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सेवा और परोपकार का अर्थ क्या है? नि:स्वार्थ समर्पण और सुश्रुषा की भावनात्मक अभिव्यक्ति या कुछ और? क्या परोपकार का भी मजहब होता है?? ज्यादातर लोग इसका जवाब ना में देंगे। ठीक भी है, लेकिन ठहरिए… कुछ लोग सेवा और परोपकार को मजहब का चोगा ओढ़ाने के 'मिशन' पर निकले हैं।
लेकिन खबरदार, अगर सच बोला! बोला तो तुम पर हल्ला बोला जाएगा।
यकीन ना हो तो 23 फरवरी की खबरें खंगालिए। भरतपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत के बयान (पूरा उद्बोधन पाञ्चजन्य की वेबसाइट पर पढ़ा/सुना जा सकता है) में मदर टेरेसा का नाम आने पर हायतौबा मचाने वाले मुंह, अगले दिन पोप फ्रांसिंस के ट्वीट पर सिले हुए थे।
पोप के अधिकृत ट्विटर खाते से आया संदेश इस बात की मुनादी कर रहा था कि 'परोपकार करते रहना ईसाईकरण का सबसे अच्छा तरीका है।' ईसाई मत की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे व्यक्ति की यह स्वीकारोक्ति 'डिजिटल' दुनिया में 56 लाख लोगों के सामने थी। श्री मोहनराव भागवत के बयान में खोट तलाशने वालों को अगर पोप की स्वीकृति में इसका जवाब नहीं मिला तो जिम्मेदारी किसकी है?
वैसे, पोप के ट्वीट पर चुप्पी मारने वालों के होंठ दो रोज पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ट्वीट पर भी सिले हुए थे। आठ माह से अफगानिस्तान में आतंकियों द्वारा बंदी बनाए ईसाई पादरी, फादर एलेक्सिस प्रेम कुमार की रिहाई पर प्रधानमंत्री का ट्वीट सरकार के गहन प्रयासों को सामने रखता था मगर उस पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई। उसकी तुलना में तो बिल्कुल ही नहीं जितनी कुछ दिन पहले चर्च में चंद रुपयों की चोरी पर भाजपानीत राजग सरकार को अल्पसंख्यक विरोधी ठहराने के लिए हुई थी। बार-बार ऐसे मौके आए जब सच सामने था, लेकिन विमर्श का बवंडर उठाने वालों ने इससे कन्नी काट ली। अपनी सुविधाभर का सच तलाशने और उसे अपने तरीके से पेश करने को क्या कहा जाए?
चर्च में चोरी को चर्च पर हमला कौन कहता है? ईसाइयत की फुसलाहट को सेवा और परोपकार की तरह कौन पेश करता है? कौन है जो मीडिया को मदर टेरेसा का झूठ सामने रखने से रोकता है? कौन है जो चाहता है कि सिक्के का सिर्फ एक ही पहलू दुनिया के सामने आए। क्या मीडिया के मन में सवाल नहीं घुमड़ने चाहिए? मदर टेरेसा के बहाने शुरू हुई बहस मीडिया की उस भूमिका पर भी सवाल उठाती है जहां उसने खुद को ऐसी सहज सुविधाजनक स्थिति में ढाल लिया जहां असहज करने वाले प्रश्न उठाने की मनाही है।
एक भारतीय के तौर पर एलेक्सिस प्रेम कुमार की आतंकी चंगुल से रिहाई अच्छी बात है। लेकिन वे करते क्या हैं, क्या यह सवाल नहीं बनता? मदर टेरेसा के 'चमत्कार' ने टीबी की मरीज मोनिका बेसरा का 'कैंसर' कैसे ठीक किया, क्या इस ढकोसले का खुलासा नहीं बनता? पैसे से परोपकार की दुकान चलाने और भोले लोगों को बहकाने वाले कौन हैं? ओडिशा के कन्धमाल जिले में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या करने वाले ईसाई हमलावरों को उकसाने वाले मिशनरियों के कारनामे दुनिया के सामने लाना क्या पत्रकार का काम नहीं बनता? कोई लाख परोपकार के लबादे ओढ़ाए लेकिन, मदर टेरेसा ने टाइम मैगजीन को दिए साक्षात्कार में खुद स्वीकारा था कि उनका लक्ष्य सबको जीसस तक पहुंचाना है और वे प्यार से ईसाईकरण (इवेंजलाइज) करती हैं।
उनके मिशनरीज ऑॅफ चैरिटी का यही सच है।
एलेक्सिस प्रेम कुमार आईकार्ड भले जेसुइट रिफ्यूजी सर्विस के अफगानिस्तान निदेशक का रखते हों, लेकिन चोगा ईसाई पादरी का पहनते हैं? जाने की कागजी कार्रवाई एनजीओ कार्यकर्ता के तौर पर पूरी होती है, लेकिन अज्ञात बंदूकधारियों द्वारा वे पकड़े जाते हैं और रिहा होते हैं पादरी के तौर पर।
यही उनकी पहचान, उनका सच है।
बहरहाल, दुनियाभर में गरीबों की सेवा जारी है। नर से नारायण की सोच देने वाले भारत में भी इंसान को ईश्वर की भेड़ बताने वालेे लोग भोली भेड़ों को फुसलाने और अपना रेवड़ बढ़ाने में लगे हैं। ऐसे में पोप फ्रांसिस के आठ शब्दों की ट्वीट 'मिशनरी परोपकार' का खुलासा करने वाला दस्तावेज है। मदर टेरेसा और प्रेम ऐलेक्सिस जैसों को प्रेरित करने वाली सोच का यही सच है। परोपकार के चोगे में जेब्ा भले गहरी हो, लेकिन यह सेवा के सूत की बजाय ईसाइयत के स्वार्थ से बुना है।
सच सामने है, इसे खंगालना और सही सवाल उठाना हम सब की जिम्मेदारी है।
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