|
संजीव कुमार
संघ संस्थापक आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने 1925 में विजयादशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। समाज में उस समय व्याप्त घनघोर अंधकार को समाप्त करने के लिए उन्होंने पांच बालकों के साथ अपने घर में संघ नामक दीया जलाया जो समय के साथ राष्ट्र-दीप बनता चला गया। डॉ़ साहब ने राष्ट्र यज्ञ में अपनी शरीर को झोंक दिया था। लगातार संघ कार्य करते-करते शरीर क्षीण होता चला गया। पीठ का दर्द शुरू हुआ जो क्रमश: बढ़ता गया। डॉक्टरों ने बार-बार आराम करने को कहा, लेकिन कर्मयोगी डॉ़ हेडगेवार को आराम कहां? संघ के वरिष्ठ सहयोगियों के विशेष आग्रह पर डॉ़ हेडगेवार कई स्थानों पर विश्राम करने गये। वे नासिक में भी रहे। नागपुर के संघचालक बाबासाहब घटाटे के आग्रह पर पूना से लौटते हुए वे 8-10 दिन के लिए देवलाली (नासिक से लगभग नौ मील दूर) में भी ठहरे। नासिक और देवलाली की ठंडी हवा ने डॉक्टर हेडगेवार के तप्त मन और शरीर को थोड़ा आराम दिया। कुछ दिनों के पश्चात वे पुन: संघ कार्य में लग गए। लेकिन डॉक्टर जी का बुखार कम नहीं हो रहा था। उनकी पीठ के दर्द में आराम नहीं मिल रहा था। पीठ की सेंक से भी कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। नासिक से लौटने के बाद डॉक्टर हेडगेवार ने गुरु पूर्णिमा के दिन परम पूज्य श्री गुरुजी को संघ का सरकार्यवाह नियुक्त कर दिया। उनकी इच्छा थी कि युवा कंधों पर संघ का दायित्व सौंपा जाए। कुछ निश्चिंत होकर डॉ़ साहब ने प्रवास करना प्रारंभ किया। उधर श्री गुरुजी ने भी दुगुने वेग से संघ कार्य के लिए प्रवास करना प्रारंभ किया।
डॉ. हेडगेवार ख्याति चारों ओर फैल चुकी थी। लेकिन इधर उनका स्वास्थ्य बार-बार गिर रहा था। पर वे स्वास्थ्य की चिंता किए बगैर संघ कार्य में लगे थे। पीठ दर्द बढ़ता जा रहा था। स्वयंसेवकों के आग्रह को बार-बार 'देखा जाएगा' कहकर टाल देते थे। उधर 'महाराष्ट्र' के संपादक श्री गोपाल राव ओगले को पक्षाघात हो गया था। भारत रत्न डॉ़ राजेंद्र प्रसाद की सलाह पर उन्होंने लगभग महीने भर राजगीर में विश्राम कर गरम पानी के झरने में प्रात:-सायं स्नान किया। राजगीर के कुंड के जल के सेवन से उनके स्वास्थ्य में आशातीत लाभ हुआ। न सिर्फ उनकी पाचन क्रिया ठीक हुई बल्कि पेट के विकार में भी आराम मिला। यह बात 1940 की है। डॉक्टर साहब के परम मित्र गोपाल राव जी ने डॉ. हेडगेवार को राजगीर जाने की सलाह दी। काफी ऊहापोह के बाद डॉक्टर जी ने राजगीर जाना स्वीकार किया। बिहार में उन्होंने चार कार्यकर्ता संघ कार्य के विस्तार के लिए भेजे थे। बापूराव दिवाकर तथा नरहरपंत पारखी बिहार में स्थाई रूप से संघ कार्य कर रहे थे। बिहार में संघ प्रचार के लिए गए बापूराव जी एवं नरहरपंत पारखी जी से इस संदर्भ में पत्र व्यवहार हुआ।
अप्पाजी जोशी, इंदूरकर जी, तात्या तेलंग जी तथा बाबाजी कल्याणी के साथ डॉक्टर जी नागपुर से राजगीर के लिए रवाना हुए। बिहार में संघचालक का दायित्व निभा रहे श्री कृष्णवल्लभ प्रसाद नारायण सिंह उर्फ बबुआजी से इस संदर्भ में बातचीत हुई। बबुआजी के पौत्र श्री आनंद प्रकाश सिंह उपाख्य रौशन जी ने इस संदर्भ में पाञ्चजन्य को बताया, 'बाबा बताते थे, जब डॉक्टर जी गया आये तो भीषण ठंड पड़ रही थी। डॉ़ साहब बम्बई मेल से गया आये थे। यह गाड़ी रात को गया पहुंचती थी। डॉक्टर जी स्टेशन के समीप स्थित उनके घर पर पहुंचे। गया पिंडदान के उपयुक्त तीर्थ माना जाता रहा है। कथा है कि, भगवान श्रीराम ने भी अपने पिता राजा दशरथ का पिंडदान यहीं किया था। आश्विन कृष्ण पक्ष में पितृपक्ष के दौरान यहां बहुत बड़ा मेला लगता है। पूरी दुनिया के लोग यहां पिंडदान करने आते हैं। गया में बबुआजी का बहुत बड़ा घर है। इस घर में कई महान विभूतियों का आना हुआ है। उनमें डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार अग्रगण्य हैं।
उन दिनों के बारे में बबुआजी बताते थे कि डॉ़ साहब जब आए तब काफी ठंड पड़ रही थी। कर्क रेखा पर स्थित होने के कारण गया में अमूमन ज्यादा ठंड एवं ज्यादा गर्मी पड़ती है। डॉ़ साहब बहुत कम सामान लेकर चलते थे। रात को जब वे गया पहुंचे तो काफी ठिठुरन थी। बबुआजी सादर उन्हें अपने निवास पर ले आए। डॉ. हेडगेवार से उन्होंने कोट सिलवाने का आग्रह किया, जिसे काफी मान-मनौव्वल के बाद उन्होंने स्वीकार कर लिया। गया के ही असगर दर्जी के यहां डॉ. साहब का कोट सिलने को दिया गया। यह बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि डॉ. हेडगेवार की कोट पहने हुए जो तस्वीर प्रचलित है वह गया के ही दर्जी ने सिली थी। डॉ. साहब ने भी उस कोट को काफी दिन तक पहना था।
डॉ. हेडगेवार का शाखा जाने का रोज का नियम था। गया में उनके ही आग्रह पर रामबाड़ा की शाखा प्रारंभ हुई थी। डॉ. साहब गया प्रवास के क्रम में उस शाखा पर जाते थे। आज उस स्थान पर मकान बन गए हैं। तब वहां बहुत बड़ा मैदान हुआ करता था। गया के संघचालक एवं पंडा समाज के प्रमुख श्री देवनाथ मेहरवार अपने को धन्य मानते हैं कि उन्हें डॉ. साहब द्वारा प्रारंभ की गई शाखा पर जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वहीं डॉ. साहब स्वयंसेवकों से मिलते। बबुआजी गया में एक प्रतिबद्ध हिन्दुत्वनिष्ठ कार्यकर्ता के रूप में मशहूर थे। बबुआजी के जीवन पर डॉ. साहब का ऐसा प्रभाव हुआ कि वे ताउम्र सहज, सरल व विनम्रता की मूर्ति माने जाते रहे। डॉ. साहब ने बोधगया, विष्णुपद, गया गदाधर, फलगु आदि स्थलों के धार्मिक व सांस्कृतिक महत्व को समझा एवं उनके दर्शन किए। गया से डॉ. साहब पटना आए। यहां भी उन्होंने एक शाखा पर प्रार्थना की। यह शाखा विस्तारक बनकर आए आयुर्वेद के दो छात्रों ने शुरू की थी। पटना में डॉक्टर साहब तीन दिन ठहरे। इनमें से एक दिन संघ स्थान पर उन्हें 'मानवंदना' देने का कार्यक्रम भी हुआ, एक नई शाखा का उद्घाटन भी हुआ। 'मानवंदना' के दिन डॉ. साहब अचानक वर्षा में भीग गए, किंतु पटनावासी स्तब्ध थे कि घनघोर बारिश में भी डॉ. साहब का बौद्धिक अबाध रहा और स्वयंसेवक भी तन्मयता से उनका बौद्धिक सुनते रहे थे।
पटना प्रवास में ही डॉ. साहब ने राष्ट्रीय विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि वृत्ति के आधार पर राष्ट्रीयता का निर्धारण करना चाहिए। यदि वृत्ति भक्तिमय है तो व्यक्ति राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत होता है, यदि भोगवादी है तो अराष्ट्रीय। इस धरा को भारतमाता मानने वाले सच्चे देशभक्त हिन्दू के मुख से कभी यह नहीं निकल सकता कि 'हम बुलबुले हैं इसके, यह गुलिस्तां हमारा'। घर की टूटी-फूटी दीवार की ओर ध्यान देने का कर्त्तव्य तो घर के स्वामी का ही है। तभी तो संघ यह कहता है कि हिन्दुओं को संगठित होकर अपना कर्त्तव्य पूर्ण करना चाहिए।
पटना से डॉ. साहब राजगीर पहुंचे। पटना से राजगीर की दूरी 65 मील है। बबुआजी ने उनके लिए मोटर कार का प्रबंध किया था। रास्ते में डॉ. साहब राजगीर के वैभवशाली इतिहास की जानकारी लेते रहे। रास्ते में उन्होंने नालंदा और पावापुरी की विशद जानकारी भी प्राप्त की थी। राजगीर जरासंध से जुड़ा हुआ है। अजातशत्रु के समय यह अत्यंत वैभवपूर्ण था। बिम्बिसार के समय मगध साम्राज्य की राजधानी पटना लायी गयी थी। आज भी राजगीर के ध्वंसावशेष देखने को मिलते हैं। जरासंध का अखाड़ा, स्वर्ण भंडार, जरासंध की चहारदीवारी, उसका प्रक्षेपास्त्र तथा रथचक्र के निशान आज भी सुरक्षित हैं। राजगीर चारों ओर पहाडि़यों से घिरा है। जरासंध की राजधानी इस पर्वतीय क्षेत्र में ही स्थित थी। भगवान बुद्ध ने भी कुछ समय तक यहां तपस्या की थी।
डॉ. साहब के निवास हेतु रामपाल जैन का मकान किराये पर लिया गया था। घर में चार अच्छे कमरे तथा एक बड़ी बैठक थी। यहां आने के बाद वे प्रतिदिन प्रात: चार बजे अप्पा जी के साथ टमटम पर कुंड निकल जाते थे। यह स्थान कुंड से लगभग एक मील दूर था। डॉक्टर जी के लिए टमटम की यात्रा काफी कष्टकारी थी। पहले कुछ दिन तो उनको भीड़भाड़ के कारण स्नान करने में असुविधा हुई। लेकिन धीरे-धीरे सब लोग उन्हें पहचान गये और उनके आकर्षक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर लोगों ने उनके स्नान के लिए जगह बनानी शुरू कर दी। वे बहुत सुबह कुंड पहुंच जाते और पंद्रह मिनट तक पीठ पर पानी की तेज धार गिरने देते। पानी की धार से पीठ की मालिश हो जाती और खून का दौरा भी तेज हो जाता। वे दोपहर को भोजन के बाद विश्राम करते और उसके बाद चाय लेकर देर रात तक बातचीत या पत्र-लेखन आदि का क्रम चलता। डॉक्टर जी ने अजातशत्रु का किला भी देखा और पुराना अखाड़ा भी। डॉक्टर साहब अखाड़े के स्थान पर मुस्लिम पीर की कब्र देखकर मर्माहत भी हुए। उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि राजगीर की पवित्र धरती को मुसलमानों की असामाजिक हरकतों से बचाने का काम हिन्दू समाज ने नहीं बल्कि एक जापानी बौद्ध भिक्षु ने किया था। उनके लिए यह भीतर तक चोट करने वाली बात थी। अपनी बातचीत में वे बार-बार कहते कि हिन्दू समाज के सोते रहने के कारण ही ये आक्रमण होते रहे। इसे शीघ्र रोकना चाहिए। सायं काल झरने से स्नान करके लौटने पर वे दूध लेते थे। चिकित्सकों ने उन्हें हॉर्लिक्स पीने को कहा था, परंतु उन्होंने इनके विदेशी पदार्थ होने के कारण इनकी बजाय बकरी का दूध पीना प्रारंभ किया।
राजगीर के प्रवास में उनके पास जगह-जगह से बहुत पत्र आते थे। डाक बाबू की इच्छा हुई कि डॉक्टर साहब से मिले। उसके लिए यह कौतुहल का विषय था कि इस छोटे से कस्बे में किस व्यक्ति के पास इतने पत्र आते हैं। उन्होंने समय निकालकर डॉक्टर जी से भेंट की।
वसंत पंचमी के अवसर पर विद्यार्थियों को उन्होंने एक रुपया चंदा भी दिया था। कुंड पर पूजा-पाठ कराने वाले पंडों से भी डॉक्टर साहब का निकट संबंध हो गया था। राजगीर में पहली बार वे एक महीना रहे। अपने प्रवास के क्रम में उन्होंने यहां शाखा की विधिवत् स्थापना की। अपने निवास स्थान पर बिहार प्रांत के सभी कार्यकर्ताओं की बैठक की। वहीं से वे श्री बाबा साहेब घटाटे के पुत्रों के यज्ञोपवीत संस्कार के लिए नागपुर गए। वहां से वे वापस राजगीर आए। दूसरी बार के प्रवास में उनका स्वास्थ्य काफी सुधरा। उनके पैरों की सिकाई होती। डॉक्टर जी ने नियमित स्नान व पथ्य-परहेज का ध्यान रखा जिससे उनका स्वास्थ्य काफी निखर गया। दूसरे प्रवास के क्रम में वे राजगीर से 7 मील दूर नालंदा के अवशेष भी देखने गए। सहस्रावधि विद्यार्थियों का एक साथ अध्यापन करने वाले इस केंद्र के ध्वंसावशेष देखकर डॉक्टर साहब को काफी कष्ट हुआ। उन्हें इस बात से काफी पीड़ा हुई कि सैकड़ों वषार्ें से होते आ रहे इन आक्रमणों को दूर करने का सामर्थ्य हिन्दू समाज में क्यों नहीं जगा? 15 अप्रैल, 1940 को डॉक्टर साहब स्वस्थ होकर नागपुर लौटे थे। बबुआजी ने डॉक्टर जी की स्मृति को संजोकर रखने का कार्य किया और यही वजह है कि गया का उनका वह विशाल घर आज भी वैसा ही है जैसा डॉक्टर जी छोड़कर गए थे।
टिप्पणियाँ