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.गुजरात की समुद्री सीमा के पास आठ दिनों से टोह लेती पाकिस्तानी नौका जैसे ही तटरक्षकों की घेराबंदी में आती है उस पर सवार लोग विस्फोटकों से लदी नाव उड़ा देते हैं। भारतीय मीडिया में सबसे पहले जो राजनीतिक बयान आते हैं उनका निशाना संदिग्ध आतंकी और उनकी मंशा नहीं बल्कि सरकार और उसकी नीयत होती है।
26 नवंबर 2008 में आया होगा कोई कसाब! ली होंगी 164 निदार्ेष जानें!!
जाने दो, यह सरकार और भाजपा को घेरने का वक्त है।
एक अल्पज्ञात पत्रिका लव जिहाद पर आवरण कथा देती है। मीडिया में चर्चा मुद्दे की सचाई की बजाय उस अभिनेत्री पर होती है जिसका चित्र आवरण पर प्रतीक तौर पर लिया गया।
होगा कोई रकीबुल! होगी कोई तारा शाहदेव! दिसंबर 2014 में जामा मस्जिद से कहा होगा बुखारी ने कुछ!!
जाने दो, यह हिंदू संगठनों पर हल्ला बोलने का वक्त है।
समझदारी की फ्रेंचाइजी लेकर बैठी भारतीय 'वामपंथी-सेकुलर' सोच के ये दो सटीक उदाहरण हैं। एक ओर फ्रांस की राजधानी में इस्लामी आतंकी, व्यंग्य पत्रिका 'शार्ली एब्दो' के पत्रकारों को छलनी कर रहे थे। दूसरी तरफ, भारत में सरकार के विरुद्ध लामबंदी और राष्ट्रीय चिंताओं को दबाने की वैचारिक गुत्थमगुत्था इस घटना के पहले और बाद तक जारी थी।
राष्ट्रीय मुद्दे ठीक, पर क्या यह घटना हल्की थी? पेरिस हमला दशक की सबसे दहलाने वाली घटनाओं में से एक है। यह इस्लामी आतंकियों का मीडिया पर अब तक का सबसे बड़ा और सीधा हमला था। लेकिन भारतीय मीडिया में हमला सिर्फ घटना की तरह रिपोर्ट होता है। घटना के बादल छंटते ही जिहाद की बजाय हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के प्रति चिंताएं दिखने लगती हैं।
फ्रांस की घटना में सीसीटीवी से प्राप्त दहलाने वाले विजुअल थे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए मसाला था। इसलिए शुरुआत में खबर खूब चली। प्रिंट मीडिया को टीवी का पीछा करना था इसलिए अगले दिन की यह मुख्य खबर थी। मगर खबर बौद्धिक चिंताओं में शामिल हो सूचना के कारोबार के लिए शायद यह जरूरी नहीं। क्या समाचार अब सिर्फ सनसनी का कारोबार है? या फिर समाचार और बौद्धिक जगत को किसी वैचारिक दोमुंहेपन ने जकड़ रखा है? विमर्श के मौजूदा मंचों पर कौन सी खबर मजबूरी है कौन सी जरूरी, इसकी पड़ताल दिलचस्प है।
मजबूरी और मंशा के बीच का यह फर्क बारीक है, लेकिन पकड़ा जा सकता है। 'शार्ली एब्दो' पर जिहादी हमले की खबर सुर्खियों में होने बाद भी टीवी बहस से मुद्दा नदारद ही था। बहस का खाका खींचने वाले उस रोज समय की कमी की बात कहकर बच सकते हैं लेकिन समाचार पत्र क्या कहेंगे? हैरान करने वाला तथ्य यह है कि यदि अपवाद छोड़ दिए जाएं तो अगले दिन सभी अखबारों में प्रथम पृष्ठ पर जगह बनाने वाली फ्रांस की खबर को दिल्ली से प्रकाशित किसी पत्र में संपादकीय में स्थान नहीं मिला।
सेकुलर सोच के अखाड़े चलाने वालों का दोमुंहापन ही वास्तव में वामपंथ के वैश्विक पतन की असली वजह है। मकबूल फिदा हुसैन द्वारा हिन्दू देवियों के अपमानजनक चित्रण पर जब सिर्फ शाब्दिक विरोध होता है तो वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का रोना रोते हैं। पैगंबर के कार्टून छापने और आईएसआईएस सरगना का चित्र बनाने पर फ्रांस में जब पत्रकार गोलियों से भून दिए जाते हैं तो सहानुभूति के साथ ही दबे स्वर में सवाल उठाते हैं, 'भावनाओं को आहत करना भी ठीक नहीं।'
शार्ली एब्दो को स्पष्ट वामपंथी रुझान वाली पत्रिका माना जाता है। लेकिन इस सब के बावजूद भारतीय वामपंथ और मीडिया विमर्श भाजपा और हिन्दुत्व के प्रति अपनी कुंठाओं का घेरा तोड़ने को तैयार नहीं? फ्रांस या कहिए पूरे यूरोप में वामपंथ मुस्लिम कट्टरवादियों के निशाने पर है। तुर्की में भी यही हाल है। नोबल पुरस्कार प्राप्त ओरहान पामुक की 'स्नो' सरीखी रचनाओं में इस्लामी आतंकवाद के वैश्विक खतरे की पदचाप सुनी जा सकती है। लेकिन भारत में वामपंथ-सेकुलर कॉकटेल की चिंताओं का पैमाना और है। कसाब की फांसी, नक्सल विरोधी अभियान और लव-जिहाद का जिक्र आते ही भारतीय सेकुलर जमात का यह 'प्रगतिशील जनवादी' पैमाना छलकता है।
बहरहाल, वैश्विक आतंकवाद के सबसे जघन्य दौर में वामपंथ-सेकुलर गठजोड़ ने अगर इस्लामी आतंक पर चुप्पी ओढ़ने की ठानी है तो उसकी मर्जी। सेकुलर जमात यदि विस्फोटकों से लदी नाव और जिहादी कंधों की सवारी करना चाहती है तो उसकी मर्जी। दुनिया के लिए मानव का बचना मजहब के बचे रहने से ज्यादा जरूरी है।
जिहादी आतंक पर 'वाम-सेकुलर' चुप्पी के बीच, शार्ली एब्दो के जुझारू पत्रकारों को पाञ्चजन्य की विनम्र श्रद्धाञ्जलि।
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