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30 जनवरी 2015 के अपने संस्करण में पाकिस्तान के दैनिक जंग अखबार ने एक चौंका देने वाला विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उक्त मामला पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू के संबंध में है। देश के विभाजन से पाकिस्तानियों को क्या मिला, यह वहां की जनता के बीच भारत की ही तरह एक विवादित मुद्दा है। पाकिस्तान की मुट्ठी भर जनता इस पर अफसोस अवश्य ही व्यक्त करती है। उर्दू भारतीय भाषा है इसलिए उस पर विवाद करना उचित नहीं लगता है, लेकिन जिस तरह से तत्कालीन पाकिस्तानी नेताओं ने अपने देश को इस्लाम से जोड़ दिया, उसी श्रृंखला में उर्दू भी जाने अनजाने में पाकिस्तान से जुड़ गई। इस्लाम के नाम पर उर्दू को भले ही पाकिस्तान में अपनी राष्ट्रभाषा बना लिया गया हो, लेकिन राजनीति को छोड़कर उर्दू आज भी पाकिस्तान में सामान्य जन की भाषा नहीं बन सकी है। इसलिए उसके साथ जिस प्रकार का सौतेला व्यवहार होता है वह उर्दू के प्रवाह को अवरुद्ध करने में हमेशा सफल रहता है। जिस मजहब के नाम पर पाकिस्तान बना और जिस उर्दू को उसने मजहबी लबादा ओढ़ाकर अपनी साम्प्रदायिकता को परवान चढ़ाया, उसी वृत्ति ने आज उर्दू को पाकिस्तान में दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर कर दिया है। उर्दू पाकिस्तान की प्रशासनिक भाषा कभी नहीं बन सकी इसलिए पाकिस्तान के हर क्षेत्र में उससे सौतेलेपन का व्यवहार होता है। केवल इतना ही नहीं, पढ़ा-लिखा और अपनी माटी से कटा तबका उर्दू को अपनी प्रगति में हमेशा ही अड़चन मानता रहा है। इसलिए आज वहां उर्दू किस स्थिति में है, उस पर दैनिक जंग ने अपने इस आलेख में खुलकर चर्चा की है।
आसिफ नागी इस संबंध में लिखते हैं- रक्षा संबंधित क्षेत्र में एक बड़ी दुकान पर हम कुछ खरीदारी कर रहे थे, वहां एक चार-पांच साल का बालक अपनी माता के साथ आया। मां दुकान वाले से तो उर्दू में बातचीत कर रही थी पर अपने बच्चे से अंग्रेजी में। इस बीच उसका पिता, जो पाकिस्तानी ही था, वहां आ गया। उसने अपने बेटे से तो अंग्रेजी में बात की लेकिन अपनी पत्नी से कहा कि बच्चे को ऐसी जगह मत लाया करो जहां लोग पंजाबी और उर्दू में बात करते हों। इससे बच्चे की जुबान खराब हो जाएगी। यह सुनकर लेखक को आघात पहुंचा और वह सोचने लगा कि जिनके मां बाप ने पाकिस्तान बनाने संबंधी आन्दोलन में भाग लिया हो वे आज अपने बच्चों को राष्ट्रभाषा बोलने पर आपत्ति उठा रहे हैं! इससे बढ़कर किसी देश की राष्ट्रभाषा का अपमान और क्या हो सकता है? लेखक कहता है कि यह हमारे देश का कड़वा यथार्थ है कि पंजाबी और उर्दू बोलने वाले को जाहिल और अनपढ़ समझा जाता है। लेकिन ठीक इसके विपरीत सिंध में सिंधी, बलूचिस्तान में बलूची बोलने पर लोग गर्व करते हैं।
लेखक ने प्रश्न उठाया है कि क्या जब पाकिस्तान बनाने संबंधी आन्दोलन चल रहा था उस समय अंग्रेजी में बोलकर आम जनता को संबोधित किया जाता था? जिन्ना भले ही उर्दू में नहीं बोलते थे लेकिन वे कहा करते थे कि 'उर्दू की सेवा को मैं देश की सेवा मानता हूं।' लेकिन आज तो पाकिस्तान की संस्कृति ही बदल गई है। प्रत्येक व्यक्ति अंग्रेजी से प्रभावित है। वह जो भी बोलना चाहता है, अंग्रेजी में ही बोलता है। लेखक ने सवाल किया है कि क्या चीन, जापान, कोरिया, फ्रांस और अरब देशों ने अपने यहां की जनता को अंग्रेजी में ही शिक्षण दिया था? क्या वहां उनकी पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी ही है? जब विदेश के बड़े नेता पाकिस्तान आते हैं तो क्या वे अपनी भाषा में नहीं बोलते? इतना अवश्य है कि उनके साथ उनके अनुवादक भी होते हैं जो उनकी भाषा में अनुवाद कर उन्हें प्रश्नों का उत्तर देने के लिए सुविधा प्रदान कर देते हैं। संपूर्ण दुनिया में जहां भी मेकअप और इलेक्ट्रॉनिक का सामान बनता है वे अन्य देशों में अरबी और अंग्रेजी अथवा जिन देशों में उनका माल निर्यात किया जा रहा है, क्या वे वहां की भाषा उनकी वस्तुओं की 'पैकिंग' पर दर्ज नहीं करते? पाकिस्तान में सैलानियों के रूप में अथवा अपने कारोबार के संबंध में जब वे बातचीत करते हैं तो क्या अपनी भाषा में नहीं बोलते? उनकी विदेशी भाषा तो हम जान लेने का प्रयास करते हैं लेकिन हमारी अपनी भाषा में बोल कर हम उनसे वार्तालाप नहीं करते, इससे बढ़कर शर्म की बात और क्या हो सकती है? वे तो हम पर अपनी भाषा थोप सकते हैं लेकिन हम अपनी भाषा का एक शब्द उनके सामने नहीं बोल सकते, इससे बढ़कर हमारे देश की भाषा का अपमान और क्या हो सकता है?
दैनिक जंग ने यूनेस्को की एक रपट का हवाला देते हुए कहा है कि उर्दू इस समय दुनिया की दूसरी बड़ी भाषा है। लेखक का कहना है कि हम उर्दू को अपने देश से निकालने पर तुले हुए हैं जबकि शिक्षा प्रणाली पर हावी दो बहनें, जिनकी मात्र 500 शालाएं हैं, उनमें उर्दू बोलने और लिखने पर प्रतिबंध है। आश्चर्य की बात तो यह है कि पाकिस्तान में एक ऐसा भी स्कूल है जहां पर विद्यार्थियों को उर्दू में बोलने पर दंडित किया जाता है। पाकिस्तान को पिछले 67 वर्षों से जो अच्छे इंजीनियर, डॉक्टर, कृषिविद्, प्रशासनिक अधिकारी और बड़े शिक्षा शास्त्री उपलब्ध हुए हैं, उनमें लगभग 95 प्रतिशत उर्दू माध्यम से पढ़-लिखकर अपने देश को सेवाएं दे रहे हैं। पाकिस्तान के सभी पुरस्कार प्राप्त कर्मियों से पूछो, वे किस भाषा में पढ़कर प्रगति की सीढ़ी चढ़े हैं? कितने आश्चर्य की बात है कि पिछले दिनों जापान के सभी विश्वविद्यालयों में उर्दू का शताब्दी समारोह मनाया गया, लेकिन एक पाकिस्तान ही है जिसे उर्दू बोलने, पढ़ने और शिक्षा का माध्यम बनाने पर शर्म आती है। लेखक लिखता है बेचारे बाबाए उर्दू अब्दुल हक न जाने जन्नत में क्या कह रहे होंगे? जापान के टोकियो विश्वविद्यालय में उर्दू माध्यम से न जाने कितने विद्यार्थी पी.एचडी. किए हुए हैं, जो देश विदेश में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। टोकियो और ओसाका में तो उर्दू की उच्च शिक्षा दी ही जाती है, जापान के अनेक विद्यार्थी पाकिस्तान आकर उर्दू में पी.एचडी. के साथ भाषा संबंधी दुभाषियों का कार्य करते हैं। पंजाब विश्वविद्यालय में सबसे अधिक जापान के विद्यार्थी उर्दू की उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। जापानी लोग 1663 से उर्दू सीख रहे हैं। वियतनाम से नागासाकी की ओर आने वाले पानी के जहाज में उसका एक कैप्टन जिस तरह से फरार्टेदार उर्दू बोलता है उसे सुनकर पाकिस्तान के लोग आश्चर्य में पड़ जाते हैं। लंदन में बहुत प्रारंभ से ही उर्दू की उच्च व्यवस्था है। वहां से पी.एचडी. करने वालों की एक लंबी सूची है। पाकिस्तान में 16 अगस्त 1988 तक सारे देश में उर्दू की पढ़ाई की व्यवस्था का लक्ष्य था, लेकिन 2014 तक भी यह काम पूरा नहीं हो सका है। पाकिस्तान के संविधान की धारा 251 के तहत उर्दू वहां की राष्ट्रभाषा है। 1973 तक उर्दू को पाकिस्तान में राष्ट्रभाषा के रूप में विकसित हो जाना था लेकिन अब तक तो पाकिस्तान के अनेक राज्यों में ही उर्दू को राष्ट्रभाषा का स्थान नहीं मिला है। वहां के संविधान में तो यह भी लिखा गया है कि सरकार अंग्रेजी को इसके स्थान पर उपयोग नहीं करेगी। लेकिन पाकिस्तान में बैठे गोरे अंग्रेज अब भी उर्दू के नाम पर बिदकते हैं। उनके शब्दों में उर्दू जाहिलों, गंवारों और पिछड़ों की भाषा है।
पाकिस्तान में उर्दू बोलने वाला निचले वर्ग का माना जाता है। भारत की तरह वहां भी उर्दू 'भैयाओं की भाषा' कहलाती है। लेखक का यह मानना है कि पाकिस्तान की तुलना में बंगलादेश में उर्दू की स्थिति अच्छी है। बंगाली में सब कुछ होने पर भी बंगलादेश में पाकिस्तान और भारत की तरह उर्दू की फिल्मों का बोलबाला है। लेकिन जहां तक सरकारी कामकाज का मामला है वहां केवल और केवल अंग्रेजी का साम्राज्य है। भारतीय उपखंड में जब अंग्रेजों को अपना साम्राज्य स्थापित करना था तो उन्होंने उर्दू का ही सहारा लिया था। फोर्ट विलियम कॉलेज और 1918 में उन्होंने उस्मानिया विश्वविद्यालय उर्दू माध्यम में प्रारंभ करके अपने साम्राज्य की नींव मजबूत की। जब उर्दू के लिए कुछ लोगों ने सवाल उठाया तो तत्कालीन ब्रिटिश अधिकारियों ने अपने तर्क में कहा कि जापान के जब ओसाका विश्वविद्यालय में 1935 से चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा उर्दू में दी जा सकती है तो फिर भारत में क्येां नहीं? भारत में यहीं पर प्रथम मेडिकल काउंसिल बनी थी जिसका माध्यम उर्दू था। 1807 में कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में अंग्रेजी के साथ उर्दू में भी चिकित्सा शिक्षा दी जाती थी। 1859 में ऑक्सफोर्ड और 1860 में कैम्ब्रिज में उर्दू भाषा पढ़ाने की व्यवस्था की गई थी। पंजाब के एक इंजीनियरिंग कॉलेज में उर्दू में शिक्षा दी जाती थी। अब लाख टके का सवाल यह है कि जब 100 साल पहले इन महाविद्यालयों में उर्दू माध्यम से शिक्षा दी जा सकती थी तो अब उसी भाषा में क्यानहीं दी जा सकती? आज तो देश के पास निष्णात अनुवादक हैं, फिर उर्दू का भाग्य गलियों में क्यों भटक रहा है? -मुजफ्फर हुसैन
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