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अपनी बात : सहकार का संकल्प

by
May 2, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 May 2015 13:53:43

 

कुछ पल के लिए कांपी धरती ने नेपाल को असह्य पीड़ा दे डाली। भूकंप का यह आघात इस क्षेत्र में सदी का सबसे भीषण आघात था। उससे मिली पीड़ा भी बहुत भीषण थी। ऐसी भारी पीड़ा से बाहर निकल पाने के लिए जो प्रयास, ऊर्जा और धैर्य चाहिए, उसकी तीव्रता भी किसी रिक्टर पैमाने पर आठ से कम नहीं होनी चाहिए। आज अगर नेपाल को या किसी और को भी ऐसा लगता है कि भारत इस स्तर की ऊर्जा और प्रयासों का प्रदर्शन करने में सफल रहा है, तो इसमें श्लाघनीय कुछ नहीं है। मानवीयता के अतिरिक्त, नेपाल हमारा मित्र मात्र नहीं है। उसका हमारा जटिल, गहरा, ऐतिहासिक-प्रागैतिहासिक,अभिन्न, ऐहिक-दैहिक-भौतिक और अलौकिक संबंध अपरिभाष्य है। इन दोनों देशों के परस्पर गंुथे-बुने संबधों के सूत्र इतिहास, भूगोल और यहां की साझा संस्कृति में हैं। यह आपसी समझ, संवेदनशीलता और सहोदर भाव की वह स्थिति है जहां तन भले दो हों, मन एक ही होता है। भारत दु:ख की इस घड़ी में नेपाल के साथ है तो इसलिए क्योंकि इस स्थिति में इससे अलग भूमिका की कल्पना भी इस देश का मानस नहीं कर सकता। यही कारण है कि धरती की यह थर्राहट जितनी सीमा के उस ओर उथल-पुथल मचाने वाली थी, दर्द की उतनी ही तीखी टीस इस तरफ भी महसूस हुई। क्या यह अप्रत्याशित है? नहीं, एक आंख से आंसू बहें और दूसरी आंख सूखी रहे, क्या ऐसा संभव है? यह भारत और नेपाल की अनन्य आत्मीयता ही थी कि क्रमश: दोनों देशों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं हिन्दू सेवक संघ के हजारों कार्यकर्त्ता बिना किसी आह्वान के, स्वत: और सद्य: स्फूर्त राहत, बचाव और सेवाकार्य में जुट गए। किसी भी त्रासदी से निपटने में अंतत: समाज की अपनी दृढ़ता और क्षमता ही निर्णायक सिद्ध होती है। जिन भी कार्यकर्त्ताओं ने इस मानवीयतापूर्ण पुण्यकार्य में योगदान दिया है, शेष समाज को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए।
विडंबना यह कि इस प्रकृति-प्रदत्त आपदा से जूझते नेपाल को फिर मानव-प्रदत्त आपदा का सामना तब करना पड़ा, जब कुछ देशों ने उसे 'डिजास्टर टूरिज्म' का और अपने शर्मनाक स्वार्थों का अड्डा बनाने की कोशिश की। संकट के समय में मदद की होड़ हुई, यह तो ठीक है, लेकिन यह विशुद्ध मानवीयता के तत्व से प्रेरित होनी चाहिए थी। किसी की परिस्थिति, पारिस्थिति, गरीबी और मजबूरी का नाजायज लाभ उठाने की चेष्टा करना मानवीयता के नाम पर लूट जैसा कलंकनीय कार्य है। मैत्री भाव में कुछ करने पर न उपकार होता है, न स्वार्थ। लिहाजा किसी देश की नीयत पर तब तक संदेह नहीं किया जाना चाहिए, जब तक ऐसा करने का कोई ठोस कारण न हो। लेकिन यह विडंबना है कि इस संकट की घड़ी में भी नेपाल को ताइवान से आई मदद लौटाने के लिए बाध्य होना पड़ा। क्यों? क्या यह चीनी पकड़ की वजह से है? क्या चीनी मदद सशर्त थी? यदि हां, तो क्या उसकी कोई और भी शर्त थी? नेपाल से कहीं ज्यादा इसका उत्तर चीन को देना चाहिए। इसी प्रकार जिन देशों और संस्थाओं ने नेपाल को मदद देने के नाम पर 'बीफ मसाला' खिलाने, बाइबिल की प्रतियां थमाने और बेसहारा नागरिकों को कन्वर्ट कराने की कोशिश की है, उनका अंतरराष्ट्रीय बहिष्कार होना चाहिए।
भारत की राहत, बचाव और सहायता नेपाल के मांगे बिना ही वहां पहुंचकर काम संभाल चुकी थी। यहां तक कि नेपाल के प्रधानमंत्री को भी भूकंप की सूचना मोदी के ट्वीट से ही मिली थी। भारत ने जिस तत्परता से नेपाल की मदद की, नेपाल ने तहे-दिल से उसे सराहा। लेकिन भारत-नेपाल संबंधों की परीक्षा यहां समाप्त नहीं होती। आपदा से बाहर निकलते ही नेपाल को अपने पुनर्निर्माण की चुनौती का सामना करना है। कहा जा रहा है कि नेपाल में जितनी तबाही हुई है, वह उसकी राष्ट्रीय आय से भी कहीं अधिक है। यह निश्चित ही कठिन समय का सूचक है। पुनर्निर्माण न केवल धनसाध्य और श्रमसाध्य होगा, बल्कि उसे ऐसा होना होगा कि वह भविष्य में धरती की सतह के भीतर की किसी हलचल को सतह के ऊपर त्रासदी न बनने दे। यह सबक नेपाल के लिए भी है, और भारत के लिए भी। भारत का भी काफी भू-भाग भूकंप की दृष्टि से काफी संवेदनशील है। ढलान और कच्ची मिट्टी पर बसे क्षेत्रों की स्थिति तो और भी शोचनीय है। इस त्रासदी से अगर दोनों देशों ने सहकार का सबक सीखा है, तो अब उन्हें सुरक्षित और स्वस्थ जीवन का संकल्प भी लेना चाहिए।

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