क्या हम पेरिस नरसंहार से भी नहीं सीखेंगे?
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क्या हम पेरिस नरसंहार से भी नहीं सीखेंगे?

by
Jan 22, 2015, 12:00 am IST
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दिंनाक: 22 Jan 2015 13:54:02

देवेन्द्र स्वरूप
बारह जनवरी को फ्रांस की राजधानी पेरिस में दस लाख लोगों ने इकट्ठे होकर, एक सप्ताह पहले 7 जनवरी को वहां की प्रसिद्ध कार्टून पत्रिका 'शार्ली एब्दो' में पैगम्बर मोहम्मद पर कार्टून छापने के विरुद्ध 'इस्लामी आक्रोश' प्रगट करने के लिए हथियारबंद सशस्त्र नकाबपोश जिहादियों द्वारा शार्ली एब्दो के कार्यालय पर हमला करके 12 पत्रकारों व कार्टूनिस्टों की हत्या किए जाने के विरोध में प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन में 40 देशों के राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री भी सम्मिलित हुए। उनमें फिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास भी शामिल हुए। पूरे विश्व में इस नरसंहार की निंदा हो रही है और यह एक प्रकार से विश्व की डेढ़ अरब मुस्लिम जनसंख्या के विरुद्ध सात अरब गैर मुस्लिम जनसंख्या के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व पांथिक सहिष्णुता की रक्षा का सवाल बन गया है। इस्लाम के नाम पर इस क्रूर नरसंहार का निशाना बने 'शार्ली एब्दो' ने कायरतापूर्ण समर्पण का रास्ता अपनाने के बजाए जिहादियों के सामने छाती तानकर खडे़ रहने का साहस दिखलाया। घोषणा की कि वह अपना प्रकाशन बंद नहीं करेगा और अगले अंक में पुन: पहले पन्ने पर हजरत मोहम्मद पर कार्टून छापकर हत्यारों को चुनौती देगा। वैसा ही हुआ। शार्ली एब्दो का अगला अंक बाजार में आया। उसकी प्रति खरीदने के लिए बड़ी सुबह से लम्बी कतारें लग गयीं और हाथों-हाथ दस लाख प्रतियां बिक गयीं। मुस्लिम देशों में शार्ली एब्दो के इस साहसी कदम से गुस्से के साथ-साथ आत्मालोचन की बात शुरू हो गयी है। भारत में प्रसिद्ध पत्रकार एम.जे.अकबर ने जिहादी मानसिकता की कड़े शब्दों में भर्त्सना की है। तसलीमा नसरीन ने टाइम्स आफ इंडिया, 13 जनवरी में लिखा है कि 'क्या मैं भी इन जिहादियों की गोली की शिकार बनूंगी? इस्लाम को इस जिहादी मानसिकता से बाहर निकलने के लिए अपनी विचारधारा में मौलिक परिवर्तन करना होगा, जुनून के बजाय तर्क को अपना अधिष्ठान बनाना होगा।' एक पाकिस्तानी विचारक आयशा सिद्दीकी ने लिखा है कि ईसाइयत से भिन्न इस्लाम का विकास एक सैनिक मजहब के रूप में हुआ जिसने विश्व की अन्य सब पांथिक विचारधाराओं पर जीत हासिल करने का लक्ष्य अपने सामने रखा है। सिद्दीकी ने बताया है कि 7 जनवरी को जिहादी हमले में शार्ली एब्दो की रक्षा करते हुए अहमद मेराबेत नामक एक मुस्लिम पुलिसकर्मी भी मारा गया, जबकि पाकिस्तान में पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या उनके अपने सुरक्षाकर्मी मुमताज कादरी ने कर दी थी क्योंकि उसकी नजरों में सलमान तासीर द्वारा एक ईसाई महिला को ईशनिंदा कानून की गिरफ्त से बचाने की कोशिश इस्लाम से दुश्मनी बराबर थी। सिद्दीकी सवाल उठाती हैं कि मुस्लिम समाज छोटी-छोटी बातों में हजरत मोहम्मद का अपमान क्यों देखता है और उनके छोटे से भी अपमान पर इतना बौखला क्यों जाता है? सिद्दीकी लिखती हैं कि ईशनिंदा कानूनों को बदलने की आवश्यकता है और यह काम मुस्लिम मौलानाओं व शिक्षा केन्द्रों को ही करना होगा। मिस्र के राष्ट्रपति अब्दुल फत्ताह अल सिंसी ने अल अजहर विश्वविद्यालय में कहा यदि हमने अठारहवीं शताब्दी के मोहम्मद अब्दी हबन अलवहाब द्वारा इस्लाम की हदबंदी से बाहर निकलकर इस्लाम की युगानुकूल नयी व्याख्या नहीं की तो हम पूरी दुनिया को अपना दुश्मन बना लेंगे और मुसीबत में फंस जाएंगे।
नाईजीरिया में हिंसक बोको
हिंसा और जुल्म के सहारे दूसरों का मतांतरण करके अपनी जनसंख्या को बढ़ाने का सबसे ताजा उदाहरण अफ्रीकी महाद्वीप का नाईजीरिया देश है। किसी भी हालत में नाईजीरिया पर अमरीका के समान इस्लाम विरोधी होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। किंतु पिछले तीन-चार वर्षों में इस गरीब और असहाय देश पर जिहादियों ने जो जुल्म ढाये हैं वे रोंगटे खड़े कर देते हैं। इस्लामी जिहादियों ने सन् 2009 में बोको हराम नामक संगठन के नाम पर नाईजीरिया को शरिया कानून के अधीन लेने की घोषणा की, और हिंसक हमले शुरू कर दिये। अप्रैल 2014 में उन्होंने शिबोक कस्बे में 276 स्कूली छात्राओं का अपहरण किया, बोको हराम के स्वयंभू खलीफा अबुबकर शेकाउ ने बेशरमी से घोषणा की कि उनमें से अधिकांश ने इस्लाम कबूल कर लिया है और उनका निकाह मुजाहिदीनों के साथ कर दिया गया है। शार्ली एब्दो की घटना के एक सप्ताह पहले बागा शहर और उसके आसपास के गांवों में 2000 गैर मुस्लिम नाईजीरियावासियों की हत्या करा दी गयी। इन अमानवीय कृत्यों के लिए कभी ओसामा बिन लादेन, और कभी बगदादी नामक व्यक्तियों को जिम्मेदार ठहराना पर्याप्त नहीं है। इसकी जड़ें उस विचारधारा में खोजनी होंगी जो नये-नये नामों से संगठनों को पैदा करती है-चाहे उन्हें अल कायदा कहें, आईएसआईएस, लश्करे तोयबा, या अल मुजाहिदीन-ये सभी संगठन उसी विचारधारा के प्रति निष्ठा की कसमें खाते हैं।
जो लोग समझते हैं कि आधुनिक शिक्षा और जीवनशैली से बाहर के मुसलमान ही जिहाद के रास्ते पर जाते हैं, वे भारी भ्रम में जी रहे हैं। 9/11 को न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर जिन विमानों से हमला हुआ उनको उड़ाने वाले सभी 19 चालक अमरीका की आधुनिक सभ्यता में पले-बढ़े थे और उन्हें यह पूर्ण कल्पना थी कि जिस मिशन पर वे जा रहे हैं उसमें वे जीवित नहीं बचेंगे। अत: इस दृष्टि से उस विचारधारा का अध्ययन करना होगा कि उसमें ऐसा क्या है जो मुजाहिदीन व फिदायीन पैदा करता है। कौन सी अदृश्य तृप्ति है जिसे पाने के लिए आधुनिक शिक्षा और जीवनशैली में पले-बड़े, अच्छी नौकरियों में लगे युवक अपनी जवानी को बलिदान कर देते हैं और क्यों हजरत मोहम्मद और कुरान शरीफ के छोटे से अपमान पर 'इस्लाम खतरे में' का नारा लगाकर हिंसक भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं? जब कभी ऐसी जिहादी घटना घटती है तो अपने को पढ़ा-लिखा और उदार कहने वाले मुस्लिम बुद्धिजीवी ऐसे कृत्यों को कुरान विरुद्ध व गैर इस्लामी घोषित कर देते हैं, पर जब जिहादी तत्व उन्हें बहस की चुनौती देते हैं तो वे कतरा जाते हैं। जिहादियों का दावा है कि वे जो कुछ कर रहे हैं वह कुरान-सम्मत है और हमारे आलोचक कायर हैं, स्वार्थी हैं और इस्लाम के प्रति पूरी तरह निष्ठावान नहीं हैं।
इस्लामी विचारधारा और मुस्लिम मानसिकता में अन्य मतावलम्बियों की मानसिकता से कितनी अधिक दूरी है इसका कुछ अनुमान ईसाई मतावलम्बियों की ईसा मसीह के जीवन पर बनी फिल्मों एवं पुस्तकों पर होने वाली प्रतिक्रिया से लग सकता है। चैतन्य कालबाग ने इकॉनामिक टाइम्स, 15 जनवरी में प्रकाशित अपने लेख में कहा है कि 'नववर्ष के अवसर पर मैंने अमरीका के ईयुगीन ओ'नील थियेटर में 'बुक आफ मोरयन' नामक नृत्य नाट्य देखा, जिसमें अमरीका की अपने श्रद्धा केन्द्रों पर हंसने की क्षमता का अहसास हुआ। इस नाटक को अनेक देशों में पुरस्कार मिल चुका है, यह चार साल से खेला जा रहा है। यह व्यंग्यों एवं न छापने लायक अश्लील उद्गारों से भरा हुआ है। इस नाटक में युगांडा में ईसाई मतांतरण के लिए भेजे गये मिशनरियों का चित्रण किया गया है। उसमें ईसा मसीह का भी मजाक बनाया गया किंतु ऐसे नाटक के विरुद्ध कोई दंगा फसाद करने के बजाय मोरयन मिशनरी स्वयं भी कई बार थियेटर आये और बुक आफ मोरयन की प्रतियां मुफ्त बांट गये।' 1987 में अमरीकी पत्रकार और फोटोग्राफर आन्द्रे सेर्रानो ने 'पिस्स क्राइस्ट' शीर्षक से एक अश्लील फोटो प्रकाशित किया। किंतु उसका कोई हिंसक विरोध नहीं हुआ। उलटे ननें भी उसके बचाव में आगे आयीं।
बढ़ता मजहबी उन्माद
स्वयं फ्रांस में यूरोप के सब देशों की अपेक्षा मुसलमानों की संख्या सर्वाधिक है और उन्हें यूरोपीय सभ्यता में बराबर का स्थान मिला। किंतु धीरे-धीरे फ्रांस ने महसूस किया कि मुस्लिम समाज अपने को अलग रखता है, जिससे फ्रांस की बहुलतावादी सभ्यता को खतरा पैदा हो गया है। इससे भयभीत होकर फ्रांस ने 2004 में सभी मजहबी प्रतीकों के सार्वजनिक स्थानों पर प्रदर्शन पर रोक लगायी और 2010 में मुसलमानों के बुर्के और हिजाब पर रोक लगायी। यूरोप के सभी देशों में मुस्लिम पृथकतावाद ने वहां के समाजों को विभाजित कर दिया। इस प्रवृत्ति का शिक्षा एवं आधुनिकीकरण से कुछ लेना-देना नहीं है।

किंतु भारत में स्थिति बिल्कुल भिन्न है। यहां के राजनेताओं की दृ़ष्टि में मुस्लिम वोट बैंक सबसे बड़ा है और वे सत्ता पाने के लिए इस वोट बैंक को रिझाना बहुत आवश्यक समझते हैं। इसके लिए उन्होंने अल्पसंख्यक वाद बनाम बहुसंख्यक वाद और सेकुलरिज्म का आवरण ओढ़ रखा है। उनकी पूरी कोशिश रहती है कि अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भाजपा और उसे शक्ति प्रदान करने वाले संघ परिवार पर मुस्लिम विरोधी छवि कैसे आरोपित की जाय। इसके लिए वे किसी भी एकाकी आवाज को पूरे हिन्दू समाज की आवाज के रूप में उछाल देते हैं, और मुस्लिम पृथकतावाद की ओर से आंखें मूंद लेते हैं। यहां इस्लामी विचारधारा का तटस्थ बौद्धिक विवेचन संभव ही नहीं रहा है। इसका सर्वाधिक परिणाम हिन्दू बौद्धिकों पर हुआ है। अपने को उदारवादी, सुधारवादी व सेकुलर दिखाने के लोभ में वे मुस्लिम असहिष्णुता, आक्रामकता व पृथकतावाद पर मौन रह जाते हैं और किसी अकेले हिन्दू के एकाध वाक्य को तिल का ताड़ बना देते हैं। इसका ताजा उदाहरण है-किसी एक व्यक्ति द्वारा गांधी जी के हत्यारे गोडसे की प्रतिमा लगाने का पागल प्रलाप। वह व्यक्ति स्वयं को हिन्दू महासभा का महासचिव बताता है जबकि महासभा के अध्यक्ष ने इसका खंडन किया है। बौद्धिकों की यह प्रवृत्ति कायरता की हद तक पहुंच गयी है। चैतन्य कालबाग प्रश्न उठाते हैं कि एम.एफ.हुसैन द्वारा हिन्दू देवी-देवताओं के नग्न चित्रण पर हिन्दू विरोध को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन कहा गया, पर यदि हुसैन ने हजरत मोहम्मद या उनकी बेगमों के ऐसे चित्र बनाये होते तो इन बुद्धिजीवियों की क्या प्रतिक्रिया होती? केरल के ईसाई व्याख्याता टी.जे.जोसफ पर हजरत मोहम्मद के तथाकथित अपमान के आरोप लगाकर घातक हमले का विरोध क्यों नहीं हुआ? भारतीय बुद्धिजीवी किस तरह सोचता है, इसको जानने के लिए 19 जनवरी के इंडिया टुडे में प्रसिद्ध पत्रकार शेखर गुप्ता का 'नेशनल इंटरेस्ट' स्तंभ के अन्तर्गत लेख पढ़ना उपयोगी रहेगा। इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक के रूप में शेखर गुप्ता का भारतीय पत्रकारिता में ऊंचा स्थान है। इस लेख में वे कहते हैं कि 'एक भारतीय प्रकाशन के संपादक के रूप में मैं इन कार्टूनों को अप्रकाशनीय, उत्तेजक व मनोरंजनहीन करार देता और अपनी उदार सेकुलर छवि को प्रमाणित करने के लिए उन्हें छापना उचित न समझता।' भारतीय मीडिया में 'शार्ली एब्दो' प्रकरण पर जो बहस चल रही है उसमें नरसंहार की विचारधारा की भर्त्सना के बजाय उन कार्टूनों का प्रकाशन अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य की कसौटी पर सही था या गलत, इस बिन्दु पर अधिक केन्द्रित है। मुस्लिम पृथकतावाद की वकालत करना उदारवाद और सेकुलरिज्म की कसौटी बन जाता है शायद इसीलिए शेखर गुप्ता के संपादन काल में इंडियन एक्सप्रेस पाकिस्तानी लेखकों के मुस्लिम दृष्टिकोण के प्रकाशन का मंच बन गया था। भारत में उठने वाले किसी भी साम्प्रदायिक प्रश्न पर मुस्लिम पक्ष को प्रस्तुत करने के लिए पूरे-पूरे पृष्ठ की सामग्री संकलित करना इस पत्र का रिवाज बन गया था। कभी कभी तो लगता था कि भारत की धरती से प्रकाशित होने वाला वह कोई मुस्लिम प्रकाशन है। यह मात्र एक उदाहरण है। भारतीय बुद्धिजीवियों के लेखन का इस दृष्टि से गहन अध्ययन-विश्लेषण बहुत आवश्यक है। यह जानने के बाद भी इस्लामी आतंकवाद के समाचार ही हमारे मीडिया में छाये रहते हैं। इस यथार्थ से बचने के लिए हमने एक मिथक गढ़ लिया है कि 'आतंक का कोई मजहब नहीं होता, वह केवल आतंक होता है।' क्या हम इतने मूर्ख हैं कि इतना भी न समझें कि बिना किसी अंत:प्रेरणा के कोई आतंकवाद के रास्ते पर क्यों बढ़ेगा? वह प्रेरणा किसी विचारधारा में से ही आती है। साथ ही, हमने आतंकवाद और उसके प्रतिरोधी प्रयास को भी एक ही श्रेणी में रख दिया है।
एकजुट होता विश्व
यही कारण है कि जो देश एक हजार साल से अधिक समय से मुस्लिम विस्तारवाद, असहिष्णुता और हिंसा का शिकार बना रहा है वह इस समय, जब पूरा विश्व चीन से लेकर अमरीका तक जिहादी हिंसा का शिकार बना हुआ है और चिंतित है, जिहाद विरोधी वैश्विक मोर्चे की पहली पंक्ति में खड़ा होने का साहस नहीं जुटा पा रहा। क्या भारतीय बौद्धिकों और राजनेताओं को यह ज्ञान भी नहीं है कि इस्लामी मतांतरण की कोख से ही पाकिस्तान का जन्म हुआ है। यह मतांतरण ही कश्मीर समस्या की जड़ है। पाकिस्तान का गठन, 1947 से अब तक हमारी सुरक्षा और विदेश नीति का केन्द्र बिन्दु बना हुआ है। जिस देश के बौद्धिक और राजनेता यथार्थबोध से शून्य हों और राष्ट्रहित के प्रति अंधे हों उस देश का तो भगवान ही मालिक है। भारत आज इसी आत्मविस्मृति के संकट से जूझ रहा है। शार्ली एब्दो का संकल्प और साहस हमारे लिए वरदान बनकर आया है। इस प्रकरण ने पूरे विश्व की आत्मा को झकझोर डाला है और हिंसक असहिष्णुता के प्रति एकजुट कर दिया है।

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