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तसलीमा नसरीन की पंथनिरपेक्षता विश्वमान्य है। भारत की वर्तमान केन्द्र सरकार ने उनको निवासी (रेजिडेंट) वीजा देकर सिद्ध कर दिया है कि भा.ज.पा. की राजनीति पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत पर अमल करती है। इस तथ्य की सचाई को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि पंथनिरपेक्षता की अवधारणा क्या है?और तसलीमा नसरीन के व्यक्तित्व में वह खास चीज क्या है?
पंथनिरपेक्षता की अवधारणा
पंथनिरपेक्षता व्यक्ति का गुण भी हो सकता है तथा राज्य का भी। व्यक्ति की पंथनिरपेक्षता से तात्पर्य है कि विश्व के अनेक पंथों में से किसी को भी उसके मूलवादी रूप में शब्दत: सही मानकर उसका अंध रूढि़वादी एवम् कट्टरतावादी अनुयायी न होना। उसकी उन मान्यताओं से अपने को स्वतंत्र रखना जो तर्क शुद्घ नहीं हैं या जो विज्ञान द्वारा असत्य सिद्ध हो गई हैं या जो सामाजिक जीवन में अमानवीय मानी जाने लगीं हैं। राज्य की पंथनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य किसी पंथ को अपना पंथ नहीं बनाता, वह किसी भी पंथ का पोषक नहीं, किसी भी पंथ का विरोधी भी नहीं। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सोच और समझ के अनुसार अपना पंथ चुनने का अधिकार देता है। किसी पंथ विशेष के अतिरिक्त अन्य पंथ मानने वालों पर कर नहीं लगाता। राज्य पंथ के आधार पर किसी के विरुद्ध भेदभाव नही करता।
भारत में पंथनिरपेक्षता
भारत का इतिहास बताता है कि यहां पर हिंदुओं के राज में राज्य पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत का पालन करता था, राज्य किसी भी व्यक्ति को मतांतरण के लिए बाध्य नही करता था। अपने पंथ के पालन के लिए किसी से कोई कर नहीं वसूला जाता था। किसी भी पंथ की समालोचना करना दंडनीय अपराध नहीं था। परंतु विदेशी आक्रामक मुसलमानों के राज में राज्य की पंथनिरपेक्षता समाप्त कर दी गई। इस्लाम को राज्य का पंथ बना दिया गया। यहां के मूल निवासियों पर भी अपने पंथ का पालन करने पर जजिया लगा दिया गया। इस्लाम कबूल करने के लिए उन पर अत्याचार ढाए गए। इसका कारण यह है कि इस्लाम अन्य पंथों को सहन नहीं करने का पैगाम देता है। हिंदू और मुस्लिम राजनीतिक दर्शन में यह अन्तर ही कारण है कि हिंदुस्थान के विभाजन पर निर्मित भारत तो पंथनिरपेक्ष राज्य बना, क्योंकि यहां की बहुसंख्यक जनता हिंदू है, लेकिन पाकिस्तान इस्लामिक राज्य बना, क्योंकि वह मुस्लिम बहुसंख्यक देश है। पाकिस्तान के विघटन से अस्तित्व में आया बंगलादेश भी मुस्लिम बहुसंख्यक होने के कारण इस्लामिक राज्य ही बना।
मुस्लिम शासन के पश्चात जब अंग्रेजों का राज हुआ तब शुरू में तो उन्होंने भी मतांतरण पर जोर दिया। इसके लिए अत्याचार भी किये, छल और 'सेवा' का भी सहारा लिया। यहां यह तथ्य अत्यधिक गम्भीरता से ध्यान देने योग्य है कि उस समय यूरोप में एक ही पंथ, ईसाई पंथ ही था। इससे स्पष्ट होता है कि राज्य की पंथनिरपेक्षता केवल बहुपंथी समाज की ही आवश्यकता नहीं है, बल्कि उन राज्यों और समाजों में भी पंथनिरपेक्षता आवश्यक है जहां सभी लोग केवल एक ही पंथ के मानने वाले हैं।
स्वतंत्रता मिलने पर देश का विभाजन हो गया। एक भूभाग मुसलमानों को मिला और एक भूभाग हिंदुओं को। मुसलमानों ने तो अपने भूभाग को इस्लामिक राज्य बनाया, लेकिन हिंदुओं ने अपने भूभाग (सही या गलत) हिंदू राष्ट्र नही बल्कि पंथनिरपेक्ष राज्य बनाया। एक संशोधन द्वारा वर्ष 1976 में पंथनिरपेक्ष शब्द को संविधान की उद्देशिका में भी लिख दिया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल में यह एक राजनैतिक दिखावा (स्टंट) मात्र था। इससे संविधान में पूर्व के प्रविधानों में राज्य की पंथनिरपेक्षता में कोई समृद्धि नही हुई।
भारतीय संविधान में पंथनिरपेक्षता के अनेक स्थूल और सूक्ष्म प्रावधान हैं। यहां पर विषय के लिए केवल इन बिन्दुओं का उल्लेख करना पर्याप्त है। किसी भी पंथ को राज्य का पंथ घोषित नहीं किया गया है। राज्य की सेवाओं में केवल पंथ के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। सभी व्यक्तियों को अपने पंथ का पालन करने की स्वतंत्रता दी गई है। अपने पंथ का पालन करने के लिए किसी पर कोई कर नहीं लगाया जा सकता। राज्य पोषित विद्यालयों में किसी पंथ विशेष की शिक्षा नहीं दी जा सकती। लेकिन अनुच्छेद 25 में यह स्पष्ट तौर पर उल्लिखित है कि शांति व्यवस्था, जन स्वास्थ्य, सदाचार, मूल अधिकारों के संरक्षण, समाज सुधार, समाज कल्याण, आर्थिक, राजनैतिक एवं लौकिक कार्यकलापों के विषयों में राज्य सभी पंथों से स्वतंत्र नीति अपना सकता है।
मुसलमान बने वोट बैंक
भारतीय संविधान के इस प्रविधान ने भारत के सभी पंथों के मानने वालों को एक अच्छा अवसर दिया है कि वे अपने-अपने मजहब की ओर 'फंडामेंटलिस्ट' यानी कट्टरपंथी दृष्टिकोण को त्याग कर उसे विज्ञानवाद एव मानवतावाद के अनुकूल बनाकर जीवन को प्रगतिशील बनाने का प्रयास करें। मुसलमानों से आशा की जाती थी कि वे इस अवसर का लाभ उठाकर इस्लाम को आधुनिक स्वरूप देने में संसार में एक महत्वपूर्ण एवम् अग्रणी भूमिका का निर्वाह करते।
परन्तु ऐसा नही हुआ। सुमति विहीन कुछ नेताओं ने येन केन प्रकारेण वोट पाने के लिए पंथनिरपेक्षता का अर्थ ही बिगाड़ दिया। (उन्होंने यह प्रचारित किया कि पंथनिरपेक्षता का अर्थ है कि मुसलमानों को अपने मजहब को उसके पुरातन रूप में पालन करने, मजहबी आधार पर संगठित रहने और बहुसंख्यक हिंदुओं से अपने को बचाने के लिए एक ऐसी पार्टी को एकमुश्त वोट देना चाहिए जो उनके हित की रक्षा और वृद्धि करेगी। फल यह हुआ कि भारत में पंथनिरपेक्षता मुस्लिम तुष्टीकरण और हिन्दू-विरोध के अर्थ में प्रयुक्त होने लग गयी है। यह इंदिरा गांधी का ही कारनामा कहा जाना चाहिए कि पंथ-निरपेक्षता के इस अनर्थ को ही अर्थ की मान्यता प्राप्त हो गई। मुसलमान इसके बहकावे में पलने लग गए। आगे चल कर तथाकथित समाजवादी मुलायम सिंह यादव एवं लालू प्रसाद यादव, साम्यवादी दलों, तृणमूल नेत्री ममता बनर्जी आदि ने भी इस अनर्थ में ही मुस्लिम-वोटों का लाभ उठाने की नीति अपना ली। वास्तव में मुस्लिम समाज के संदर्भ में पंथनिरपेक्षता का तात्पर्य तो यह है कि मजहब के नाम पर मुस्लिम-समाज के रीति-रिवाजों और कानूनों में आधुनिक मानवीय मान्यताओं के अनुसार जो त्रुटियां हैं (जैसे बुर्का-प्रथा, बहुपत्नी-अधिकार, तुरत-फुरत तलाक, उत्तराधिकार में पुत्री को पुत्र से आधा अंश, परिवार-नियोजन का विरोध, बच्चों को पोलियो की दवा का विरोध, लड़कियों की शिक्षा का विरोध इत्यादि) उन्हें दूर करना। अपने सीने पर सेकुलर होने का बिल्ला लगा कर मुसलमानों के वोट मांगने वाली इन पार्टियों में कोई भी पार्टी मुस्लिम जनता का जीवन सुधारने की बात नहीं करती। उनकी इस राजनीति ने पंथनिरपेक्षता को गलत मायने दिए हैं।सत्ता के लोभ में वे स्वयं भ्रष्ट हो गए थे, इसलिए उन्होंने पंथनिरपेक्षता की उत्तम विचारधारा को भी भ्रष्ट कर दिया। उनकी इस अनीति या कहिए दुर्नीति में कट्टरपंथी मुस्लिम मजहबी और राजनीतिक नेताओं ने भी उनको सहयोग दिया। यदि वे इन स्वार्थवादी नेताओं से कह देते कि 'मजहब का नाम लिए बिना आप देश की सारी आम जनता के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, पढ़ाई, दवाई, बेरोजगारी, देश में मूलभूत सुविधाओं (पानी, बिजली, सड़क आदि) का निर्माण आदि किसी अच्छी नीति के आधार पर वोट मांगिए, मुसलमानों के हित की सारी आवश्यकताएं उससे पूरी हो जाएंगी, हिन्दुओं से डराकर हमें अपना वोट बैंक न बनाइए, ़हिन्दुओं से हमको कोई खतरा नहीं क्योंकि वे स्वभाव से आक्रामक नहीं हैं, आपकी यह बांटो और राज करो नीति कुर्सी-नीति है'़, तब हमारी राजनीति वास्तव में पंथनिरपेक्ष हो जाती।
तसलीमा का व्यक्तित्व
तसलीमा नसरीन के व्यक्तित्व की बात करें तो वे मूलत: बंगलादेश की लेखिका हैं। वे मानवतावादी, युक्तिवादी, प्रगतिशील कवयित्री हैं। मुस्लिम समाज के अंदर शोषित स्त्रियों के पक्ष में वे उन सभी नियमों के विरुद्ध लिखती हैं, जो स्त्री को भोग की सामग्री समझते हैं। वे पुरुष के बहुपत्नी के अधिकार तथा उत्तराधिकार में पुरुष को स्त्री से अधिक अधिकार के विरुद्ध हैं, स्त्री की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक स्वतंत्रता की पक्षधर हैं। उनके बेबाक लेखन के लिए वर्ष 1992 में उनको कोलकाता की आनन्द बाजार पत्रिका ने आनन्द पुरस्कार से विभूषित किया था।
स्पष्ट है कि तसलीमा मजहबी कट्टरता के विरुद्ध हैं। वे मानती हैं कि मनुष्यों में झूठा भेदभाव खड़ा किया गया है,उन्हें वेदना होती है कि इसी झूठ के कारण हिदुस्थान का विभाजन हो गया। वर्ष 1992 में अयोध्या में बाबरी ढांचे के ढाए जाने के पश्चात तीनों देशों भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में सांप्रदायिक दंगे हुए थे। तब उन्होंने बंगलादेश में हुए दंगों पर 'लज्जा' शीर्षक एक उपन्यास लिखा। इस उपन्यास में उन्होंने हिन्दुओं पर मुसलमानों द्वारा किए गए अमानुषिक अत्याचारों का निष्पक्ष वर्णन किया। इससे इमामों और कट्टरपंथी मुसलमानों के हृदय में आग लग गई कि मुसलमान होते हुए भी इस महिला ने मुसलमानों की बर्बरता को जगजाहिर कर दिया। लज्जा पर सरकारी प्रतिबंध और तसलीमा पर मौत के फतवे से कई देशों में उनकी सुरक्षा को लेकर चिंता जताई जाने लगी। बंगलादेश के साम्यवादी तसलीमा को पंथनिरपेक्ष मानते हैं। इससे प्रोत्साहित होकर उन्होंने पश्चिमी बंगाल (भारत) की साम्यवादी सरकार से कोलकाता में सुरक्षित निवास के लिए निवेदन किया, लेकिन उन्हें इनकार कर दिया़ गया। सपा और बसपा़ आदि पार्टियों के सहयोग से कांग्रेस नेतृत्व वाली केन्द्रीय सरकार ने उन्हें चार महीने नजरबंद करके रखा। मुसलमानों की पैरोकारी में लगी तृणमूल कांग्रेस ने भी उन्हें अनदेखा कर दिया।
भारत में केंद्र में भाजपानीत सरकार स्थापित होने पर तसलीमा को शीघ्र निवासी वीजा दे दिया गया। साफ है कि वर्तमान केन्द्र सरकार पंथनिरपेक्ष है। -डॉ. रमेशचन्द्र नागपाल
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