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आशुतोष भटनागर
आधा मीटर चौड़ी और एक मीटर लंबी जगह में क्या कोई जीवन बिता सकता है। 50 एकड़ भूमि को अगर 4 लाख विस्थापितों में बांटें तो यही क्षेत्रफल आता है। नाजियों के गैस चैम्बर में भी इससे ज्यादा जगह थी। लेकिन यह वही आकार है, जिसे लेकर कश्मीर घाटी के अलगाववादी पिछले एक महीने तक आसमान सर पर उठाये रहे।
भारत सरकार ने कश्मीरी हिंदुओं के लिये कुछ आवास बनाने के लिये 50 एकड़ भूमि राज्य सरकार से खोजने का आग्रह किया था। मुख्यमंत्री ने इसके हेतु आवश्यक कार्रवाई की संस्तुति की। जानकारी हो कि जम्मू-कश्मीर में प्रस्तावित आईआईटी और आईआईएम के लिये अभी भूमि नहीं खोजी जा सकी है, क्योंकि मानक के अनुसार 200 एकड़ से कम भूमि पर इस स्तर का कोई संस्थान नहीं बन सकता। लेकिन कश्मीरी अलगाववादियों ने भ्रम फैलाया कि भूमि के उस 50 एकड़ के टुकड़े पर, जिसकी अभी तलाश भी शुरू नहीं हुई, केन्द्र और राज्य सरकार मिलकर 4 लाख विस्थापित कश्मीरी हिन्दुओं को बसाने का षड्यंत्र कर रही है।
इससे विचलित 9 सांसदों ने एक साथ संसद में सवाल उठाकर जानना चाहा कि क्या कश्मीरी पंडितों के लिये किसी विशेष जोन के निर्माण का प्रस्ताव विचाराधीन है। जवाब में गृह राज्यमंत्री हरीभाई पार्थीभाई चौधरी ने सदन को बताया कि विशिष्ट जोन के निर्माण का, विशेषकर जम्मू-कश्मीर के विस्थापित कश्मीरी पंडितों के लिये कोई प्रस्ताव विचाराधीन नहीं है। झूठ के पर्दाफाश की नौबत आने पर इन अलगाववादियों ने घोषणा कर दी कि इस मुद्दे पर केन्द्र व राज्य सरकार ने घुटने टेक दिये हैं और यह उनकी बड़ी जीत है।
हुर्रियत के चेयरमैन सैयद अलीशाह गिलानी ने कहा कि नई दिल्ली ने कश्मीर में पंडितों के लिये अलग से एक कॉलोनी बसाने की पूरी तैयारी कर ली थी। राज्य सरकार ने भी सभी औपचारिकताएं पूरी कर ली थीं, लेकिन कश्मीर के लोगों ने जिस तरह एक होकर विरोध किया, उससे नई दिल्ली डर गयी। यह कश्मीरियों की जीत है। अलगाववादी नेता मीरवाइज उमर फारुख ने कहा कि नई दिल्ली को आखिर कश्मीरियों के आगे झुकना पड़ा। जेकेएलएफ चेयरमैन यासीन मलिक ने कहा कि यह कॉलोनी अगर बनती तो कश्मीर में इस्राराइल और फिलिस्तीन जैसे हालात पैदा हो जाते। नई दिल्ली ने इस कॉलोनी की साजिश हमारी आजादी की मांग को दबाने और कश्मीर के बहुसंख्यक चरित्र को बदलने के लिये रची थी लेकिन कश्मीरी आवाम ने इस साजिश को नाकाम बना दिया है।
मीडिया कई दिन तक पूछता रहा कि क्या कश्मीरी हिन्दू वापस जाने के लिये तैयार हैं। लोग तरह-तरह से उत्तर देते रहे और भ्रम की स्थिति बनी रही। लेकिन किसी ने यह नहीं पूछा कि 50 एकड़ के भूखण्ड पर कितने हिन्दू बसाये जा सकते हैं? क्या कथित कश्मीरियत इतनी नाजुक है कि कुछ सौ हिन्दुओं के आ बसने की आहट से ही उसकी जमीन दरकने लगती है? हर शहर में नये मुहल्ले बसते हैं, इनमें नये लोग आकर रहते हैं। पर इससे सैकड़ों साल पुराने शहर कांपने लगें, यह ताज्जुब की बात है। शायद गिलानी, मीरवाइज और यासीन भूल गये हैं, या भूल जाना चाहते हैं कि जिस श्रीनगर की बात वह कर रहे हैं उसे भी किसी कश्मीरी ने नहीं बल्कि मगध सम्राट अशोक ने बसाया था।
इससे पहले मुख्यमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद द्वारा दर्शाई गयी सद्भावना को धता बताते हुए जेल से हाल ही में रिहा किये गये अलगाववादी मसर्रत आलम ने गिलानी की कश्मीर वापसी पर उनका स्वागत पाकिस्तानी झण्डे लहरा कर किया। मजबूरन मसर्रत को फिर से सलाखों के पीछे भेजना पड़ा। कुछ ही दिन बाद त्राल में आयोजित गिलानी की सभा में भी पाकिस्तानी झण्डे लहराये गये। मुफ्ती ने कड़े कदम उठाने का संदेश देने के लिये गुजरात की धरती को चुना जहां वे पर्यटन को आकर्षित करने के लिये गये थे। दुर्भाग्य से बढ़ा-चढ़ाकर पेश किये गये विरोध के इस वितान के अंदर हुर्रियत की भीतरी अंतर्कलह को देख पाने में सामान्य लोग ही नहीं बल्कि मीडिया के धुरंधर भी नाकाम रहे हैं। स्थानीय समर्थन के कारण वे लोग बेचैन हैं, जिनकी रोजी-रोटी आतंकवाद और अलगाववाद के भरोसे चलती है।
जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया सफल हो, यह पाकिस्तान के लिये चिंता का विषय होना स्वाभाविक है। उसकी उंगलियां हरकत में आयीं और घाटी में बैठी उसकी कठपुतलियां नृत्य करने लगीं। अलगाववादी कोरस शुरू हो गया। दुर्भाग्य से पाकिस्तान प्रेरित इस कोरस का विरोध करने के बजाय स्थानीय राजनीतिक दलों ने भी उसमें अपनी तान मिलानी शुरू कर दी।
राज्य विधानसभा में निर्दलीय विधायक इंजीनियर रशीद के बयान को पढ़ कर महाभारत के एक पात्र का स्मरण हो उठता है जिसमें उन्होंने मुफ्ती से स्पष्ट घोषणा करने की मांग की कि इस टाउनशिप के लिये न तो अभी और न ही भविष्य में कभी एक इंच भी भूमि दी जायेगी।
जम्मू-कश्मीर में अलगाववाद के उद्योग में लगे लोगों ने तिल का ताड़ बनाने में महारत हासिल कर ली है। विडंबना यह है कि उनके इस उद्यम में महज अलगाववादी ही नहीं बल्कि विभिन्न स्थानीय राजनीतिक दल भी शामिल हो जाते हैं, जो स्थिति की जटिलता को बढ़ाते हैं। जब कथित राष्ट्रीय मीडिया भी इसमें जानते हुए या अनजाने जुड़ जाता है तो विनाशकारी प्रभाव उत्पन्न होता है।
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