अंकों की कमी गठबंधन को कुशलता से कहीं आगे जाने के लिए बाध्य करेगी।
मसरत आलम की रिहाई को लेकर सारे देश में सन्दर्भ के बाहर बयानबाजी हुई। मसरत को जिला न्यायाधीश के आदेश पर नागरिक सुरक्षा कानून की धारा 19 (2 ) और (3 ) तथा धारा 22 के तहत गिरफ्तार किया गया था। यह धारा तार्किक आधार पर आरोपी के मौलिक अधिकारों को निरुद्घ करते हुए सीमित समय की हिरासत की अनुमति देती है। उपरोक्त धाराओं के अंतर्गत आरोपी को असीमित समय तक हिरासत में नहीं रखा जा सकता। इस मामले पर हुईं कुछ मीडिया चर्चाएं पुलिस – प्रशासन द्वारा नहीं आजमाए गए हथकंडों तक जा पहुंची। चिंताएं जायज हैं लेकिन किस व्यक्ति को कितना महत्व दिया जाए यह भी विचारणीय है। फुंके हुए कारतूसों को प्रचार का नया बारूद मुहैया करवाने के पहले स्थानीय समीकरणों और परिस्थितियों को सिरे से समझ लेना बेहतर हो सकता था। सैन्य विशेषाधिकार कानून के लिए दोनों दल तय अंतराल पर राज्य की क्षेत्रवार समीक्षा कर क्षेत्रश: इस कानून के औचित्य पर चर्चा करेंगे। प्रयोग अभी शुरुआती दौर में है। दोनों राजनैतिक दलों द्वारा अपने -अपने जनाधार को सम्बोधित करते रहना भी स्वाभाविक है। आशंकाओं, आशाओं और टिप्पणियों के बीच यह ध्यान रखना जरूरी है कि सरकार दल की होते हुए भी संवैधानिक दायरों के कठोर सांचे में बंधी होती है। इसीलिए अलग द्रविड़ राज्य की मांग करने वाली पार्टी सत्ता में आने के बाद संवैधानिक कायदों से बंध जाती है और लेनिन एवं माओ नाम जपने वाले वामपंथी सत्ता में आने के बाद केरल , पश्चिम बंगाल या त्रिपुरा में भारत के लोकतान्त्रिक संविधान के आधार पर ही राज्य का संचालन करने पर विवश होते हैं।
जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। उसे भारत से अलग नहीं किया जा सकता। मुद्दा राज्य में शांति, विकास और सबकी भागीदारी का है। उसके लिए निरंतर प्रयास और प्रयोग करने होंगे। हाल ही में मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने बयान दिया कि गठबंधन के एजेंडे को पूरा करना चंद दिनों का काम नहीं है। इसमें वक्त लगेगा। सितम्बर की बाढ़ के कारण कई चुनौतियां सामने हैं। जिसमें पुनर्वास और आधारभूत ढांचे का पुनर्निर्माण शामिल है हमें सांस लेने का समय दीजिए। उन्हें समय दिया जाना चाहिए। इस बीच पाकिस्तानी फौज के बूट के नीचे कराह रहे गिलगित- बाल्टिस्तान से पाकिस्तानी कब्जे के खिलाफ एक बार फिर आवाज उठी है। इस आवाज को सारी दुनिया तक ले जाया जाना चाहिए। — प्रशान्त वाजपेई

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