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दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक किसान की संदिग्ध स्थितियों में आत्महत्या भीतर तक हिला देने वाली खबर है। दुर्घटना के चंद पलों में ही सोशल मीडिया पर प्रश्न और त्वरित प्रतिक्रियाओं की जैसी बौछार हुई वह बताता है कि लोग भीतर तक भरे बैठे हैं। एक लावा है बदहाली और बेबसी के विरुद्ध जो बुरी तरह खदबदा रहा है, एक घाव है जो हरदम हरा रहता है, जरा रगड़… और टीस के साथ मुट्ठियां भिंच जाती हैं।
क्या है यह गुस्सा? क्यों पनपा है? क्या इस गुस्से में भी कुछ लोग अपना हित साध लेना चाहते हैं? संवेदनशील मुद्दे को सियासी धार लगाई जा रही है, किसान सत्ता की सान पर हैं। गजेन्द्र की मृत्यु दु:खद है। इसकी पड़ताल अभी बाकी है लेकिन इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने खेती-किसानी और इसे लेकर बरते जाने वाले राजनैतिक रवैये पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
दरअसल, किसानों की बदहाली सिर्फ चंद बेमौसमी छींटों की उपज नहीं है। यह लंबी दर्दनाक कहानी स्वतंत्र भारत के विसंगतिपूर्ण विकास ढांचे की चुगली करती है। किसान विकास की कहानी में भागीदार कहां है? उसका शेयर, बैंक बैलेंस कहां है? सब जिसका दिया खाते हैं वह अन्नदाता क्रेडिट कार्ड, कर्ज माफी, बिजली और सिंचाई जैसे मुद्दों पर किस खूंटे से बंधा बैठा है?
सर्राफा और सेंसेक्स चाहे जितने कुलांचे भरें लेकिन भारतीय राजनीति में वोटबैंक की दृष्टि से सबसे बड़े हिस्सेदार की हालत यह है कि आज उसके पास मवेशियों के लिए भूसे और बच्चों के लिए दूध का भी टोटा है।
इंडिया भले ही चेतन भगत के 'ए नाइट एट अ कॉल सेंटर' पर पहुंच गया हो, लेकिन भारत का अधिकतर कृषक वर्ग आज भी मुंशी प्रेमचंद के 'गोदान' का ही चक्कर काट रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद विकास कायार्ें की विसंगतियों, बिजली, पानी पर लगातार बढ़ते औद्योगिक कब्जे और हर पीढ़ी के बाद घटकर आधी रह जाने वाली जोत ने किसान की कमर तोड़कर रख दी। जिसकी आय कर मुक्त थी वह आय से ही विमुक्त हो गया।
जंतर-मंतर की घटना पर सुरक्षित दूरी बनाए रखते हुए कांग्रेस आम आदमी पार्टी के साथ भारतीय जनता पार्टी को भी लपेटना चाहती है। मगर किसानों की दुर्दशा का मुद्दा ऐसा है जिससे कांग्रेस सिर्फ विपक्ष में होने की सफाई देकर नहीं बच सकती। ऐसा नहीं है कि 11 माह पहले किसान मालामाल थे और सिर्फ इस बार के ओलों से सब बर्बाद हो गया। जैसे ही कुछ पार्टियों के प्रवक्ता यह बताने का प्रयास करते हैं, शासकीय असंवेदनशीलताओं की दशकों पुरानी कहानियां उघड़ने लगती हैं। किसान राजनीति का बंधक रहा और भारत की राजनीति कुनबा-कांग्रेस की बंधक रही यह सर्वज्ञात तथ्य है। मुंह दिखाकर चली जाने वाली सस्ती बिजली, कभी न मिलने वाले 'आसान कर्ज' और चुनावी खुनक में दिए गए कर्ज माफी के झुनझुनों से बहलाया जाता भोला किसान पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हीं राजनीतिज्ञों के हाथों ठगा गया जिन्हें हाल के आम चुनाव में उसने अपने आंगन से बुहार दिया है।
राजधानी की घटना पर कांग्रेसी बयान के बाद आम आदमी पार्टी का जिक्र जरूरी हो जाता है। किसानों को जमीन अधिग्रहण के नाम पर बेजा डराने वाले लोग इस मुहिम में केंद्र सरकार के विरुद्ध मोर्चाबंदी करते हैं तो उनकी नीयत पर शक होता है। जिस राज्य में 'फार्म हाउस' की कतार में इक्का-दुक्का खेत और नामभर के किसान बचे हों वहां किसान रैली का आयोजन? राजस्थान तक से किसानों का दौड़े चले आना? जंतर-मंतर पर ऐसा क्या किया जाने वाला था? किसान की आत्महत्या के दौरान भाषणबाजी में मशगूल नेताओं ने अपनी नीयत पर शक करने की वजह खुद दी है। और अंत में बात भाजपा की। आजादी के बाद पहली बार किसानों के लिए फसल मुआवजे में भारी वृद्धि और नुकसान के मापदंड को नरम करने वाले दल से नि:संदेह कृषक भारत को भारी उम्मीदें हैं। औद्योगीकरण के सफर में किसानों को साथ लेकर चलने, गांवों के साथ स्मार्ट शहर बसाने और किसान परिवारों को अन्यान्य रोजगार के अवसर देने की बातें ठीक हैं, लेकिन विरोधियों की रची धुंध में सच खो न जाए इस बात को समझना और उसे लोगों तक पहुंचाना बहुत जरूरी है। विरोधियों के पास अपना तर्क न हो सिर्फ इसलिए आपका सच जीत जाएगा यह सोचना गलत है। किसान का हित सोचने वाले को उसके साथ बैठ, दु:ख में दृढ़ता से उसके साथ बने रहकर अपनी विश्वसनीयता साबित करनी होगी।
बुरे वक्त का मारा हर जगह ठोकर खाता है। जंतर-मंतर पर इस देश के किसान ने अपने आड़े वक्त में ठोकर खाई है, लेकिन ठोकरें सिखाती हैं। एक किसान की मौत सत्ता के रंगे सियारों का सच उजागर करने की वजह बनी है।
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