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मोरेश्वर जोशी
भारत के जिन राज्यों में मतांतरण से राष्ट्रांतरण के प्रयास किए जा रहे हैं उनमें तमिलनाडु, ओडिशा, नागालैंड, मिजोरम, मेघालय प्रमुखता से आते हैं। ऐसा नहीं कि मतांतरण की समस्या केवल इन्हीं राज्यों तक सीमित है। देश का तकरीबन हर राज्य इसके निशाने पर है। लेकिन ऊपर बताए राज्यों में यह समस्या गंभीर है, इसलिए उनमें इसका सूत्रबद्घ अध्ययन किया जा सकता है।
किसी प्रदेश में सबसे पहले वहां की आर्थिक स्थिति, अन्य सामाजिक समस्याएं एवं राजकीय स्थिति का ध्यान में रखकर मतांतरण के प्रयास किए जाते हैं। पांच सौ साल पहले, गोवा में मतांतरण के लिए भयंकर नरसंहार किया गया था। मतांतरण के लिए भय पैदा करने के लिए लोगों के शरीर काट डाले गये थे। पुर्तगाली सेना की मदद से नरसंहार हुए, बर्बरता हुई और अत्यधिक प्रताड़ना के बल पर हजारों की संख्या में मतांतरण के मामले हुए। इस प्रक्रिया को ही 'इंक्विजीशन' कहते हैं। उत्पीड़न में प्रयुक्त यंत्र और उन यंत्रों के प्रकार दिखाने वाले चित्र आज उपलब्ध हैं। दुनिया के 125 देशों में लंबे समय तक यूरोपीय देशों की पूरी आंशिक सत्ता कायम रही थी। उन सभी गुलाम रहे देशों में मतांतरण 'इंक्विजीशन' की प्रक्रिया से किए गए। उन देशों में आज भी यूरोेपीय गोरों और अश्वेतों के मेल से उत्पन्न प्रजा है। उन सबके इतिहास भले ही उन यूरोपीय देशों ने बेबुनियाद बातों से रंगे हों, लेकिन गोवा के इतिहास से उनका इतिहास अलग नहीं है। पिछले 500 साल में दुनियाभर में इंक्विजीशन के सैकड़ों मामले हुए हैं और उनमें से बहुतांश उन देशों की सत्ता को अस्थिर करने के लिए ही हुए हैं। उसका वास्तविक परिणाम उन देशों पर थोपी गई गुलामी ही है। लेकिन उसका मकसद सिर्फ मतांतरण तक सीमित नहीं था। कुछ स्थानों पर वहां की स्थितियों के अनुसार मतांतरण और फिर कुछ वर्ष बाद राष्ट्रंातरण के भी प्रयोग किए गए। अनेक देशों में ये प्रयोग आज भी जारी हैं। राष्ट्रभक्तों को आक्रामकों की इस चाल का उन्हीं की भाषा में सशक्त उत्तर देने को तैयार होना चाहिए।
गत अंक में हमने तमिलनाडु का जो उदाहरण देखा उसमें मतांतरण से राष्ट्रांतरण की प्रक्रिया ही दिखती है। 'ब्रेकिंग इंडिया' पुस्तक ने इस विषय पर जो रोशनी डाली है वह तमिलनाडु के साथ ही भारत के हर राज्य में चल रहीं ऐसी कार्रवाइयों को बेपर्दा करती है। तमिलनाडु में प्रक्रिया शायद पूरी नहीं हुई है, लेकिन यह निरंतर जारी है। इसके लिए सन् 2001 में विश्व स्तर के कुछ लोगों को आमंत्रित करके आयोजित की गई परिषद का विषय था-द्रविड़ रिलीजन में जातिगत ऊंच-नीच मिटानेे का सामर्थ्य है। इसमें उन्हें केवल इतना जताना था कि द्रविड़ रिलीजन हिंदू धर्म से अलग है। उसके अगले वर्ष डर्बन में संयुक्त राष्ट्र संगठन द्वारा विविध देशों में नस्लीय अत्याचार विषय पर अंतरराष्ट्रीय परिषद हुई जिसमें विषय था, 'भारत ही विश्व में नस्लवाद का जनक है'। सन् 2004 में एक प्रकाशन में दावा किया गया था कि 'भारत द्रविड़ ईसाई देश है और ईसाइयों ने ही संस्कृत की रचना की है'। ये सब आयोजन एक ही संस्था द्वारा किए गए थे। सन् 2005 में न्यूयार्क में सेमिनार में कहा गया कि द्रविडि़यन क्रिश्चियेनिटी की स्थापना सेंट थॉमस ने की थी। अगले वर्ष प्रस्ताव पारित किया गया कि 'द्रविडि़यन क्रिश्चियेनिटी एक स्वतंत्र देश की भूमिका निभाती है, वह देश संप्रभु हो, दुनिया भर में विद्रोह के लिए आंदोलन शुरू हों'। इसके अनुसार दुनिया में पचास से अधिक सक्रिय संस्थाएं स्थापित की गईं। यह जताने के लिए कि 'स्वतंत्र देश का निर्माण करने के लिए हम किसी भी स्तर तक जा सकते हैं', एलटीटीई के रूप में प्रत्यक्ष आक्रमण की रचना की गई। इसके प्रति दुनिया के कई देशों का समर्थन पाने की कोशिश की गई। इस प्रक्रिया में लगभग एक लाख लोगों का नरसंहार हुआ। स्पष्ट था कि वह अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति और उनके सलाहकारों के समर्थन से हुआ था। सन् 2006 में पोप के भाषणों में भी इसका जिक्र होने लगा। यह फैलाया जाने लगा कि 'द्रविड़ समाज ने धीरे धीरे भारत में प्रवेश किया। वह कुछ हजार साल पहले यूरोप में नोहा के शापित पुत्र हाम के अश्वेत वंशजों यानी अफ्रीका के अश्वेतों से आया, जिनके वंशज हिंदी महासागर में लेमुरिया नामक अस्तित्वहीन भूभाग से आए थे'।
फिर 2008 में पहला अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित कर 'तमिलों का रिलीजन' विषय पर पूरी दुनिया में आंदोलन करवाने की भूमिका रखी गई। ये सारे विवरण एक बड़े देश के छोटे से राज्य में विद्रोही आंदोलन जैसे लग सकते हैं, लेकिन ये वास्तव में 'मतांतरण से राष्ट्रांतरण' की प्रक्रिया ही दर्शाते हैं। नागालैंड, मिजोरम, मेघालय, ओडिशा जैसे राज्यों में यही किसी भिन्न प्रकार से हुआ हो सकता है लेकिन सबमें क्रम और तत्व एक ही है। भारत के प्रत्येक राज्य में एक यही प्रक्रिया किसी न किसी तरह चलाई जा रही है। ऐसा नहीं है कि यह केवल भारत के राज्यों में है, दुनिया में गुलाम रहे हर देश में यही स्थिति है। वास्तव में भारतीय युवाओं को उन 125 देशों का अध्ययन करके यूरोपीय लोगों द्वारा मतांतरण से राष्ट्रांतरण जैसे आक्रमण का शास्त्र खोजकर उन देशों में घर वापसी अथवा वहां के स्वभाव के अनुरूप अन्य कुछ मार्ग खोज निकालना चाहिए।
घर वापसी शब्द सुनते ही कुछ लोगों को मध्ययुग याद आने लगता है। लेकिन दुनिया के 50-60 देशों में तो आज घर वापसी भी संभव नहीं है, क्योंकि वहां इंक्विजीशन के माध्यम से सौ प्रतिशत मतांतरण करके राष्ट्रंातरण किया जा चुका है। आज हो सकता है वहां यूरोपीय देशों की गुलामी न हो लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि वे पूर्णत: स्वतंत्र हैं। कई देशों में आज भी यूरोपीय सत्ताधारियों की अगली पीढ़ी वहां की राजनीति में है। दक्षिण अफ्रीका जैसे देश में तो पच्चीस वर्र्ष पहले तक सत्ता में अश्वेतों की भागीदारी ही नहीं थी।
जिन देशों में आज घर वापसी का विचार भी नहीं किया जा सकता, ऐसे देशों की संख्या काफी बड़ी है, लेकिन वहां की समस्याएं कम नहीं हुई हैं। दक्षिण अफ्रीका के आर्चबिशप डेसमंड टूटू ने ईसाई पांथिक नेता होते हुए भी इस विषय में जो संघर्ष किया है, वह ध्यान देने योग्य है। वे कहते हैं, 'सदियों पूर्व जब ईसाई मिशनरी आए थे तब उनकें हाथ में बाइबिल थी। हम अफ्रीका की विशाल भूमि पर शांति से रह रहे थे। मिशनरियों ने हमारे हाथों में बाइबिल दे दी है। उन्होंने हमें बाइबिल थमाते हुए आंखें बंद रखने के लिए कहा। इस महाद्वीप के करोड़ों लोगों ने विश्वास के साथ आंखें बंद कीं, लेकिन जब आंखें खोलीं तो पाया कि हमारे हाथ में केवल बाइबिल थी, जबकि यहां की हर चीज उनके हाथ में चली गई थी'।
आर्चबिशप टूटू का यह कथन केवल टूटू का नहीं बल्कि प्रत्येक अफ्रीकी नागरिक का है। वहां की नगर पालिका का चुनाव हो या देश की संसद का, यूरोपीय वर्चस्व के विरोध में हर जगह इन वाक्यों का प्रयोग किया जाता है। इन देशों की समस्याएं भारत से भी बड़ी हैं। वहां लोगों को यही सुनना पड़ता है कि यूरोपीय लोगों की गुलामी करने के लिए ही उनका जन्म हुआ है। यही कारण है कि इन देशों में गुलामी की प्रथा की शुरुआत हुई। वहां जंगल में रहने वाले लोगों को जानवरों की तरह पकड़कर यूरोप-अमरीका के बाजारों में बेचने के लिए रस्सों से बांधकर ले जाना, उन्हें जहाज से ले जाते समय विरोध करने वाले को जहाज से नीचे धकेल देना, यह कहानी कुछ हजार या कुछ लाख तक ही सीमित नहीं है, इसको झेलने वालों की संख्या करोड़ों में है। यह प्रक्रिया वहां सदियों तक जारी थी।
घर वापसी की चर्चा आज केवल धर्म के संदर्भ में सुनाई दे रही है, लेकिन बाइबिल का प्रसार वहां गुलामी थोपने का साधन ही तो था। उन यूरोपीय लोगों का उद्देश्य असीमित लूट का था। ऐसा नहीं है कि वह लूट केवल 500 साल तक ही चली, बल्कि वह अब तक जारी है। भारत में आज 'घर वापसी' शब्द कम से कम सुनाई तो देता है, अफ्रीका में तो जिन्होंने यह शब्द बोला उन पर पुन: नरसंहार का शस्त्र उठाया गया। पिछले 500 वर्ष में ऐसे कितने मामले हुए, इस बारे में इतिहास में थोड़ी-बहुत ही जानकारी है। लेकिन सचाई यही है कि उसका पूरा इतिहास अभी तक नहीं लिखा गया। वे नरसंहार कितने भयंकर रहे होंगे, इसका सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। ऐसे नरसंहार अफ्रीका में आज भी हो रहे हैं। बीस साल पहले रवांडा नामक छोटे देश में दस लाख लोगों को मारा गया था। आज भले ही ईसाई मिशनरी यह कहें कि रवांडा में वह नरसंहार टूट्सी और हूतू समुदायों के आपसी विवाद का नतीजा था, लेकिन आज उस नरसंहार के असली आरोपियों पर कई पुस्तकें उपलब्ध हैं। इंटरनेट पर भी पर्याप्त जानकारी उपलब्ध है। 'ब्रेकिंग इंडिया' पुस्तक द्वारा इस विषय पर डाली गई रोशनी पूरे अफ्रीकी देशों के लिए मार्गदर्शक साबित होगी।
तमिल, द्रविड़,अनार्य जैसे शब्दों का प्रयोग कर मिशनरियों ने भारतीयों को डर्बन से जेनेवा तक और न्यूयार्क से कोपेनहेगेन तक भटकाए रखा है। उसी तरह अफ्रीकी लोगों को भी यहां से वहां भटकाए रखा है। भारत के अनेक अध्ययनकर्ता जिस तरह उनकी समस्या की ओर नजर रखे हुए हैं, उसी तरह वे भी हमारे 'घर वापसी' के प्रयासों की ओर नजर रखे हुए हैं। भारत में उसे अच्छा प्रतिसाद मिले तो अगली सदी घर वापसी की सदी साबित होने की संभावना है।
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