एक लाख करोड़ डॉलर फूंक देने के पश्चातअफगानिस्तान से लौटा अमरीका
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एक लाख करोड़ डॉलर फूंक देने के पश्चातअफगानिस्तान से लौटा अमरीका

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Feb 21, 2015, 12:00 am IST
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दिंनाक: 21 Feb 2015 13:13:21

दुनिया की अव्वल नम्बर की शक्ति अमरीका 13 वर्ष के पश्चात अपनी हार स्वीकार कर अफगानिस्तान से वापस घर लौट आया है। इसके दौरान उसे कितनी जन और धन की हानि हुई अभी इसका आंकड़ा तो आना शेष है लेकिन अफगानिस्तान ने एक बार फिर से सिद्ध कर दिया है कि उसकी धरती पर कोई विदेशी ताकत आकर राज नहीं कर सकती है। उसे घेर कर पराजित करने में दूसरे महायुद्ध के विजेता चर्चिल भी असफल रहे थे और पिछली 28 दिसम्बर, 2014 को ओबामा के कार्यकाल में अमरीकी हार का एक और अध्याय जुड़ गया। पिछली शताब्दियों में न जाने कितने ताकतवर हमलावरों ने अफगानिस्तान को अपना गुलाम बनाने का प्रयास किया लेकिन वे सभी असफल रहे। यही दृश्य अफगानिस्तान की धरती पर एक बार फिर उपस्थित हुआ है। इसका मुख्य कारण है अफगानिस्तान की भू राजनीति। अफगानिस्तान से राजशाही को समाप्त हुए चार दशक बीत चुके हैं। इसी प्रकार रूस को भी नामुराद लौटे हुए 25 वर्ष की अवधि हो गई है। 9/11 की घटना को घटे और वहां से तालिबान को खदेड़ने में 13 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। उसके पश्चात अमरीका ने पंजा गाड़ा लेकिन स्थिति में कोई अंतर नहीं आया। अन्य ताकतें जिस प्रकार से असफल होकर लौट गईं वही दिन बेचारे अमरीका को भी देखने पड़े हैं। अमरीका ने आकाश पाताल एक कर दिए लेकिन वह तालिबान को पराजित नहीं कर सका है। वास्तविकता तो यह है कि तालिबान अधिक एकजुट हुए हैं। विश्व स्तर की सेना नाटो के नेतृत्व में तालिबान से लड़ने के लिए यहां एकत्रित हुई लेकिन जब दुनिया ने 28 दिसम्बर, 2014 का दृश्य देखा तो उन्हें विश्वास कर लेना पड़ा कि अफगानिस्तान आज भी अजेय है। पिछले दिनों वहां चुनाव भी हुए तब लग रहा था कि सम्भवत: लोकतंत्र का दीया प्रज्ज्वलित हो जाएगा, लेकिन चुनाव में किसी को बहुमत नहीं मिला। अशरफ गनी राष्ट्रपति बना दिए गए। अब फिर ये समाचार आ रहे हैं कि चुनाव में शामिल पार्टियां बारी-बारी से काबुल की सत्ता संभालेंगी। राजनीतिक पार्टियों की रस्साकशी तालिबान के लिए वरदान है। जब वहां कोई मजबूत सरकार होगी ही नहीं तो तालिबान ही बड़ी शक्ति के रूप में अपनी धींगामस्ती करते रहेंगे। अमरीका को इस स्थिति का भान था इसलिए उसने कह दिया था कि वह काबुल में केवल 2014 तक बना रहेगा। इसलिए बिना किसी को बतलाए अमरीका 28 दिसम्बर को अफगानिस्तान से निकल गया। 'एक महासभा की यह लाचारी भरी विदाई' अमरीका के इतिहास को अपमानित करने वाला अध्याय है। पाठक भूले नहीं होंगे कि 2001 में अमरीका ने तालिबान का मुकाबला करने के लिए पहल की थी। जिसके निमित्त उसने समय-समय पर अपनी ताकत में वृद्धि की जिसका आंकड़ा एक लाख 3 हजार तक पहुंच गया। अपनी हार को छिपाने के लिए उसने अपनी सेना को नाटो के नाम पर जिस तरह से इस लड़ाई के लिए भेजा था वह क्रमश: कम करना चला गया। अब केवल उसके वहां पर 12,500 सैनिक ही बचे होंगे। भूतकाल से आज तक ये सैनिक अफगानिस्तान में अमरीका की पूंजी से बने कुछ प्रतिष्ठानों की रक्षा का ही काम करते रहे। लेकिन अब यह सवाल उठ रहा है कि क्या अमरीकी अफगानिस्तान में अपने वैश्विक हितों की इस प्रकार होती अवहेलना को सहन कर सकेगा? आज का अमरीका और बीते कल का ब्रिटेन अफगानिस्तान में अब तक कोई बड़ी लड़ाई नहीं जीत सके हैं। लेकिन दिलचम्प बात यह है कि इतना सब होने पर भी अमरीका हार मानने को तैयार नहीं है। क्योंकि रूस का जिस प्रकार से वर्चस्व रहा है उसे देखते हुए अमरीका की यह मजबूरी है कि वह येन-केन प्रकारेण अफगानिस्तान में बना रहे। इस विदाई समारोह के अवसर पर अमरीकी अखबारों ने लिखा कि 17 अक्तूबर 2001 को ऑपरेशन एंडियोरेरिंग फ्रीडम तत्कालीन राष्ट्रपति बुश ने प्रारम्भ किया था। उनका उद्देश्य अफगानिस्तान से तालिबान समाप्त करना था लेकिन वे इस मामले में बुरी तरह से असफल रहे। विश्व राजनीति में अफगानिस्तान की स्थिति उस मूल्यवान घोड़े जैसी है जिस पर अंकुश लगाकर ही सफलता प्राप्त की जा सकती है। लेकिन एक बार फिर से यह सिद्ध हो गया कि अफगानिस्तान की विजय पश्चिमी राष्ट्रों का मात्र सपना ही बनकर रहा है और भविष्य में भी रहेगा। इसका लाभ रूस को फिर से मिलेगा। जो रूस पिछले दिनों कमजोर पड़ा था अब उसके प्रधानमंत्री पुतिन में हौसला लौटा है। विश्व की मंदी और तेल की राजनीति तथा सीरिया में बगदादी का बुंलद होता हुआ झंडा पश्चिम के लिए चुनौती है। इसलिए ओबामा की 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में उपस्थिति विश्व राजनीति में एक नया मोड़ पैदा करने वाली होगी। भारत यदि रूस और अमरीका के बीच की कड़ी बनता है तो उसके फलदायी परिणाम हो सकते हैं। नहीं तो मुस्लिम आतंकवाद की आंधियां और तेज होंगी जिसमें विश्व के झुलस जाने की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता है। अफगानिस्तान से अमरीका की हकाल पट्टी भारत-अमरीका के सम्बंधों में नया मोड़ पैदा कर सकती है। विश्व में आज तक अफगानिस्तान के किसी से मधुर सम्बंध रहे हैं तो वह केवल भारत है। इसलिए छोटा देश हो या महासत्ता, सभी को इस समय भारत की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में भारत की विदेश नीति अधिक प्रासंगिक और सुनहरे भविष्य की भविष्यवाणी कर रही है। इस हार से अमरीका ने शिक्षा लेकर इस अभियान का तकनीकी नाम ओवरसीज कंटीजेंसी ऑपरेशन कर दिया है।
पाकिस्तान और आतंकवाद एक दूजे के लिए बने हैं पिछले दिनों जब पेशावर में 140 बच्चों के मारे जाने का समाचार सारी दुनिया में फैला तब पाकिस्तान के एक कवि ने इस यथार्थ को स्वीकार किया कि पाकिस्तान और आतंकवाद एक-दूसरे के लिए ही बने हैं। यदि पाकिस्तान को परिभाषित करना है तो आतंकवाद को परिभाषित करना अनिवार्य हो जाता है और आतंकवाद की पहचान क्या है? यह बतलाना हो तो फिर पाकिस्तान से बढ़कर कोई अच्छा उदाहरण नहीं हो सकता। जिन दिनों पेशावर में 140 बच्चों के कत्ल कर दिए जाने की घटना सारी दुनिया में चर्चा का विषय बनी हुई थी उस समय दैनिक नवाए वक्त ने अपनी एक रपट में बलताया था कि पाकिस्तान में लगातार आतंकवादी गतिविधियों के कारण अब तक 701 अरब रुपए का नुकसान हो चुका है। पत्र लिखता है कि 2003-04 में प्रत्यक्ष रूप से 8664.4 अरब रुपए यानी 102.5 डॉलर का नुकसान हुआ। पत्र का कहना था कि यदि अफगानिस्तान में आतंकवाद समाप्त नहीं हुआ तो पाक सरकार बहुत शीघ्र दिवालिया हो जाएगी। सन 2013-14 के प्रथम नौ मास के दौरान 701 अरब रुपए यानी 6.9 डॉलर का नुकसान हुआ है। पाकिस्तान सरकार भी इन आंकड़ों का समर्थन करती है। सरकार ने इससे सहमति व्यक्त की है कि पिछले 3 वर्षों में प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से देश को 8664.4 अरब रुपए की हानि हुई है। फिर भी इन सूत्रों का यह कहना था कि पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष वह नुकसान कम हुआ है। लेकिन अब जबकि पेशावर वाली घटना घट चुकी है तब तो यह कहना अधिक न्यायसंगत होगा कि अब तो पिछले सभी कीर्तिमान पीछे रह जाएंगे। पत्र का कहना है कि पेशावर वाली घटना को छोड़ दिया जाए तो 2010-11 में घटने वाली घटनाओं का आंकड़ा आसमान पर था, जिसका अनुमान 23 अरब डॉलर लगाया गया था। उपरोक्त आंकड़ों का ब्यौरा पाकिस्तान के वित्त, विदेश एवं आयात-निर्यात के मंत्रालय ने प्रस्तुत किया है। अपने प्रेस वक्तव्य में सरकारी प्रवक्ता का कहना है कि इसलिए बाहर के कोई भी व्यापारी अथवा उद्योगपति अपना कारोबार पाकिस्तान में नहीं करना चाहते हैं। विदेश के पूंजीपति पाकिस्तान को अपने लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं। इसलिए यहां कोई भी आकर अपनी पूंजी नहीं लगाना चाहता है। सरकार उनको हर प्रकार के आश्वासन भी देती है, लेकिन समान्यत: विदेशी लोग इसे कपोल कल्पित आश्वासन ही मानते हैं। उनका कहना है कि किसी भी उत्पादन पर खर्च बढ़ता है और आय घटती जाती है। पाकिस्तान के विभिन्न राज्यों की आर्थिक समितियां इस कड़वे सच को स्वीकार करती हैं। पाकिस्तान में हर चीज की लागत बढ़ती है और मुनाफा कम होता चला जाता है। इसलिए स्वदेशी और विदेशी दोनों प्रकार के पूंजी निवेशक इसे पूंजी का कब्रिस्तान मानते हैं। विदेशी बाजार में पाकिस्तान की साख और माल की गुणवत्ता अच्छी नहीं मानी जाती है। पाकिस्तान में आतंकवाद के कारण जो नुकसान होता है उसमें पचास प्रतिशत विदेशी कम्पनियों का नुकसान होता है। इसलिए पाकिस्तान में कोई उद्योगपति नहीं आना चाहता है। दमिश्क और सऊदी के कुछ पूंजीपति तो पिछले वर्ष ही अपना व्यवसाय समाप्त कर पूर्वी एशिया के देशों में जाकर बस गए हैं। उनकी पसंद के शहर कुआलालंपुर और जकार्ता हैं। पिछले पांच वषोंर् का ब्यौरा बतलाता है कि स्वयं पाकिस्तान के अनेक उद्योगपति अपना देश छोड़कर कारोबार के लिए विदेशों में चले गए हैं। उन देशों में फिलीपींस और मलेशिया प्रमुख हैं। यहां के उद्योगपतियों का मानना है कि पाकिस्तान में बढ़ते आतंकवाद से अफगानिस्तान के कारोबारी लोग भी भयभीत हैं। पाकिस्तान को इस्लामी देश मानकर अरब एवं अन्य मुस्लिम राष्ट्र यहां अपना पैसा लगाया करते थे, लेकिन अब उनका विश्वास समाप्त हो गया है। अब वे पाकिस्तान से इस्लाम को जोड़कर नहीं देखते हैं। पाकिस्तान के कारोबारी क्षेत्र के विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान यदि अपने यहां विदेशी पूंजी को आमंत्रित करना चाहता है तो उसे अफगानिस्तान में चल रहे आतंकवाद को समाप्त करना होगा। क्योंकि इस्लाम के नाम पर आतंक को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए जाने की वृत्ति से अन्य समाज और पंथ के लोग बिदकते हैं और स्वयं को भी सुरक्षित महसूस नहीं करते।
नवाए वक्त अपनी रपट में लिखता है कि दक्षिण एशिया के देशों में भारत की स्थिति सुदृढ़ हुई है जबकि पाकिस्तान सबसे निचली पायदान पर है। पाकिस्तान सरकार अब इस स्थिति से निपटने के लिए कुछ कदम उठा रही है। लेकिन पाक सरकार की नीयत पर लोगों को भरोसा नहीं है। अपनी छवि को सुधारने के लिए पिछले दिनों पाकिस्तान में आतंकवादी मुकदमो के लिए फौजी अदालतों को स्वीकृति प्रदान की है। पाक सरकार का मानना है कि आतंकवाद से यदि हम निपटने में सफल होते हैं तो पाकिस्तान में विदेशी पूंजी का प्रवाह जारी रह सकता है।  -मुजफ्फर हुसैन

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