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.तुफैल चतुर्वेदी
ओेसामा बिन लादेन के तिक्का-बोटी दिवस की बरसी थी। टीवी के इक्का-दुक्का चैनलों पर घूंघट काढ़े एक समाचार 'फ्लैश' हुआ कि कांधला के निकट एक ट्रेन में तब्लीगी जमात के कुछ लोगों के साथ मार-पीट हुई और अगले दिन बीकानेर से हरिद्वार जाने वाली ट्रेन रोक कर उस पर पत्थर बरसाए गए। एक-आध बार के बाद घूंघट वाला शरमाया-शरमाया समाचार भी गायब हो गया। मगर सोशल मीडिया, विशेष रूप से फेसबुक पर 'एक और असफल गोधरा' के शीर्षक से ये समाचार बड़े विस्तार से चर्चा का केंद्र बना। घटना की मोटी-मोटी जानकारी ये है कि तब्लीगी जमात के एक समूह ने ट्रेन में यात्रा कर रहे लोगों (काफिरों) को कुफ्र-ईमान, दारुल-हरब और दारुल-इस्लाम समझाने का प्रयास किया। इस पर कुछ बहस हुई। बहस धींगा-मुश्ती में बदल गयी और जमातियों के गाल गुलाबी हो गए।
इसका एक 'वर्जन' और भी है, जो एक कुटे हुए जमाती ने बताया है। उसके अनुसार वह और उसके कुछ साथी दिल्ली में एक इज्तमा (इस्लामी एकत्रीकरण) में भाग लेने महाराष्ट्र से आये थे। इज्तमा के बाद उनकी इच्छा अपने मूल केंद्र सहारनपुर स्थित मदरसे मजाहिरे-उलूम जाने की हुई। वे ट्रेन में सवार हुए। रास्ते में वे लघुशंका के लिए सामूहिक रूप से उठे। 'टायलेट' के दरवाजे पर भीड़ थी। उन्होंने वहां खड़े लोगों से रास्ता छोड़ने के लिए कहा और वहां खड़े लोगों ने उनकी पिटाई शुरू कर दी। किसी भी तरह ये मानना कठिन है कि लघुशंका के लिए जाने के निवेदन पर लोगों ने 6 मासूम लोगों को अकारण पीटना शुरू कर दिया होगा। मारपीट का प्रारम्भ सदैव बातचीत के बहस, बहस के कठहुज्जती, कठहुज्जती के व्यक्तिगत कटाक्षों-आक्षेपों में बदल जाने के कारण होता है। बहरहाल पिटे-छिले जमातियों ने अगले स्टेशन पर ट्रेन से उतरकर स्थानीय इमाम से सम्पर्क किया। इमाम ने सैकड़ों लोगों के साथ थाना घेर लिया। प्रशासन ने मामला दर्ज कर जांच के आदेश दे दिये।
कुछ प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार दिल्ली से सहारनपुर जा रही ट्रेन में महाराष्ट्र के छह जमातियों के साथ मारपीट का कारण ये था कि ट्रेन में तब्लीगी मुजाहिद कुछ महिलाओं को छेड़ रहे थे। महिलाओं के प्रतिवाद करने पर यात्रियों ने उन्हें जुतियाया। समाजवादी पार्टी के स्थानीय विधायक नाहीद हसन को इस जांच के आदेश से चैन नहीं पड़ा और उन्होंने अगले दिन अपने हजारों समर्थकों के साथ ट्रेन की पटरी पर धरना दिया। भीड़ उग्र हो उठी और उसने बीकानेर से हरिद्वार जा रही ट्रेन नंबर 04735 को रोक कर उस पर पथराव किया। उसमें आग लगाने की कोशिश की। स्थानीय डीएम के नेतृत्व में पुलिस ने भीड़ को लाठीचार्ज करके तितर-बितर कर दिया और ट्रेनों को आगे रवाना किया। इस घटना में 16 पुलिस वाले भी घायल हुए।
इससे पहले कि ये विषय समाज के ध्यान से उतर जाये, आवश्यक है कि इस बात, बहस, झगड़े, उपद्रव की जड़ तक जाया जाये, अर्थात समझा जाये कि जमात किस बला का नाम है? जमात का शाब्दिक अर्थ समूह है, मगर इसका व्यावहारिक अर्थ है 'उन लोगों का समूह जो नव कन्वर्टिड मुसलमानों को कट्टर मुसलमान यानी अपनी दृष्टि में सही मुसलमान बनाने का कार्य करते हैं'। जमात इस्लामी चिंतन का पहले दिन से हिस्सा है। इस्लाम ने अपने जन्म के साथ ही अपनी दृष्टि से संसार के दो भाग किये। पहला अहले-इस्लाम यानी मुसलमान और उनके प्रभुत्व-स्वामित्व वाली धरती यानी दारुल-इस्लाम। दूसरा मुसलमानों से इतर लोगों यानी काफिरों, मुशरिकों, मुलहिदों, मुन्किरों, मुरतदों का समाज और उनकी धरती यानी दारुल-हरब अर्थात युद्ध क्षेत्र। दारुल-हरब के लोगों को मुसलमान बनाना और दारुल-हरब को दारुल-इस्लाम में बदलना हर मुसलमान का 'कर्तव्य' है। यही इस्लाम के पहले दिन यानी 1400 वषोंर् से पल-पल, क्षण-क्षण विचार, क्रिया के स्तर पर घटित होने वाला उपद्रव है। यही जिहाद है।
ये बहला-फुसलाकर, मार-पीटकर, लड़कियां भगाकर यानी जैसे बने, करने वाला अनवरत द्वंद्व है। इस प्रक्रिया को इस तरह समझें। मान लीजिये कि कोई मतिमन्द, मतकटा हिन्दू, ईसाई, पारसी, यहूदी किसी तरह मुसलमान बनने के लिए तैयार हो जाये तो एक दाढ़ीदार मुल्ला उसे कलमा पढ़ायेगा और उसका नाम बदलकर अरबी मूल का रख देगा। मगर कन्वर्टिड व्यक्ति और मुल्ला समूह ऐसे ही नहीं मान लेगा कि वह मुसलमान हो गया, चूंकि इस्लाम की मांगें तो साम्राज्यवादी हैं। अब अनिवार्य रूप से उस व्यक्ति को अपने पूर्वजों से आत्मिक-मानसिक सम्बन्ध तोड़ने होंगे। अपने आस्था केन्द्रों, अपनी धरती, अपनी प्रथाओं, अपने इतिहास पुरुषों से घृणा करनी पड़ेगी। स्वयं को कृतिम रूप से अरबी बनाने के काम में लगना पड़ेगा। ये कुछ-कुछ अफ्रीकी मूल के अमरीकी गायक माइकल जैक्सन के अपने शरीर की काली चमड़ी को गोरा करवाने की तरह है। इस प्रक्रिया में माइकल जैक्सन को बरसों रात-दिन भयानक पीड़ा होती रही और अंत में पीड़ा-निवारक दवाओं के भारी सेवन के कारण ही उसके प्राण निकले।
ये कार्य अत्यंत दुष्कर है अत: पीढि़यों चलता है। हर पीढ़ी को मार-मारकर मुसलमान रखना पड़ता है। जमात इसी काम को समझा-बुझाकर करने वाला उपकरण है। जमात में सम्मिलित व्यक्ति मानसिक रूप से काफिरों से नापाक धरती को अल्लाह की धरती बनाने में लगा रहता है। ये मदरसों, जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अध्यापक और छात्रों के समूह होते हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार को छोड़कर देश के अन्य भागों का मुसलमान अभी तक पूरी तरह तालिबानी नहीं बना है। ये समूह छुट्टियों में भारत के मुस्लिम क्षेत्रों में फैल जाते हैं और उसे दिन में पांच बार नमाज पढ़ने, अल्लाह एक है और उसमें कोई शरीक नहीं है-बताने, मुहम्मद उसका आखिरी पैगम्बर है, समझाने में लग जाते हैं। कुरआन में मुकम्मल दीन है, मुहम्मद का किया-धरा, जो हदीसों में वर्णित है, को अपने जीवन में उतारने को सुन्नत बताने, सुन्नत को जीवन में उतारना अनिवार्य है, समझाने, यानी 1400 वर्ष पूर्व के अरबी चिंतन को आज के लोगों के दिमाग में ठूंसने में अनवरत कोशिश करते हैं। नव कन्वर्टिड मुसलमानों को सही मुसलमान बनाना यानी तालिबानी बनाना बड़ा 'पवित्र' काम है।
ऐसा करना जन्नत का दरवाजा खोलता है, जहां 72 कुंवारी हूरें हैं जिनके साथ अनंत काल तक बिना थके, बिना रुके, बिना स्खलित हुए भोग किया जा सकता है। ये हूरें भोग के बाद फिर से कुंवारी हो जाने की अजीब सी, अनोखी क्षमता रखती हैं। जन्नत में गिलमां (कमनीय काया वाले लड़के) भी तत्पर मिलते हैं। तिरमिजी के खंड 2 पृष्ठ 138 में कहा गया है, 'जो आदमी जन्नत जाता है उसे 100 पुरुषों के पुरुषत्व के बराबर पौरुष दिया जायेगा', 'उनके पास ऐसे लड़के आ जा रहे हैं जिनकी अवस्था एक ही रहेगी। तुम उन्हें देखो तो समझोगे कि मोती बिखरे हैं'। अब उन लोगों की कल्पना कीजिये जो हर पल इस एहसास से भरे हैं कि वे काफिरों, शैतानों को दुनिया में हैं। उनका काम इसे बदलना है और पुरस्कार रूप में जन्नत जाना है। इन लोगों के लिए पृथ्वी घर नहीं है। पृथ्वी तो 'ट्रांजिट कैम्प' है जहां इस्लाम की खिदमत करते हुए अपनी बीवियों के साथ कुछ समय बिताना है। असली घर तो जन्नत है जहां हूरें और गिलमां आतुरता से उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। लार टपकाता, कमर लपलपाता हुआ ये मानस हर समय इसी उधेड़-बुन में लगा रहता है और जगह-बेजगह विवाद खड़े करता है।
नमाज में एक क्रिया होती है। नमाज पढ़ने वाला अपने दायें हाथ की तर्जनी उठाकर कहता है-खुदा एक है और मैं इसकी गवाही देता हूं। यही बात संभवत: इस विवाद की जड़ थी। ट्रेन में ऐसे लोग भी थे जिन्होंने दायें हाथ की चारों उंगलियां, अंगूठा और हथेली की गद्दी उठा कर प्रमाणित किया कि वे इसके विपरीत गवाही दे रहे हैं। इस मासूम सी क्रिया के कारण गाल गुलाबी करने और फांय-फांय करने की क्या जरूरत है?…..'इस तरह के कामों में इस तरह तो होता है'। खैर जमात पर लौटते हैं। जमातों का कार्य कितनी प्रबलता से और अनवरत किया जाता है, को इस रौशनी में देखें। अफगानिस्तान के हिन्दू-बौद्ध अतीत को नोंच-नांेचकर, खुरच-खुरचकर अफगानी समाज से निकालने का काम इन्हीं जमातियों ने किया है। कश्मीर में भारत विरोधी भावनायें भड़काने का काम, कश्मीरी समाज को भारत द्रोही-हिंदूद्रोही बनाने का काम वहां सदियों से रहंीं तब्लीगी जमातों और इनके अड्डे मदरसों ने किया है। पारसी, बहाई, इस्माइली, तीनों मजहबों का जन्म ईरान में हुआ, मगर आज इनका नामलेवा-पानीदेवा ईरान में कोई नहीं बचा। इनके मानने वाले प्रमुख रूप से भारत में पाये जाते हैं। कहने के लिए कुछ मुल्ला कहते हैं कि मजहब में कोई जबरदस्ती नहीं, तो ये तीनों ईरान से कैसे गायब हो गए? इसकी जड़ में यही तब्लीगी जमातों का अनवरत परिश्रम है। अतीत में भारतीय अपने स्वाभाविक संस्कारों के कारण इस कन्वर्जन को गुरु बदलने की तरह देखते थे। ऐसी भोली-भाली मगर बौड़म सोच का परिणाम बड़े पैमाने पर कन्वर्जन और उसकी अनिवार्य परिणति देश के उन हिस्सों के भारत से टूट जाने में हुई।
आज उत्तर प्रदेश को उत्तर भारत कहा जाता है। सर कनिंघम 1871 में छपी अपनी प्रसिद्घ पुस्तक 'एंशियेंट ज्योग्राफी ऑफ इंडिया' में उत्तर प्रदेश से हजारों मील दूर गजनी को उत्तर भारत दिखाते हैं। अफगानिस्तान का गजनी 1871 में उत्तर भारत था तो भारत की सीमा कहां थी? भरत-वंशियो! आपके महान तेजस्वी पूर्वज 1000 वर्ष पहले रोम तक विजय कर के आये हैं। आज भी जिसकी घोषणा करता शिलालेख उज्जैन में लगा हुआ है। शक, हूण, कुषाण, यवन, पल्हव, बाल्हीक, किरात, पारद, दरद आपके ही रक्त-मांस के सहोदर भरतवंशी क्षत्रिय हैं। महाकाल और भगवती दुर्गा के अनन्य उपासक महान योद्धा शकों, हूणों और इन उल्लेखित योद्धा जातियों के इन्हीं नामों से रामायण और महाभारत में वर्णन उपलब्ध हैं। आपके महान पूर्वजों के साम्राज्य इन क्षेत्रों में सदियों रहे हैं। बंधुओ! सारा यूरेशिया हमारा था। ये क्षेत्र हमारी सैनिक पराजयों के कारण अलग नहीं हुए। कनिंघम के गजनी में दिखाए उत्तर भारत को इन जमातों के कारण केवल 144 वर्ष में हजारों मील खिसक कर मुजफ्फरनगर-कांधला आना पड़ गया। देश को तोड़ने का काम करने वाली जमातों का विरोध मध्य भारत से जबरदस्ती खिसकाकर उत्तर भारतीय बना दिए गए भरतवंशी कर रहे हैं तो ये तो पुण्य कार्य है, राष्ट्र-रक्षा का कार्य है। आखिर हिन्दुस्थान की चिंता हिन्दू नहीं करेंगे तो कौन करेगा? तब्लीगी जमात के मुल्ला मीठी बोली में नहीं सुनते तो मेरठ-मुजफ्फरनगर की खड़ी बोली में समझाने के अलावा और क्या उपाय है?
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