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उमंग़..मस्ती़..अठखेली़..उल्लास़…रंग में रंगारंगी का मीठा अहसास़..। ठंडाई की चटक चाह़…अबीर की महक़…गीत, रसिया की ताऩ..भीज जाएं मन-प्राऩ..अकुलाए मन में मानो लौट आएं मलंग प्रान।
पूस, माघ के हाड़ कंपा देने वाले जाड़ों के उतार पर, इधर वासंती हवा बही नहीं कि फागुन की खुनक महसूस होने लगती है। सरसों से पटे खेतों की पीली आभा मन को भर-भर आनंदित कर ही रही होती है कि फागुन की दस्तक सुन ब्रज भूमि में होली की टोलियां अपनी साज-सज्जा में जुट जाती हैं, पटका और फेंटा के झोल हटाने लगती हैं।
84 कोस में फैली ब्रजभूमि में वैसे तो हर त्योहार का अपना ही आनंद होता है; पर होली तो होली है, ब्रज-रज में पगी हंसी-ठिठोली है। एक अलग ही माहौल हो जाता है गांव-देहातों, गली-चौबारों और मंदिर-दरबारों का। मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, नंदगांव, बरसाना, गोवर्धन, बल्देव, कामा, कोसी, डीग, अडीग, कामवन, महावऩ…सब तरफ उत्सव का अनोखा ही आनंद; ठाकुर के गोप-ग्वालों और राधा रानी की सखियों बीच होली की मधुर-मोहिनी का अपना ही अंदाज; हर गांव की अपनी रीत, अपने सवैए-गीत। कृष्ण, बलदाऊ के पाले नंदगांव के हुरियारे और राधा की सखियों सी बरसाने की नवल नारि; रंगीली गली में होती दे-मार दे-माऱ.़.़लठामार। ठिठोली, मनुहार का ये नजारा अपरंपार। रंगीली छेड़छाड़ पर डंडों की धमक-मार। उस पर भर-भर बाल्टी टेसू का गीला वासंती रंग; अबीर और गुलाल के उड़ते गुबार, दिन में मानो बदरिया की ला दें बहार। ऐसे में नर-नारि का भेद मिट जाता है; बड़े-बूढ़े सब ठसक छोड़ मस्ती में डूब छोटों की छेड़छाड़ को ठहाकों में उड़ा देते हैं। सब माफ। सब साफ। शिकवे-गिले; साल भर के झगड़े-टंटे, मन-मुटाव, ऊंच-नीच, सब धुल जाते हैं जब होली की मस्ती में मन-मयूर पंख फैलाए बेलाग, बेलाज, सबको अपने अंक में समेटे नेह की डोर से खिंचा चला आता है।
होली तो आखिर होली है। ठाकुर की सबसे प्रिय ऋतु का सबसे प्रिय त्योहार। सो, ब्रज में उसके अनूठे आनंद का वर्णन शब्दों में समेट पाना़.़.ना़.़.संभव ही नहीं है। मथुरा, वृन्दावन में फागुन की एकादशी की दोपहर बाद से होली की ऐसी धमाचौकड़ी शुरू होती है़…जो छह दिन बाद ही जाकर थमती है। ठाकुर की सिंगार आरती से रात शयन आरती तक़…चारों ओर बस गुलाल़.़..अबीऱ…टेसू का गुनगुना पीला रंग। ब्रजवासी तो ब्रजवासी़.़.ठाकुर के दर्शन करने जाने वाले परदेसी भी घंटों उस आनंद का पान करते हैं, उड़ते गुलाल की बदली के बीच रह-रहकर कान्हा के मुखारविन्द की झलक लेते हैं। एक सुन्दर सवैए में इस भाव का हूबहू चित्रण किया गया है-
चलौ अइयो रे श्याम मेरी पलकन पै, चलौ अइयो रे।
…पुरुषोत्तम प्रभु की छवि निरखैं, अबीर गुलाल की झलकन पै़.़..चलो अइयो रे़.।।
दरस के प्यासे दर्शनार्थी ठोस तांबे की लंबी पारंपरिक पिचकारी की तीर सी भेदती धार को बार-बार अपने पर उड़ेलने की मनुहार करते हैं। इस सबके बीच कोई ब्रजवासी भर मुट्ठी गुलाल चेहरे पर उछाल दे तो मानो सोने पर सुहागा। रह-रहकर मंदिर का विशाल आंगन-'बंसी वाले की जय', 'राधा रानी की जय', 'होली के आनंद की जय' के जयकारों से गूंज उठता है। गलियों में दूर तक रसिकों की टोलियां कमर में फेंटा बांधे, फेंटे में गुलाल भरे 'नंद के लाला की जय' गंुजाते हुए, कान्हा की रसिक कलाओं का गुणगान करती, अबीर-गुलाल के गुबार उड़ाती चलती हैं। इधर मंदिर का आंगन तो उधर चौबारों, दलानों में होली के लोकगीतों की गूंज मन मोह लेती है-
आज बिरज में होरी रे रसिया
होरी रे रसिया बरजोरी रे रसिया…।
तो नंदगांव से राधा संग होली खेलने बरसाने पहंुचे कान्हा के सखा गाते हैं-
फाग खेलन बरसाने आए हैं नटवर नंदकिसोर.
टेढ़ी टांग वाले की चतुर चितवन पर रीझ-रीझ जाने वाली गोपियों की मनुहार को सखियां इन शब्दों में व्यक्त करती हैं-
मत मारो दृगन की चोट, होरी में मेरे लग जाएगी़.
ऐसे मनोहारी युगल की वंदना में डूबे ब्रजवासी घंटांे मंदिर के आंगन में खड़े बांकी छवि निहारते हुए आनंदित होते रहते हैं। आंगन में गीले टेसू के रंग और इत्र से महकते सूखे गुलाल के मेल से ऐसी कीच हो जाती है कि दर्शनार्थियों के पैरों में मानो किसी ने महावर रचा दी हो। होली में ब्रज की ऐसी छवि निरख कर ही भक्त कवि नागरीदास ने इसे बैकुण्ठ से भी सुन्दर दृश्य बताया था। सच, होली में ब्रज की छटा निराली होती है। आनंद की झर झर बरसात हो जहां, होली में रंगे ऐसे ब्रज के दर्शन बड़भागी ही कर पाते हैं। वे, जिन पर कृष्ण की अनन्य कृपा हो, जो सब तर्क-कुतर्क से परे, भाव भरे नैनों से सिर्फ बांके की बांकी झांकी निहारें। गुलाल से लाल और अबीर से झलमल। – आलोक गोस्वामी
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