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किसकी खिसकी जमीन! 

by
Mar 28, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 28 Mar 2015 15:03:48

 

 

संप्रग सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में ऐसे पेच फंसाए थे जिनसे किसानों का हित नहीं सध रहा था, बल्कि 'दामाद जी' जैसों के वारे न्यारे हो रहे थे। मोदी सरकार की इस संबंध में पहल से कांग्रेस और विपक्ष की राजनीतिक जमीन डावांडोल होती दिख रही है, जिसे बचाने को वे सब लामबंद होकर खुद को किसानों के पक्षधर दिखाने का दिखावा कर रहे हैं। 

भूमि अधिग्रहण विधेयक के विरोध का एक मोटा पहलू इस समझ का है कि अगर आप उद्योग समर्थक होते हैं, तो आपको किसान विरोधी होना चाहिए और अगर आप किसान समर्थक होते हैं, तो आपको उद्योग विरोधी होना चाहिए। यह अलग बात है कि 2013 का कानून उद्योग विरोधी होने के साथ-साथ किसान विरोधी भी था। अब चूंकि नया विधेयक कुछ हलचल करने के पक्ष में है, इसलिए इसे आसानी से किसान विरोधी कहा जा रहा है।

किसान नंबर 1 का यथार्थ
खेती के नाम पर कई बार घाटे का सौदा
आत्महत्या के लिए कई बार मजबूर हुआ
जोत पीढ़ी दर पीढ़ी छोटी होती गई,
66 साल से ठगी का शिकार
किसान नंबर 2 का यथार्थ
हर बार मोटे मुनाफे का सौदा
किसी नियम-नीति का भय नहीं
तीन राज्यों में अरबों की जमीन
जमीन बेचने वाले ही ठगे

'कैग ' के घेरे में वाड्रा
हाल ही में नियंत्रण एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने हरियाणा की पूर्व भूपेन्द्र सिंह हुड्डा सरकार को कठघरे में खड़ा करते हुए खुलासा किया है कि उसने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा को डीएलएफ के साथ हुए जमीन समझौते में अनुचित लाभ पहुंचाया। जो जमीन बड़े ही कम दामों पर वाड्रा ने खरीदी थी वह किसानों की थीं और इसे बाद में कई गुना ज्यादा दामों पर 'रियल इस्टेट' कंपनियों को बेच दिया गया।
वित्तीय वर्ष 2013-14 की रपट के अनुसार रॉबर्ट वाड्रा की कंपनी ने मानेसर के पास शिकोहपुर गंाव की भूमि को मूल लागत से 7.73 गुणा अधिक दामों पर डीएलएफ यूनिवर्सल को बेचा था और 15 प्रतिशत से अधिक लाभ वाली राशि भी सरकारी कोष में जमा नहीं कराई। रपट में यह भी बताया गया कि इस प्रकार कुल पांच लाइसंेस धारक कंपनियों ने जमीन बेचकर 267.47 करोड़ रु. कमाए जबकि इन कंपनियों ने किसानों की भूमि को मात्र 52.26 करोड़ रु. में ही खरीदा था। इस प्रकार भूमि सौदों में कंपनियों ने 215.21 करोड़ रु. का लाभ कमाया। हरियाणा विधानसभा में पेश की गई कैग की रपट में ग्राम एवं आयोजन विभाग पर भी सवाल उठाएं हैं। इसमें कहा है कि विभाग ने लाइसेंस की सैद्धांतिक व औपचारिक मंजूरी देते समय भी ये सुनिश्चित नहीं किया किया 15 प्रतिशत से अधिक राजस्व लाभ कंपनियों को सरकार के पास जमा कराना होगा। इस कार्य से विभाग ने कंपनियों को खुला छोड़ा जिससे राज्य को नुकसान उठाना पड़ा।

ट्विटर टिप्पणी
'कैग' ने वाड्रा को हरियाण की भूपेन्द्र सिंह हुड्डा सरकार की मदद से मोटा मुनाफा बनाने पर कठघरे में खड़ा किया।
— वॉचिंग पीएम एट नमो
'कैग' ने पाया, वाड्रा फर्म ने असली कीमत से 7 गुना ज्यादा कीमत पर जमीन बेची।
— अमित शाह आर्मी

एक करोड़ बीस लाख। इतने नए लड़के-लड़कियां हर साल रोजगार की तलाश में घर से निकलते हैं। यह संख्या हर साल इंच दर इंच बढ़ रही है। भारत युवा देश है और युवा देश होने का एक पहलू यह भी है कि आपको उनके रोजगार की चिंता करनी पड़ती है। कौन देगा इन्हें रोजगार?
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने युवा देश के पक्ष को चुनावों में जनता के सामने रखा था। जाहिर है, उनके मन में इस प्रश्न का कोई उत्तर भी रहा होगा। क्या है वह उत्तर?
मेक इन इंडिया। हमारे पास बहुत सारी पूंजी हो न हो, अपनी श्रम शक्ति का सकारात्मक इस्तेमाल तो हम कर ही सकते हैं।
क्या करेंगे मेक इन इंडिया में? मूलत: निर्माण। बाकी क्षेत्रों भी आगे बढे़ंगे, लेकिन इंजन निर्माण क्षेत्र का होगा। माने कल-कारखाने, रेल, बिजली-पानी-सड़क। माने कम से कम दर्जनों छोटे शहर। फिर?
100 'स्मार्ट सिटी'। सारी बातें हवा में न रह जाएं, इसलिए राज्यों को पहले ही संतुष्ट-सहमत कर लिया गया है।
इन सारी बातों का तात्पर्य यह है कि अगर आप मोदी सरकार के आर्थिक कदमों को गौर से देखें, तो आप पाएंगे कि सारे कदम एक दूसरे से तालमेल बनाकर चल रहे हैं, किस कदम का महत्व क्या है, यह शीर्ष नेतृत्व अच्छी तरह जानता है।
इसमें सबसे बड़ा पेच कहां है? वास्तव में कई स्थानों पर पेच हैं, एक मूलभूत पेंच यह है कि कोई भी कल-कारखाना, नहर, सड़क या बिजलीघर हवा में नहीं बन सकता।
दूसरा एक बड़ा पेच यह है कि हर साल रोजगार की तलाश में उतरने वाले भारतीयों में से सारे उद्योगों में काम कर सकेंगे-यह संभव नहीं है। कुछ को खेती में भी जाना पड़ेगा, सेवा क्षेत्र में काम करना पड़ेगा या कोई मिला-जुला बीच का रास्ता निकालना पड़ेगा।
हर रास्ते के लिए पहले रास्ता-माने सड़क चाहिए। फिर रास्ता कोई भी हो, बिजली, जमीन, पानी और दक्ष कार्यशक्ति सभी को चाहिए। कहां से आएगी बिजली, सड़क, पानी और दक्ष कार्यशक्ति?
जाहिर है, बुनियाद जमीन पर टिकी होगी। जमीन कहां से आएगी? इस प्रश्न का कोई उत्तर देने के बजाए विपक्ष नकारात्मकता और भ्रम की राजनीति पर उतर आया है। जैसे यह कि किसी को एक इंच जमीन पर काम मत करने दो, अगर कोई काम मांगे, तो उससे कहो कि वह दस वर्ष में एक बार पौन किलोमीटर की पैदल परेड करे, आंदोलन, तोड़फोड़, हंगामा करे। उससे भी काम न बने, तो सरकार प्रायोजित नकल कार्यक्रम वाले विश्वविद्यालय में दाखिला ले ले। बाद में जो होगा, देखा जाएगा। इसके अलावा जो भी कुछ कहा जाए, तो वह झूठ है। विपक्ष भूमि अधिग्रहण विधेयक को किसान विरोधी कहता आ रहा है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं करता है कि वह किस किसान की बात कर रहा है।
किसान की स्थिति क्या है? किसान वह है जो खेती के नाम पर कई बार घाटे का सौदा कर रहा है, किसान वह है, जो आत्महत्या के लिए मजबूर हो रहा है। किसान वह है, जिसकी जोत पीढ़ी दर पीढ़ी छोटी होती जा रही है। पिछले एक दशक में औसत जोत लगभग एक एकड़ छोटी हुई है। देश के चार बड़े राज्यों में (उत्तर प्रदेश, बिहार,पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु)औसत जोत का आकार दो एकड़ से भी कम है। किसान वह है जो जमीन हथियाने वालों के हाथों 66 साल से ठगा जाता रहा है। किसान वह है, जो दुनिया की रफ्तार देखकर भौंचक खड़ा है, और चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा है। किसान वह है, जो दिल से चाहता है कि उसके बेटे-बेटियों में से किसी को तो कहीं नौकरी मिल जाए और उसे खेती के झंझट से मुक्ति मिले।
एक किसान और होता है। जैसे कि राबर्ट वाड्रा। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिन्दर सिंह हुड्डा के मुताबिक वह एक छोटे 'किसान' हैं। बहरहाल वह खेती के नाम पर कई बार मोटे मुनाफे का सौदा कर चुके हैं, उनकी जोत दिन दूनी-रात चौगुनी बढ़ चुकी है। वह 66 साल की ठगी की कहानी चंद वर्ष में ही लिख सकते हैं। दुनिया उनकी रफ्तार देखकर भौंचक हो जाती है, और अभी तक कोई चाह कर भी कुछ नहीं कर पाया था।
सारी लड़ाई इन्हीं दो किसानों के बीच है। पहले इस लड़ाई की पृष्ठभूमि देख लें। हाल के इतिहास की दृष्टि से, जमीनों के अधिग्रहण का मामला विवादग्रस्त और संदिग्ध तब से होता जा रहा था, जब जमीनें नंबर 1 के किसानों के हाथों से, सरकारी कानून के जरिए छीनकर, दो नंबरी किसानों के हवाले की जा रही थीं। इस प्रक्रिया में सिर्फ किसान नंबर 1 लुटता था और इस देसी किसान को लगभग सारे ही लूटते थे। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में मायावती और मुलायम सिंह के राज में कई 'यादव सिंह' पनप रहे थे। देश भर में कई उत्तर प्रदेश थे, और लगभग हर शाख पर कोई ना कोई बैठा हुआ था। एक और उदाहरण के तौर पर कांग्रेस के प्रथम परिवार के दामाद 'छोटे किसान' बनकर दिन दूनी-रात चौगुनी जमीनों पर कब्जा करते जा रहे थे। यही स्थिति राजस्थान और हरियाणा की थी, जहां सीएलयू राज-दामाद राज चल रहा था। बाकी कई राज्यों में यही स्थिति वाया एसईजेड महसूस की जा रही थी। जमीन की यह सारी लूट भूमि अधिग्रहण कानून 1894 की आड़ में हो रही थी। इतनी अंधाधुंध कमाई की इतनी जल्दबाजी थी कि कानून-नियम, कानून के रखवालों वगैरह की चिंता ही किसी को नहीं थी। लैंड-बैंक एक अहम पक्ष हो गया था और कई उद्योगपति सिर्फ सरकारों से सौदेबाजी करके जमीनें अपने नाम करवा लेते थे और इसी के बूते सफल उद्योगपति बन जाते थे।
किसानों की जमीनें हथियाकर खरबपति होने की इस फुर्ती ने किसानों को सतर्क कर दिया। उन्हें अपने ठगे जाने का अहसास हुआ। किसानों को होने वाला यह एहसास लूट प्रक्रिया की अंतर्निहित राजनीतिक चूक थी, जिससे जमीन का मामला गरमाने लगा था। यह स्थिति तत्कालीन यूपीए युवराज की भट्टा-पारसोल पिकनिक के पहले तक की थी। कांग्रेस ने उस मोड़ पर दोहरा खेल खेलने की कोशिश की। एक तरफ सीएलयू वाला दामाद और दूसरी तरफ भट्टा-पारसोल वाला युवराज। खैर, भट्टा-पारसोल से खेले जाने वाले खेल का भट्ठा बैठ गया।
ऐसी परिस्थिति में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने पूरे 66 साल तक दुरुपयोग करने के बाद भूमि अधिग्रहण कानून 1894 में संशोधन करके भूमि अधिग्रहण कानून 2013 पारित किया। वास्तव में कांग्रेस सरकार ने नए भूमि अधिग्रहण कानून के जरिए व्यावहारिक तौर पर भूमि अधिग्रहणों पर पूरी तरह रोक लगा दी थी।
इससे कांग्रेस के तीन उद्देश्य पूरे होते थे। एक यह कि इससे प्रकारांतर से तमाम सीएलयू राज (माने दामादगिरी) और 66 साल से चली आ रही लूटखसोट पर पूरी तरह पर्दा डल जाता था। दूसरा यह कि सरकार उस समय एक के बाद एक ऐसे काम, ऐसे कानून, ऐसी व्यवस्थाएं बनाती जा रही थी, जिससे देश का भला हो या न हो, कांग्रेस का भला हो या न हो, अगली (मोदी) सरकार का जीना जरूर दुश्वार हो जाए। इस काम में सत्ता के सारे अंग और सारी संस्थाएं शामिल थीं। इससे तीसरा और बेहद मूक उद्देश्य यह पूरा हो रहा था कि जो कंपनियां या व्यक्ति इस कानून के पहले बड़े भूमिपति बन चुके थे, जो काला-सफेद धन रियल स्टेट में लगाया जा चुका था, उन पक्षों को और उस धन को किसी नए प्रतियोगी से चुनौती न लेनी पड़े, और उनका जो लैंड-बैंक मंदी का शिकार हो रहा है, वह बेशकीमती वस्तु में बदल जाए। कांग्रेस के समय बनाए गए इस कानून में एक अहम प्रावधान था कि किसी निजी परियोजना के लिए सरकार जबरन भूमि अधिग्रहण कर सकती थी, लेकिन उसके लिए प्रभावित परिवारों में से 80 प्रतिशत की सहमति जरूरी थी, और सरकारी परियोजना के लिए 70 प्रतिशत की।
इसी कानून के सामाजिक प्रभाव-आकलन प्रावधान के तहत उन लोगों की भी सहमति जरूरी थी, जिनका रोजगार अधिग्रहीत की जाने वाली भूमि से प्रभावित होता था।
देखने-सुनने में बहुत अच्छी लगने वाली इन बातों की आड़ में, व्यवहार में इस कानून ने भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को अत्यंत जटिल और अव्यावहारिक बना दिया था। 80 प्रतिशत लोगों की सहमति अनिवार्य करने का ही अर्थ यह भी होता है कि कोई भी झोलाछाप एनजीओ सिर्फ 20.1 प्रतिशत प्रभावित लोगों का धरना-प्रदर्शन, हस्ताक्षर, याचिका वगैरह यह कह कर करवा दे कि इससे उन्हें ज्यादा पैसा मिलेगा-तो किसी भी परियोजना को पैदा होने के पहले ही खत्म किया जा सकता है। व्यावहारिक बात यह है कि अगर 70-80 प्रतिशत लोगों की सहमति अनिवार्य कर दी जाती है, तो कोई भी परियोजना शुरू ही नहीं की जा सकती है। कोई जमीन अधिग्रहीत ही नहीं की जा सकती है।
इतना ही नहीं, कानून में यह भी प्रावधान था कि अगर किसी सरकारी विभाग की ओर से कोई गलती होती है, तो उसके लिए इस विभाग के प्रमुख को जिम्मेदार माना जाएगा और उसके खिलाफ मुकदमा चलाया जाएगा। व्यवहार में इसका अर्थ यह भी होता है कि जिस भी सरकारी बाबू को अपने आपको मुकदमे में फंसने से बचाना हो, वह किसी फाइल को आगे ही न बढ़ने दे। न काम होगा, न गलती होगी।
इसी प्रकार सामाजिक प्रभाव-आकलन का प्रावधान वास्तव में यह सुनिश्चित करने का एक हथकंडा था कि किसी भी जमीन का कोई नया उपयोग न हो सके। इसमें लगने वाले अनिश्चित समय के कारण परियोजना की लागत इतनी बढ़ सकती थी कि परियोजना घाटे का सौदा नजर आने लगे। कल्पना कीजिए कि मेक इन इंडिया जैसी परियोजनाओं का, गांवों में सिंचाई के लिए नई परियोजनाओं का, सड़कों और अस्पतालों की परियोजनाओं का हश्र ऐसे में क्या होता? क्या इससे विनिर्माण के क्षेत्र में, कृषि के क्षेत्र में, शहरीकरण के क्षेत्र में देश को स्थायी तौर पर कमजोर रखने का देश विरोधी शक्तियों का उद्देश्य पूरा नहीं हो रहा था?
वास्तव में यूपीए को अपनी सरकार जाने और मोदी सरकार आने का इतना भरोसा था कि उसने 2013 के कानून में यह भी प्रावधान किया था कि इसके कठोर पक्ष, 13 सरकारी कानूनों के तहत अधिग्रहीत की जाने वाली जमीन पर लागू नहीं होंगे, लेकिन, सिर्फ एक साल के लिए, सिर्फ 1 जनवरी 2015 तक के लिए। आशय यह कि इसके बाद जब मोदी सरकार आएगी, तो उसे परमाणु ऊर्जा से लेकर रेलवे तक के लिए जमीन लेने के लिए इन्हीं असंभव धाराओं से होकर गुजरना होगा। अब अध्यादेश में एक ओर तो कानून को सुसंगत बना दिया गया है, दूसरी ओर इन सभी 13 सरकारी कानूनों को भी इसके दायरे में ला दिया गया है। माने अब सभी कोई नई दरों पर ही मुआवजा मिलेगा, नए नियमों के अनुरूप ही पुनर्वास और पुनर्स्थापना होगी, चाहे उस जमीन पर रेल लाइन बनाई जानी हो, चाहे खदानें खोदी जानी हों या परमाणु संयंत्र लगाया जाना हो।
लेकिन, इसे शाब्दिक तौर पर और नारेबाजी में किसान हितैषी कहना आसान था। जानकारों का कहना है कि जमीन के अधिग्रहण पर पूर्ण विराम लगाने से ज्यादा किसानों का नुक्सान किसी और चीज से नहीं हो सकता है। जैसे कि देश में हर अन्य व्यक्ति को तो अपना रोजगार चुनने की स्वतंत्रता है, लेकिन किसान को न चाहते हुए भी किसान ही बने रहना होगा। न किसान अपनी जमीन बेचकर शहर जा सकेगा, न शहर का उद्योग गांव आ सकेगा। नई नहरें, नए स्कूल, नई सड़कें, नए गोदाम न बनने देने का अर्थ है कि किसानों को खेती से होने वाला घाटा समय के साथ बढ़ता जाएगा।
जाहिर है, मोदी सरकार के पास अध्यादेश लाकर स्थिति का तुरंत और शल्य चिकित्सकीय समाधान करने के अलावा कोई चारा नहीं था। नए विधेयक में किए गए मुख्य संशोधन और पुराने कानून से उसकी भिन्नता इस प्रकार है-
नए विधेयक में 70-80 प्रतिशत लोगों की सहमति और सामाजिक प्रभाव-आकलन की अनिवार्यता को पांच श्रेणियों के अधिग्रहणों के लिए समाप्त कर दिया गया है। ये पांच श्रेणियां हैं-राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा उत्पादन (मेक इन इंडिया का एक सबसे अहम पहलू, भारत का सालाना रक्षा आयात खर्च ही एक लाख करोड़ रुपए से अधिक है), ग्रामीण आधारभूत ढांचा और ग्रामीण विद्युतिकरण, आधारभूत ढांचा और सामाजिक आधारभूत ढांचा, औद्योगिक कॉरीडोर और गरीबों के लिए आवास योजनाएं (इन सभी के लिए बजट में भी विशेष प्रावधान किया गया है)।
विपक्ष और मीडिया के एक वर्ग ने यह गलत धारणा प्रचारित की है कि नए विधेयक में 70-80 प्रतिशत लोगों की सहमति का पक्ष या सामाजिक प्रभाव-आकलन की अनिवार्यता को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया है। वास्तव में ऊपर बताई गई पांच श्रेणियों और उन पीपीपी परियोजनाओं को छोड़कर, जिनका स्वामित्व सरकार का होगा, यह अनिवार्यता समाप्त नहीं की गई है।
विधेयक के विरोध का एक मोटा पहलू इस समझ का है कि अगर आप उद्योग समर्थक होते हैं, तो आपको किसान विरोधी होना चाहिए और अगर आप किसान समर्थक होते हैं, तो आपको उद्योग विरोधी होना चाहिए। यह अलग बात है कि 2013 का कानून उद्योग विरोधी होने के साथ-साथ किसान विरोधी भी था। अब चूंकि नया विधेयक कुछ हलचल करने के पक्ष में है, इसलिए इसे आसानी से किसान विरोधी कहा जा रहा है।
इस विधेयक के विरोध के नाम पर विपक्ष के बड़े हिस्से में एकजुटता आई है, लेकिन इस विधेयक के सारे विरोध को एक साथ देखना गलत होगा। कांग्रेस नहीं, कांग्रेस का आलाकमान विरोध कर रहा है और बाकी कांग्रेसी अपना खुशामद धर्म निभा रहे हैं। केरल और हरियाणा की तत्कालीन कांग्रेस सरकारें सहमति जुटाने के प्रावधान का दायरा घटा कर 50 प्रतिशत करने की मांग कर चुकी थीं। असम और हिमाचल प्रदेश की कांग्रेस सरकारें कह चुकी थीं कि प्रभावित परिवारों की परिभाषा ज्यादा ही व्यापक है। फिर कांग्रेस में बचा कौन? आप समझते हैं।
उधर लालू प्रसाद और नीतिश कुमार की पार्टियां, जो अपने पुनर्विवाह के बाद आजकल अधिग्रहण विधेयक विरोधी पिकनिक साथ मना रही हैं, इस तथ्य की पूरी तरह अनदेखी कर देती हैं कि बिहार में पिछले कई वर्ष से, एक भी इंच भूमि का अधिग्रहण, किसी उद्योग के लिए नहीं किया गया है, न ही वहां कोई उद्योग लगा है। लेकिन राजद-जद (यू) को यह भारी किसान विरोधी मुद्दा लगता है। इसमें कोई शक नहीं कि विपक्ष के लिए भी यह राजनीतिक जमीन की लड़ाई है, लेकिन दूसरी ओर यही सवाल देश की सरजमीं सुधारने-संवारने का भी है। रास्ता मेल-मिलाप से आगे बढ़ेगा या टकराव से? 5 अप्रैल के पहले पहले देश के नेताओं को इसका फैसला कर लेना होगा। 

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