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आठ साल पहले 23 नवंबर, 2007 को 27 मिनट के अंदर वाराणसी, फैजाबाद और लखनऊ कचहरी में श्रृंखलाबद्ध विस्फोट कर 15 लोगों की जान लेने और लोगों के दिलों को दहला देने वाले गुनाहगार आतंकी संगठन हूजी के उत्तर प्रदेश प्रमुख तारिक कासमी को बाराबंकी न्यायालय ने गत 24 अप्रैल को उम्रकैद की सजा क्या सुनाई, मानो सूबे के सेकुलरों को सांप सूंघ गया। वर्ष 2012 में सत्ता में आने के बाद से आतंक के आरोपों में जेलों में बंद मुसलमानों को बेगुनाह होने का प्रमाणपत्र दे रहे और उन पर से मुकदमा खत्म करने की मांग करने वाले सत्तारूढ़ दल समाजवादी पार्टी के लोगों की तो जैसे बोलती ही बंद हो गई हो। बात-बात में न्यायपालिका की दुहाई देने वाले मुलायम सिंह यादव, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, आजम खां जैसे लोगों के मुंह से इस फैसले पर एक शब्द नहीं निकला।
बोल निकलते भी तो कैसे, जब न्यायालय का फैसला मुसीबत बनकर सिर पर आ गिरा हो। वोटों की खातिर देशद्रोहियों व मानवता के दुश्मनों से साठगांठ की पोल खुल गई हो। षड्यंत्र विफल हो गया हो। भले ही कोई कितनी सफाई दे अथवा कथित सेकुलर चुप्पी साधे रहें, लेकिन राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल के अध्यक्ष आमिर रफादी मदनी ने यह कहकर कि सपा ने मुसलमानों के साथ धोखा किया है और न्यायालय में ठीक से पैरवी नहीं की है, कम से कम सपा की तो पोल खोल ही दी है। साथ ही यह भी साबित कर दिया है कि उ. प्र्र. में सरकार के सहारे वोट की खातिर तुष्टीकरण का खतरनाक खेल खेला जा रहा है। इस खेल में जुटे लोगों को देश या समाज का नहीं सिर्फ वोट का ख्याल है।
उलेमा काउंसिल के मदनी की बातों से एक खतरनाक संदेश भी निकल रहा है। मदनी का यह कहना कि सपा ने मुसलमानों को धोखा दिया है, यह बताने के लिए पर्याप्त है कि सपा व मुसलमानों और आतंकी घटनाओं के आरोपी मुसलमानों के बीच कोई न कोई खतरनाक समझौता हुआ है जिसका खुलासा होना चाहिए। यह जांच इसलिए भी जरूरी है क्योंकि सत्ता में आने के बाद से सपा सरकार की तरफ से आतंकी घटनाओं के आरोपी मुसलमानों को बेगुनाह बताने की मुहिम सी चल रही है। भले ही कासमी को न्यायालय ने कचहरी में विस्फोटों का दोषी मानते हुए उम्रकैद की सजा सुना दी हो, लेकिन इसी कासमी को मौजूदा प्रदेश सरकार ने बेगुनाह बताते हुए मुकदमा वापस लेने का फैसला किया था। सपा की सरकार बनने के बाद 3 मई, 2013 को इस मामले की सुनवाई कर रही बाराबंकी की विशेष अदालत में राज्य सरकार के वकील विनोद कुमार द्विवेदी ने प्रार्थना पत्र देकर तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद पर से मुकदमा वापस लेने की मांग की थी।
गौरतलब है कि मुजाहिद भी कासमी के साथ इन विस्फोटों की साजिश में शामिल था। बधाई न्यायालय को कि उसने राज्य सरकार के षड्यंत्र को सफल नहीं होने दिया। मुकदमा वापसी की राज्य सरकार की अपील को 10 मई, 2013 को विशेष अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश कल्पना मिश्र ने खारिज कर दिया था। साथ ही सुनवाई जारी रखने का फैसला सुनाया। इससे सरकार की झुंझलाहट उस दिन सबके सामने आ गई जब 18 मई, 2013 के दिन पेशी से लौटते समय तबीयत बिगड़ जाने से खालिद मुजाहिद की मौत हो गई। इसके बाद सपा सरकार ने अपने ही वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों, तत्कालीन पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह और अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक कानून एवं व्यवस्था बृजलाल सहित कई पुलिस अधिकारियों के खिलाफ खालिद मुजाहिद के चाचा आलम फलाही की तहरीर पर मुकदमा दर्ज करा दिया।
इस तथ्य को खासतौर से ध्यान में रखने की जरूरत है कि इन्हीं दो अधिकारियों की पहल पर एसटीएफ ने कासमी और मुजाहिद को गिरफ्तार किया था। इन्हीं दोनों अधिकारियों ने इस तथ्य का भी खुलासा किया था कि मुजाहिद व कासमी के जम्मू-कश्मीर में मारे गए आतंकी रफीक से भी रिश्ते हैं। जाहिर है कि कहीं न कहीं मौजूदा प्रदेश सरकार का कासमी जैसे लोगों से साठगांठ है और इस तरह के लोगों को संरक्षण देकर मुसलमानों को न सिर्फ लुभाने, बल्कि यह समझाने की भी साजिश हो रही है कि उनका हित सिर्फ सपा की सरकार के रहते ही संभव है। यह बात इससे भी साबित होती है कि सरकार द्वारा कचहरी विस्फोट के दोषी कासमी और मुजाहिद ही नहीं बल्कि इसी तरह के अन्य आतंकी घटनाओं के आरोपी अन्य 19 पर से भी मुकदमा वापस लेने का फैसला किया था। उच्च न्यायालय के फैसले से सरकार की यह साजिश सफल नहीं हो सकी। वोट की खातिर देश, समाज और लोगों की जान को दाव पर लगाने वालों की बोलती बंद है। ल्ल
कब-क्या हुआ
-24 अप्रैल को फैसला सुनाते समय अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश एसपी अरविंद ने 78 पृष्ठ के फैसले में आतंकी तारिक कासमी को दोषी करार देते हुए डेढ़ लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया। अदालत ने कहा, ' भले ही अभियुक्त अपने खतरनाक मंसूबे में कामयाब नहीं हो पाए पर इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो आरोप साबित हुए हैं वे अति गंभीर और राष्ट्र विरोधी हैं।'
-3 मई, 2013 को राज्य की सपा सरकार ने तत्कालीन विशेष लोक अभियोजक को विशेष अदालत से आतंकियों पर से मुकदमा वापसी के लिए दिए प्रार्थना-पत्र में लिखा था कि 'क्षेत्र की सुरक्षा, व्यापक जनहित व सांप्रदायिक सौहार्द को देखते हुए आरोपियों पर से मुकदमा वापस लिया जाना न्यायोचित होगा।'
-10 मई, 2013 को बाराबंकी की तत्कालीन विशेष अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने सरकार से पूछा था कि 'आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त अभियुक्तों से मुकदमा वापस लेने में कौन सा जनहित होगा?'
– सुरेंद्र सिंघल
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