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जो है, जाहिर होकर रहता है। हरियाणा के यमुनानगर स्थित मुगलवाली गांव में सरस्वती नदी की धारा फूटने से इस नदी की ऐतिहासिकता को मिथक बताने वाली धारणाएं ध्वस्त हो गईं। यह इतिहास है, अब किसे साक्ष्य चाहिए!
दूसरी ओर, 25 अप्रैल को धरती थर्राई तो भारत और नेपाल के बीच विभाजन की वामपंथी वैमनस्य रेखा खींचने वालों के मंसूबे ढेर हो गए। यह सांस्कृतिक सहोदर भाव है। अब किसे प्रमाण चाहिए! समय की धूल चीजों को ढकती जरूर है लेकिन बीज दृढ़जीवी हो तो अस्तित्व बना रहता है। जो समय के उस पार इतिहास था, इस पार वर्तमान तक खिंचा चला आ रहा है, वह शाश्वत है। सरस्वती का स्पंदन और भारत-नेपाल का बंधुभाव काल की इसी कसौटी पर देखा और परखा जाना चाहिए। दोनों ही घटनाएं शाश्वत का साक्षात्कार हैं।
भारत के लिए नेपाल का अर्थ ब्रिटिश राज की 'गोरखा रेजिमेंट' जितना सीमित और मतलबी नहीं है। यह वह बात है जिसे न तो पश्चिम के उस चश्मे से देखा जा सकता है जिसमें एशिया का अगुआ होने की होड़ में भारत-चीन गुत्थमगुत्था दिखते हैं और न ही 'पूंजी और साम्राज्य बढ़ाने को बेकरार' चीन के आर्थिक-रणनीतिक दृष्टिकोण से।
मां जानकी, भगवान बुद्ध की जमीन के लिए प्रेम और नेपाली राजशाही के लिए सम्मान भारत के मानस का आत्मीय भाव रहा है। इसे पैसे, ताकत और कूटनीति की शतरंजी चालों से परे देखना चाहिए।
एक भाई पर आफत आए और दूसरा चुप बैठा रहे यह संभव नहीं। महाभूकंप की त्रासद घड़ी में नेपाल को त्वरित सहायता पहुंचाकर भारत ने यही भंगिमा दिखाई भी ,लेकिन यह कोई पीठ ठोकने जैसी बात नहीं। यह भारत की जिम्मेदारी थी। भारत नहीं तो और कौन? परेशानी में पड़ने पर नेपाल का व्यक्ति चीन नहीं, भारत का रुख करता है।
बहरहाल, गऊ को मां मानने वाले हिन्दू देश में सहायता के नाम पर बीफ-मसाला भेजने वाले पाकिस्तान की नेपाल ने ठीक खबर ली है। वेटिकन कुटिया से पूरे विश्व को संचालित करने का सपना देखने वालों की बाइबिल ठुकराई है। साथ ही भारत के उस निर्मम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी लताड़ा है जो त्रासदी में भी टीआरपी चढ़ाने के लिए फूहड़-वीभत्स तरीके से लोगों के जख्म कुरेदता है और जरा वक्त बीतने पर मानवीय संवेदना की कहानियों से उकताकर सलमान खान की जेल और बेल के चटखारे लेने लगता है। गलत को बुहारा ही जाना चाहिए और यही नेपाल ने किया भी है।
बहरहाल, बात सरस्वती के अस्तित्व की हो या भारत-नेपाल संबंधों में सदियों से चली आ रही सहोदर-ऊष्मा की। कुछ था जो दबा था, पर जिसे लामजंग की थर्राहट से पैदा दरार ने, मुगलवाली में कुदाल की एक चोट ने सतह पर ला दिया। अब विह्वल भाव से सरस्वती की धार को देखिए या डबडबाई आंखों से अपने नेपाली बंधुओं की सहायता करते गैर सरकारी संगठनों के कार्यकर्ताओं को, यह कुछ ऐसे शाश्वत तत्वों की ऐतिहासिकता का साक्षात्कार करने का वक्त है जो समय का हर प्रहार सहते हुए सदा जीवंत रहे हैं।
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