शार्ली एब्दो - गंभीरता से सोचने का वक्त है
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शार्ली एब्दो – गंभीरता से सोचने का वक्त है

by
Jan 23, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 23 Jan 2015 14:16:38

– डॉ.मुनीश कुमार रायजादा
फ्रांसीसी पत्रिका शार्ली एब्दो पर हुए आतंकी हमले पर सलमान रुश्दी ने कहा 'मजहब से उपजे भय को मजहब के प्रति सम्मान बताकर बात को रफा दफा किया जा रहा है।' धर्म पर भी अन्य विचारों के समान ही उचित आलोचना, व्यंग्य, और हां उस पर भयमुक्त अनादर करने का हक हमें मिलना चाहिए। जहां एक ओर पेरिस में शार्ली एब्दो पर आतंकी हमला घटित होरहा था, वहीं 4000 मील (6500 किलोमीटर) दूर सऊदी अरब के जेद्दाह में एक युवक रैफ बदवई को 9 जनवरी शुक्रवार के दिन के नमाज के बाद चौराहे पर 50 कोड़े लगाए जा रहे थे और वहां खड़ी भीड़ 'अल्लाह हो अकबर ' के नारे लगा रही थी। उसका दोष सिर्फ इतना था कि उसने एक ऑनलाइन ब्लॉग बनाया था, ताकि लोकतंत्र और स्वतंत्रता पर चर्चा की जा सके। पिछली मई को रैफ को 10 साल की जेल की सजा दे दी गई और साथ ही उसे 1000 कोड़े मारने का हुक्म दिया गया, उस पर 10 लाख रियाल (2.6 लाख अमरीकी डॉलर) का जुर्माना भी लगाया गया। उसका जुर्म बताया गया कि उसने इस्लाम का अपमान किया है। सुनकर वितृष्णा हो रही है! तो अपनी ही इस दुनिया में जनसंहार की एक और बानगी देखिए। जनवरी के पहले हफ्ते में नाइजीरिया इस्लामी आतंकियों के एक नृशंस हमले में 2000 लोगों के मारे जाने की खबर है। आतंकियों ने उत्तरी नाइजीरिया के एक गांव में अंधाधुंध गोलियां बरसा कर लाशों के ढेर लगा दिए।
ये तमाम उदाहरण बताते हैं कि इस्लामी चरमपंथियों ने आधुनिक दुनिया की सभ्यता के साथ एक जंग छेड़ रखी है। पूरी मानवता इस सांस्कृतिक टकराव को महसूस कर रही है। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि अगर आप उनसे सहमत नहीं हैं तो फिर हिंसक कार्रवाई के लिए तैयार रहिए। उनके यहां तो बस एक ही कानून है-या तो उनकी बात मानिये, नहीं तो मौत की राह पर जाइये! शार्ली एब्दो पर हमले ने एक बार फिर जिहाद के मुद्दे को गरमा दिया है भले ही, यह 9/11 या मुंबई पर हुए आतंकी हमले जितना व्यापक नहीं है, परन्तु इसने पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित किया है। इस बारे में मीडिया में जो पक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है, आइये पहले उस पर निगाह डालते हैं। कनाडा ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन के एक निदेशक डेविड स्टूडर ने एक अंतरिम दिशा निर्देश जारी करते हुए कहा 'कोई भी मोहम्मद पैगम्बर का कार्टून ना दिखाएं। शार्ली एब्दो के इससे संबंधित लेख और शैली पर कोई एतराज नहीं है, पर हमें इस के कार्टून से बचना चाहिए। क्योंकि यह मुस्लिम समुदाय को उत्तेजित कर सकता है।' इस्लाम के नाम पर लोग मारे जा रहे हैं, गले काटे जा रहे हैं, नृशंस हत्याएं की जा रही हैं, महिलाओं से बलात्कार किया जा रहा है, अल्पसंख्यकों (इराक में यजीदियों) को फांसी पर लटकाया जा रहा है लेकिन शार्ली एब्दो पर हमले की घटना के बावजूद न्यूयॉर्क टाइम्स के संपादकीय बोर्ड ने कहा कि हिंसक घटनाओं के कारण मुस्लिम समुदाय के लोगों को आंतकी नजरिए से देखा जाना उचित नहीं है। अमरीकी राज्य वैरमॉन्ट के भूतपूर्व गर्वनर और डेमोक्रेटिक नेशनल कन्वेंशन के अध्यक्ष डीन हॉवर्ड ने कहा 'शार्ली एब्दो के हमलावर मुस्लिम आतंकी नहीं हैं। वे उतने ही मुसलमान हैं, जितना कि मैं हूं। ' हॉवर्ड ईसाई पंथ में विश्वास रखते हैं। वर्ष 2016 में अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव की संभावित उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन ने कहा कि फ्रेंच हमले व हमलावरों के पहलू को भी समझा जाना चाहिए। कनाडा के जाने माने प्रतिक्रियावादी और इस्लाम में आजादी के महत्वपूर्ण समर्थक तारेक फतेह कहते हैं 'इस मामले में कार्टून ही मुख्य वजह है तो पूरी कहानी बताई और दिखाई जानी चाहिए, पर यह किस तरह की मीडिया रिपोर्टिंग की जा रही है?
उल्लेखनीय है कि मीडिया इस मामले से जुड़े कार्टून को आमतौर पर दिखा नहीं रहा है, ताकि मुसलमानों की भावना को ठेस ना पहुंचे। तारिक कहते हैं कि पत्रकारिता का मूल सिद्धांत तथ्यों की रपट प्रस्तुत करना है न कि कोई निष्कर्ष निकालना। सोमालिया में जन्मी अमरीकी एक्टिविस्ट सुश्री अयान अली हिरसी कहती हैं 'अब इस तर्क का कोई मतलब नहीं रह गया कि हिंसा और इस्लाम में बहुत गहरा संबंध है। आप इन आतंकी गतिविधियों को इस्लाम से अलग कर के नहीं देख सकते हैं।'
माना जा रहा है कि अमरीका का वामपंथी और उदारवादी मीडिया इस मुद्दे की आलोचनात्मक छानबीन से बचना चाहता है कि कहीं इस्लाम विरोधी भावनाओं को बल न मिल जाए लेकिन इस बार कुछ मीडिया चैनल कठिन प्रश्न पूछ रहे हैं। आतंकी हमले को मात्र एक आपराधिक गतिविधि से तुलना किए जाने पर राष्ट्रपति ओबामा की फॉक्स चैनल ने जमकर आलोचना की है। व्यापक तौर पर कहा जाए तो राजनेता इस मुद्दे को किसी खास मजहब से जोड़ कर नहीं देखना चाहते हैं लेकिन होमलैंड सुरक्षा समिति के सदस्य पीटर किंग (न्यू यॉर्क से रिपब्लिकन नेता) ने कहा 'पहले तो इसे इस्लामिक आतंकवाद माना जाए, न कि सिर्फ एक उग्रवादी गतिविधि।' लेकिन, विरोधाभास देखिए पिछले 20 साल से लोग यही कहते आ रहे हैं, आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता है। इन घटनाओं को इस्लाम से जोड़ कर ना देखा जाए। इस्लाम एक अमनपसंद मजहब है। क्या यह समस्या इस्लाम की भावना से उत्पन्न हो रही है? तारीक फतेह कहते हैं ' पश्चिम जगत और हिंसा की बात छोडि़ये। स्वयं इस्लाम के अंदर ही हिंसा का अक्सर जश्न मनाया जाता रहा है।' इस्लाम में हिंसा कैंसर की तरह फैली हुई है। मुसलमान खुद इसके सबसे ज्यादा शिकार हुए हैं। करबला की लड़ाई के बारे में तारीक बताते हैं कि हम मुसलमानों ने ही मोहम्मद के पोते को मार डाला। उसी तरह पूरी उम्मा खलीफत के 700-800 लोग दमास्कस में एक ही दिन में मार दिए गए और विजयी हुए अबादीस खलीफत के शासकों ने इन लाशों पर व्यंजन छका था। चौदहवीं शताब्दी में मंगोलों ने जब अरब की संप्रभुता को खत्म कर दिया, तो इसके बाद दो व्यक्तियों ने इस्लाम को बहुत प्रभावित किया, इब्न थेमिया और इब्न खतीमा। इन्होंने इस्लाम का पुनरोदय किया, जिसकी जड़ वर्तमान सऊदी अरब तथा खाड़ी देशों में देखने को मिलती है। थेमिया के उपदेशों का असर आज के वहाबी, सलाफी और जिहादी इस्लाम पर स्पष्ट देखने को मिलता है। आंकड़ों पर गौर करें तो फ्रांस में 751 आधिकारिक 'प्रवेश वर्जित जोन' हैं जहां सिर्फ मुसलमान रहते हैं। वहां फ्रेंच पढ़ने की इजाजत नहीं होती हैं, इन क्षेत्रों में उनका अपना शरिया कानून चलता है और वे समाज की मुख्य धारा से कटे हुए होते हैं। पश्चिमी दुनिया जहां समानता, स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी है,आखिर वहां भी मुसलमान अलग-थलग क्यों रहते हैं?
'जिहाद वाच' संस्था के डायरेक्टर रॉबर्ट स्पेंसरने इसके कारणों की व्याख्या की है। वे कहते हैं कि इस्लाम एक मजहब के साथ-साथ राजनीतिक व्यवस्था भी है। इसकी अपनी एक सामाजिक व्यवस्था और शासन प्रणाली है। कुदरती तौर पर आम प्रवासी मुसलमान के जेहन में यह बात बैठी होती है कि नई धरती पर भी स्थानीय कानून की बजाय शरिया बेहतर विकल्प होगा और जैसे- जैसे वहां उनकी बहुलता बढ़ती जाती है, उस देश की संस्कृति के साथ उनका संघर्ष शुरू हो जाता है। क्या इलाज संभव है? उग्र इस्लामिक विचारधारा की जड़ में आजादी और बौद्धिक पूछताछ का स्थान नहीं है। इसके अलावा कुछ अन्य कारण भी समस्या को और जटिल बनाते हैं। 2012 में प्यू रिसर्च के विश्लेषण के मुताबिक दुनिया के एक चौथाई देशों में ईश्वर की अवमानना (ब्लासफेमी) के खिलाफ कानून या नीतियां हैं। दस प्रतिशत देशों में धर्म का त्याग या निंदा (अपोस्टेसी) करना वर्जित हैं। यह सब मुस्लिम मध्य-पूर्व और उत्तर अफ्रीकी देशों में आम है। शार्ली एब्दो की घटना के बाद अब क्या? क्या यह हादसा हमें कोई मौका देगा? मेरी राय से यह विश्व को तथा खासकर मुस्लिम जगत को एक ईमानदार बातचीत का अवसर देता है।
फ्रांसीसी पत्रिका पर हमले ने राजनीतिक, सुरक्षा और सामाजिक आयामों से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दे को हवा दे दी है। पूरी दुनिया में 160 करोड़ मुसलमान हैं। आखिर उनमें इसको लेकर हायतौबा क्यों नहीं मची है? विश्व का माहौल थोड़ा बेहतर होगा अगर मुसलमानों का एक छोटा तबका भी सामूहिक रूप से इस हिंसक घटना के खिलाफ आवाज बुलंद करें और कहे 'अब बहुत हुआ,इस्लाम के नाम पर लोगों की हत्याएं करना छोड़ो।' आखिर मुल्ला और इमाम सिर्फ कुरान को जलाए जाने वाली घटनाओं को लेकर ही ज्यादा संजीदा क्यों दिखाई पड़ते है? इन हिंसक वारदातों, इस्लाम के नाम पर मासूमों और निदोर्षों की हत्या पर अधिकांश लोगों ने चुप्पी क्यों साध रखी है? इस समस्या का समाधान इस्लाम के अंदर से आना चाहिए ना कि इस्लाम के बाहर से। इस्लाम की दुनिया से कोई महात्मा गांधी जैसा (जो अपने ही मतावलंबी एक हिन्दूवादी के हाथों मारे गए) शख्स क्यों नहीं उभर कर आया, जो शांति बहाली के लिए अपने मजहब के लोगों से पहल की जिद करे? आखिर पाकिस्तान के प्रति अमरीकी राष्ट्रपति नरम रवैया क्यों अपनाए हुए हैं, जहां ओसामा की सूचना देने वाले डॉक्टर को जेल में डाल दिया जाता है। आखिर अमरीका ऐसे कट्टर देश को आर्थिक मदद क्यों दे रहा है? अमरीकन मीडिया में अब इस्लामिक देशों पर व्यापारिक प्रतिबंध लगाने संबंधित भावनाएं भी व्यक्त की जा रही हैं। पूछा जा रहा है कि प्रगतिशील पश्चिमी जगत में मध्ययुगीन सोच वाले लोगों को जड़ें जमाने भी दी जाएं क्या? इस्लाम एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है जो खुद से ज्यादा औरों के लिए खतरनाक बन गया है। क्या वैश्विक स्तर पर इस्लामी आतंकवाद की समस्या पर गहन विचार किया जायेगा या अभी भी मुंह फेर कर खड़े रहेंगे? ल्ल
(लेखक शिकागो स्थित सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक हैं)

यह भयानक अन्यायपूर्ण और नृशंस अपराध है। इस वीभत्स हमले का मतलब लोगों को बांटना है। हमें इस जाल में बिल्कुल भी नहीं फंसना है।
– बान.की. मून, संयुक्त राष्ट्र महासचिव

दुख होता है यह देखकर कि भारतीय टीवी चैनल ' फ्री स्पीच' पर बोलने के लिए इसके विरोधी लोगों को बुलाते हैं। क्या आपके पास पर्याप्त लोग नहीं हैं जो फ्री स्पीच पर विश्वास करते हों? -तस्लीमा नसरीन, लेखिका बंगलादेशी

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