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गैर-सरकारी संगठन- चंदे पर निगरानी से दर्द किसे!

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May 2, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 May 2015 16:02:25

वर्ष 2014 में देश में महज सरकार नहीं बदली है, बल्कि सरकार चलाने की संस्कृति भी बदली है। हाल ही में यह खबर आई है कि मोदी सरकार ने विदेशी चंदे पर पल रहे 8975 गैर-सरकारी संगठनों का पंजीकरण निरस्त कर दिया है। ऐसा इसलिए किया गया है, क्योंकि इन संगठनों ने विदेशी चंदा अधिनियम कानून अर्थात् एफ.सी.आर.ए. का उल्लंघन किया है। गैर-सरकारी संगठनों पर सख्ती की शुरुआत केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा अक्तूबर, 2014 में ही कर दी गई थी। 16 अक्तूबर, 2014 को गृह मंत्रालय द्वारा 10,343 गैर-सरकारी संगठनों से वर्ष 2009 से 2012 तक मिले विदेशी चंदे का ब्योरा मांगा गया था। जवाब के लिए तय 1 महीने की समय-सीमा बीत जाने के बाद तक मात्र 229 संगठनों ने ही अपना विवरण दिया। चंदे के धंधे से फल-फूल रहे इस कारोबार पर लगाम लगाने के उद्देश्य से ही केन्द्र सरकार ने हाल ही में अमरीका के बहु-चर्चित 'फोर्ड फाउण्डेशन' द्वारा भारत में दिए चंदे को निगरानी में रखने का आदेश जारी किया है। अधिकांश लोग सरकार के इस आदेश और सख्ती की सराहना कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ विदेशी चंदों पर पलने वाले चंद संगठन एवं लोग इसे 'आपातकाल' जैसी स्थिति बताने तक से भी नहीं चूक रहे हैं। दरअसल, सरकार द्वारा जिन 8975 गैर-सरकारी संगठनांे की पंजीयन मान्यता निरस्त की गई है अथवा अस्थायी तौर पर उन्हें प्रतिबंधित किया है, उनमें 'ग्रीनपीस इण्डिया' नाम की संस्था भी है, जो कहने के लिए पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रही है। इस संस्था का लाइसेंस भी आगामी 6 महीने के लिए निरस्त कर दिया गया है एवं भारत में स्थित इसके सभी खातों को 'फ्रीज' कर दिया गया है। गृह मंत्रालय ने 'ग्रीनपीस इण्डिया' को विदेशी चंदा अधिनियम के तहत 'आंकड़े छुपाने' एवं आर्थिक विकास में बाधा डालने का दोषी पाया है। दरअसल, भारत में 'फोर्ड फाउण्डेशन' एवं 'ग्रीनपीस इण्डिया' को लेकर हमेशा से यह चर्चा रही है कि इन संगठनों की कार्यप्रणाली देशहित में नहीं है।
सबसे पहले अगर बात 'ग्रीनपीस इण्डिया' की करें तो यह गैर-सरकारी संगठन विदेशी चंदा प्राप्त करने के लिए कुछ ऐसे दुष्प्रचारों और तथ्यहीन मुद्दों को हवा देता रहा है, जिससे कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर न सिर्फ भारत की साख धूमिल होती है, बल्कि अन्तरराष्ट्रीय आर्थिक संबंधों पर भी असर पड़ता है।
आईबी की रपट के अनुसार 'ग्रीनपीस इण्डिया' के कामकाज पर सवाल उठना लाजिमी है। एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल की वेबसाइट पर छपे एक लेख में यह बताया गया है कि 'ग्रीनपीस इण्डिया' ने 'ट्रबल ब्रूईंग ऑन इंडियन टी' नाम से एक शोध-पत्र जारी किया था। इस शोध-पत्र में दावा किया गया है कि भारत में कई तरह की चाय पत्तियों में खतरनाक कीटनाशक मौजूद हैं। जिन चाय पत्तियों की यहां चर्चा की गई है उनका अमरीका, ब्रिटेन और यूरोप में निर्यात होता है। आईबी की रपट से यह बात सरकार तक पहुंची कि 'ग्रीनपीस इण्डिया' द्वारा भारत में चाय के कारोबार को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर बदनाम करने की बेजा कोशिश की जा रही है। आईबी की रपट में यह भी बताया गया है कि 'ग्रीनपीस इण्डिया' ने यह नहीं बताया है कि भारत में पैदा होने वाली चाय पत्तियों के नमूनों की जांच उसने कहां कराई है और जांच के मापदण्ड क्या रहे हैं। लिहाजा 'ग्रीनपीस इण्डिया' की नीयत स्वत: संदिग्ध लगती है। आईबी की रपट के अनुसार 'ग्रीनपीस इण्डिया' ने भारतीय चाय पत्तियों से सम्बंधित रपट यूरोप के किसी देश की निजी प्रयोगशाला में तैयार करवाई है। इस रपट के आधार पर यह समझना मुश्किल नहीं है कि 'ग्रीनपीस इण्डिया' विदेशी आर्थिक एवं राजनीतिक शक्तियों के साथ मिलकर भारत के चाय उद्योग की छवि खराब करने की साजिश कर रही है। यहां तक कि भारतीय चाय बोर्ड भी 'ग्रीनपीस इण्डिया' से सहमत नहीं है। इसलिए 'ग्रीनपीस इण्डिया' जैसे संगठनों पर लगाम कसने की जरूरत है। सरकार वही काम कर भी रही है।
'ग्रीनपीस इण्डिया' की गतिविधियां फिलहाल दुनिया के लगभग 40 देशों में मौजूद हैं। तकरीबन दो साल पहले तक 'ग्रीनपीस इण्डिया' के सदस्यों की संख्या 30 लाख के आसपास थी, जो अब कुछ बढ़ भी गई होगी। गृह मंत्रालय के मुताबिक 'ग्रीनपीस इण्डिया' को पिछले सात वर्ष में करीब 53 करोड़ रुपए हासिल हुए हैं। सवाल है कि इतने बड़े संगठन और इतने बड़े बजट के बूते 'ग्रीनपीस इण्डिया' ने भारत में बुनियादी स्तर पर क्या किया है? यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि इस संस्था ने गृह मंत्रालय को अपना आय-व्यय ब्योरा मांगने के बावजूद नहीं दिया है। लिहाजा इसके लाईसेंस को निरस्त किया गया है। इसमें भला क्यों शक हो सकता है कि बाहर से आ रहा पैसा भारत में भारत की ही छवि को धूमिल करने के उद्देश्यों से इन संगठनों द्वारा पर्यावरण आदि की आड़ में निवेश किया जा रहा है?
हालांकि गृह मंत्रालय की जद में बहुचर्चित 'फोर्ड फाउण्डेशन' भी आ गया है और सरकार ने इसकी लेन-देन पर निगरानी रखने का स्पष्ट निर्देश जारी किया है। अगर बारीकी से मामलों को देखा जाए तो 'फोर्ड फाउण्डेशन' पर सरकार की सख्त निगरानी बहुत पहले रखी जानी चाहिए थी, लेकिन न जाने पिछली संप्रग सरकार ने ऐसा क्यों नहीं किया! संप्रग सरकार ने 'फोर्ड फाउण्डेशन' को भारत में बिना किसी निगरानी के काम करने और पैसा देने की खुली छूट दे रखी थी। 'फोर्ड फाउण्डेशन' एक ऐसी विदेशी संस्था है, जिसकी गतिविधियां सर्वाधिक संदिग्ध रही हैं। चंदे के बूते मानवाधिकार, पर्यावरण जैसे जुमलों को हवा देकर फोर्ड ने अपने छिपे हितों के लिए न जाने कितने काम किए होंगे।
'फोर्ड फाउण्डेशन' और अमरीकी खुफिया एजेंसी सीआईए के रिश्तों पर एक किताब 1999 में आई थी। किताब का नाम है 'हू पेड द पाइपर : सीआईए एंड द कल्चरल कोल्ड वार'। फ्रांसेस स्टोनर सांडर्स ने अपनी इस किताब में पूरी दुनिया में सीआईए के काम करने के तरीके को समझाया है। कुछ प्रमाणों को आधार बनाकर लेखक ने सीआईए और कई नामचीन संगठनों के संबंधों का भी खुलासा किया है। किताब के अनुसार 'फोर्ड फाउण्डेशन' और अमरीका के तमाम मित्र देशों के कई संगठनों के जरिए सीआईए दूसरे देशों में अपने लोगों को मोटा धन उपलब्ध करवाता है। इस बाबत अमरीकी कांग्रेस ने सत्तर के दशक में एक समिति बनाई थी। इसकी रपट में यह बात सामने आई है कि अमरीका ने विविध संगठनों को 700 बार दान दिए, इनमें से आधे से अधिक सीआईए के जरिए खर्च किए गए।
'फोर्ड फाउण्डेशन' पर निगरानी का निर्देश गुजरात सरकार की एक रपट के आधार पर दिया गया है। गुजरात सरकार ने अपनी रपट में लिखा है, 'फोर्ड फाउण्डेशन ने भारत में एक ऐसे संस्थान को समर्थन दिया है, जो सामाजिक पक्षपाती रवैये के साथ सांप्रदायिक तनाव भड़काने की रणनीति पर काम करता है। 'फोर्ड फाउण्डेशन' ने सबरंग ट्रस्ट को एक मजहब और मुसलमानों का समर्थन करने वाले आपराधिक नियमों की वकालत करने के लिए प्रोत्साहित किया है और 2002 के दंगे की बात बरकरार रखी है।' गुजरात सरकार की रपट में यह भी कहा गया है कि सबरंग ट्रस्ट और सबरंग कम्युनिकेशंस एंड पब्लिशिंग प्राइवेट लिमिटेड (एससीपीपीएल) 'फोर्ड फाउण्डेशन' के प्रतिनिधि कार्यालय हैं और 'फोर्ड फाउण्डेशन' लंबी अवधि की अपनी किसी योजना की वजह से इन्हें स्थापित करने के साथ ही इसका इस्तेमाल कर रहा है। फाउण्डेशन ने सबरंग ट्रस्ट को 2,50,000 डॉलर और एससीपीपीएल को 2,90,000 डॉलर चंदे के तौर पर दिए हैं। बड़ा सवाल यह है कि गैर-सरकारी संगठनों का ताना-बाना बुनकर देश के सामाजिक और राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप करने वाले किसी भी किस्म के विदेशी पैसों को निगरानी से बाहर क्यों रखा जाए? जिस सबरंग ट्रस्ट की बात यहां की जा रही है, उसका प्रत्यक्ष जुड़ाव तीस्ता सीतलवाड़ से है। गुजरात में दंगा पीडि़तों के नाम पर साम्प्रदायिकता को हवा देने वाली तीस्ता सीतलवाड़ की भूमिका पहले ही संदिग्ध रही है और मामला न्यायालय के अंतर्गत भी है। लिहाजा फोर्ड और तीस्ता सीतलवाड़ के ट्रस्ट के बीच का यह चंदा रिश्ता साफ समझा जा सकता है। गुजरात सरकार के गृह राज्यमंत्री रजनीकांत पटेल ने भी कहा है कि हमें जानकारी मिली थी कि सबरंग ट्रस्ट को जो राशि मिली, खासकर 'फोर्ड फाउण्डेशन' से, उसका उपयोग वास्तव में यहां सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने तथा विदेशों में भारत के विरुद्ध दुष्प्रचार के लिए किया गया।
मोदी सरकार आने के बाद दुनिया भले ही मोदी की मुरीद हो गई हो, लेकिन भारत की सेकुलर जमात में एक अजीब छटपटाहट देखी जा रही है। दरअसल, इस छटपटाहट की मूल वजह यही है कि अब उनके द्वारा देश में जहर की तरह फैला दिए गए 'चंदे के धंधे' पर लगाम लगने लगी है। देश के कथित बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों का एक बड़ा हिस्सा इसी चंदे के धंधे में संलिप्त होकर देश विरोधी गतिविधियों से मिलने वाली मलाई काट रहा था, जिस पर मोदी सरकार ने लगाम लगा दी है। अत: कोई इसे फासीवाद, तो कोई आपातकाल कह कर अपनी छाती पीट रहा है।
फोर्ड की राजनीति में घुसपैठ
कांग्रेसी सरकारों की शह पर 'फोर्ड फाउण्डेशन' भारत की राजनीति में भी घुसपैठ कर चुका है। कहा जा रहा है कि 'आम आदमी पार्टी' का उदय और अरविन्द केजरीवाल का मुख्यमंत्री बनना इसी का लक्षण मात्र है। हालांकि यह घुसपैठ तो और भी खतरनाक है, क्योंकि इसका सीधा प्रभाव देश के नीति-निर्माण पर पड़ने की सम्भावना है। फोर्ड का केजरीवाल रिश्ता किसी से छुपा नहीं है। 'बियॉन्ड हेडलाइन्स' नामक वेबसाइट ने 'सूचना के अधिकार कानून' के जरिए केजरीवाल एवं मनीष सिसोदिया की गैर सरकारी संस्था 'कबीर' को विदेशी धन मिलने की जानकारी मांगी थी। इस जानकारी के अनुसार 'कबीर' को 2007 से लेकर 2010 तक 'फोर्ड फाउंडेशन' से 86,61,742 रुपए मिले हैं। कबीर को धन देने वालों की सूची में एक ऐसा भी नाम है, जिसे पढ़कर हर कोई चौंक जाएगा। यह नाम डच दूतावास का है। दरअसल, केजरीवाल को पाल-पोष कर नेतृत्वकर्ता के रूप में खड़ा करने वाला कोई और नहीं, बल्कि यही 'फोर्ड फाउण्डेशन' है। प्रथम-प्रवक्ता में छपे एक लेख में यह बताया गया है कि जनवरी, 2000 में अरविंद केजरीवाल छुट्टी पर गए। फिर 'परिवर्तन' नाम से एक गैर-सरकारी संस्था का गठन किया। केजरीवाल ने वर्ष 2006 के फरवरी महीने से 'परिवर्तन' में पूरा समय देने के लिए सरकारी नौकरी छोड़ दी। इसी वर्ष उन्हें उभरते नेतृत्व के लिए मैग्सायसाय पुरस्कार मिला। यह पुरस्कार 'फोर्ड फाउण्डेशन' की मदद से ही सन् 2000 में शुरू किया गया था। माना जा रहा है कि केजरीवाल के प्रत्येक कदम में 'फोर्ड फाउण्डेशन' की भूमिका रही है। पहले उन्हें 38 वर्ष की उम्र में 50,000 डॉलर का यह पुरस्कार मिला, लेकिन उनकी एक भी उपलब्धि का विवरण इस पुरस्कार के साथ नहीं था। केजरीवाल का रिश्ता केवल फोर्ड तक नहीं, बल्कि डच दूतावास से दिए जाने वाले चंदे तक भी है। नीदरलैण्ड की एक गैर-सरकारी संस्था 'हिवोस' ने गुजरात के विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों को अप्रैल, 2008 और अगस्त, 2012 के बीच 13 लाख यूरो यानी सवा नौ करोड़ रुपए दिए। यह जगजाहिर है कि 'हिवोस' पर 'फोर्ड फाउण्डेशन' की सबसे ज्यादा कृपा रहती है। यानी जिस संगठन ने केजरीवाल और फोर्ड के साथ काम किया, उसकी रुचि गुजरात में भी रही है। इसलिए इन संगठनों पर शंका स्वाभाविक है।

-शिवानन्द द्विवेदी

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