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हिन्दी के विरोध का हो विरोध

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Dec 15, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 15 Dec 2014 12:42:48

 

राजभाषा पुरस्कार-2013-14 के कार्यक्रम में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी एवं केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने ध्यान दिलाया कि देश की तीन चौथाई जनता हिन्दी बोलती और समझती है। हिन्दी हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक एकता की प्रतीक है। स्वतंत्रता संग्राम के अ-हिन्दी दिग्गज सेनानियों ने भी हिन्दी के व्यापक प्रचार-प्रसार पर जोर दिया था, तिस पर भी सरकारी कामकाज में हिन्दी की उपेक्षा की जाती है। (दैनिक जागरण, नई दिल्ली, 16़11़ 2014, पृष्ठ1)
ध्यानपूर्वक अवलोकन करने पर ज्ञात होगा कि हिन्दी की उपेक्षा करने में संचार-माध्यम भी पीछे नहीं हैं। दुर्भाग्य से, हिन्दी की अवमानना तब हो रही है जबकि हमारे संविधान के अनुच्छेद 351 में आदेशात्मक भाषा में यह प्रावधान किया गया है कि भारत संघ हिन्दी के प्रसार, विकास और समृद्धि को सुनिश्चित करेगा। केंद्र सरकार और हिन्दी भाषी प्रादेशिक सरकारों के सभी कर्मचारियों एवं हिन्दी के संचार-माध्यमों के सभी संपादकों और लेखकों को चाहिए कि इस अनुच्छेद का अध्ययन कर लें। यह उनका व्यावसायिक कर्तव्य है। अनुच्छेद 351 में हिन्दी भाषा के प्रति भारत संघ के जो तीन कर्तव्य बताए गए हैं, उनकी व्याख्या इस प्रकार है-1)हिन्दी का प्रसार करना। यह प्रयास करना कि अधिकाधिक लोगों की संवाद की भाषा हिन्दी हो, वे हिन्दी पढ़-लिख सकें, शिक्षा का माध्यम, यथासंभव विश्वविद्यालय स्तर तक हिन्दी हो, कार्यालयों का कार्य हिन्दी में हो। 2) हिन्दी का विकास करना। तात्पर्य यह है कि पुस्तकों, समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं,नाटकों, आकाशवाणी कार्यक्रमों, दूरदर्शन पर समाचार, धारावाहिक आदि कार्यक्रमों का हिन्दी में सृजन करना। इनके माध्यम से अपने विशाल भारत देश की सामासिक संस्कृति को अभिव्यक्ति दी जाए। 3)हिन्दी की समृद्धि करना। इसका उपाय भी बताया गया है कि हिन्दुस्थानी और आठवीं सूची में उल्लिखित भाषाओं (जैसे असमी, बोडो, डोगरी, बंगला, मराठी, गुजराती, कन्नड़, मलयालम, तमिल, तेलुगु, उडि़या, उर्दू, संस्कृत, सिंधी इत्यादि) के रूप, शैली और पदों को हिन्दी में आत्मसात किया जा सकता है। हिन्दी का शब्द-भंडार बढ़ाया जाए़, इसके लिए मुख्यत: संस्कृत और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द लिए जाने चाहिएं। यहां संविधान का यह आदेश भी है कि यह हिन्दी की अपनी प्रकृति या विशिष्टता में हस्तक्षेप करके नहीं होना चाहिए। कभी-कभी नये विचार, भाव या पदार्थ अस्तित्व में आ जाते हैं, उनके लिए नये शब्दों की आवश्यकता पड़ जाती है। जैसे,आजकल 'स्मार्ट सिटी' और 'बुलेट ट्रेन' की बहुत चर्चा है। अब या तो इन शब्दों के लिए हिन्दी शब्दों की रचना की जाए या इनको भी हिन्दी शब्दकोश में स्थान दे दिया जाए जैसे कि अनेक अंग्रेजी शब्दों के साथ (जिनका उल्लेख आगे किया गया है) हो चुका है।
अब देखते हैं कि संचार माध्यमों द्वारा हिन्दी के प्रसार, विकास और समृद्धि के सांविधानिक कर्तव्य की कितनी अवहेलना की जा रही है! और यह सब सचेतन और सप्रयत्न हो रही है। हिन्दी के सरल और प्रचलित शब्दों के स्थान पर अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों की भरमार दिखती है। निम्नलिखित उदाहरण देखिए –
हिन्दी के स्थान पर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग
पहले अंग्रेजी के शब्द, जिनका प्रयोग हो रहा है, लिखे गए हैं। तत्पश्चात् कोष्ठक में हिन्दी के शब्द, जिनका प्रयोग होना चाहिए, लिखे गए हैं। न्यूज(समाचार), ब्रेक(विराम), हेड लाइन्स (शीर्ष समाचार), न्यूज बुलेटिन(समाचार विज्ञप्ति), थैंक्यू (धन्यवाद), लेफ्ट पार्टी (वाम दल), लाइव (सीधा), कोल्ड ड्रिंक (शीतल पेय), मैनेजमेंट (प्रबंध)। यह संख्या सैकड़ों में है। अंग्रेजी शब्द देवनागरी लिपि के अतिरिक्त रोमन लिपि में भी लिखे आते हैं। अंग्रेजी समाचार कार्यक्रमों में तो कोई भी शब्द देवनागरी लिपि में लिखा नहीं आता। यहां तक कि मूल रूप से हिन्दी शब्द भी, जैसे साड़ी, कुर्ता, लुंगी, अनशन, घेराव इत्यादि भी।
हिन्दी शब्दों के स्थान पर उर्दू शब्द
अब कुछ उदाहरण उर्दू के शब्दों के, जिनका प्रयोग हो रहा है, दिए जा रहे हैं। हिन्दी के शब्द, जिनका प्रयोग किया जाना चाहिए, कोष्ठक मंे दिये हैं। शुक्रिया (धन्यवाद), मुमकिन (सम्भव) असर (प्रभाव), इजाजत (अनुमति), शख्स (व्यक्ति), हादसा (दुर्घटना), माओं (माताओं), सियासत (राजनीति), खुदकुशी (आत्महत्या), फैसला(निर्णय), मुखालफत (विरोध), मकसद (उद्देश्य), हक (अधिकार), नजरिया (दृष्टि-कोण ), सुबह-सबेरे (प्रात:काल), मौका (अवसर), हाजिर (उपस्थित) इत्यादि।
हिन्दी में अन्य पुरुष सर्वनाम के लिए एकवचन में 'वह' शब्द है और बहुवचन में 'वे' है। यह हिन्दी की विशिष्टता है कि उसके पास दोनों वचनों के लिए अलग-अलग शब्द हैं। उर्दू भाषा में इसका अभाव है। उसमें दोनों वचनों के लिए अलग-अलग शब्द नहीं हैं। केवल एक ही शब्द 'वो' का प्रयोग दोनों वचनों में होता है। दूरदर्शन में हिन्दी भाषा के लिए भी दोनों वचनों में 'वो' का प्रयोग किया जाने लगा है। क्या यह संविधान के अनुच्छेद 351 का उल्लंघन करके हिन्दी की विशिष्टता के साथ हस्तक्षेप नहीं है? यही स्थिति हिन्दी के एकवचन 'यह' और बहुवचन 'ये' दोनों के स्थान पर उर्दू का एक शब्द 'ये' प्रयुक्त करके हिन्दी की विशिष्टता को महत्वहीन किया जा रहा है। इसका कुफल यह भी होगा हिन्दी लेखकों के पाठक यह भी सोच सकते हैं कि हिन्दी के साहित्यकारों को व्याकरण ज्ञान नहीं था।
हिन्दी में नकारात्मक भाव के लिए 'न' लिखा जाता है। उर्दू में 'ना' लिखा जाता है, क्योंकि उर्दू में 'न' नहीं लिखा जा सकता, दूरदर्शन में हिन्दी कार्यक्रमों में 'ना' लिखा आने लगा है। यह भी हिन्दी की विशिष्टता में हस्तक्षेप है। प्रश्न उठता है कि यदि हिन्दी के शब्दों को अपदस्थ करके उनके स्थान पर अंग्रेजी और उर्दू के अगणित शब्दों को लोगों के सामने परोसा जाएगा तो लोग इन्हीं भाषाओं के शब्दों को जान पाएंगे, इन्हीं का प्रयोग करेंगे, क्या इससे हिन्दी अप्रचलित नहीं हो जाएगी? इससे हिन्दी का प्रसार और विकास नहीं हो रहा, उसकी समृद्धि नहीं हो रही, उल्टे इससे तो अंग्रेजी और उर्दू का प्रसार हो रहा है। इसके लिए उदाहरण भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरला नेहरू के इस वृत्तांत से मिलता है। एक बार एक बालक ने अपनी हस्ताक्षर पुस्तक उनके सामने रखकर कहा, चाचा! इस पर साइन कर दीजिए। नेहरूजी ने अंग्रेजी में साइन कर दिये। इसके बाद बालक ने कहा, इस पर तारीख भी लिख दीजिए। नेहरूजी ने उर्दू के अंकों में तारीख लिख दी। आश्चर्य से बालक ने पूछा-आपने साइन तो अंग्रेजी में किये हैं लेकिन तारीख उर्दू में लिख दी, ऐसा क्यों? नेहरूजी उत्तर दिया, तुमने अंग्रेजी शब्द साइन कहा तो मैंने अंग्रेजी में साइन कर दिए, फिर तुमने उर्दू शब्द तारीख का प्रयोग किया तो मैंने उर्दू में तारीख लिख दी।(दैनिक जागरण, नई दिल्ली,सप्तरंग, 14-11-2014)
कुछ 'विद्वान' यह तर्क देते हैं कि शुद्ध हिन्दी का प्रयोग करने से वह क्लिष्ट हो जाएगी। यह एक निराधार तर्क है। प्रश्न है कि ऊपर कोष्ठक में दिये हिन्दी के कौन से शब्द क्लिष्ट हैं? एक भी तो नहीं। वस्तुत: कोई भी शब्द पहली बार किसी के सामने आने पर वह उसे क्लिष्ट लगता है, बारम्बार सामने आने पर उसका भाव और अर्थ सरल हो जाते हैं।
यहां यह लिखने का उद्देश्य हिन्दी के लिए 'शुद्घता वादी' या 'पवित्रता वादी' दृष्टिकोण प्रतिपादित करना नहीं है। यहां पर अंग्रेजी और उर्दू या अन्य किसी भाषा के उन शब्दों के प्रयोग का कोई विरोध नहीं जो सामान्य जनता द्वारा इस प्रकार अपना लिए गए हैं कि वे उनको समझते हैं और प्रयोग में भी लाते हैं। उदाहरण के लिए अंग्रेजी के ये शब्द हैं-ट्रेन, इंजन, साइकिल, कार, पेट्रोल, डीजल, बस, कप, प्लेट, स्टेशन,प्लेटफार्म, चैनल, वोट, जेल, इंजेक्शन, ऐंबुलेंस, आपरेशन, पोस्टमार्टम, कम्पनी, कम्प्यूटर, कमांडो, अपील इत्यादि। इसी तरह अरबी और फारसी के बहुत से शब्दों को लोगों ने आत्मसात कर लिया है। उदाहरणत: इंकलाब, जिंदाबाद, जोर, जुल्म, मुर्दाबाद,आवाज, आदमी,औरत, अमीर, गरीब, दिल, दर्द,जमीन, आसमान,सवाल, जवाब, बुखार, इलाज, कागज, बाजार, नजर, सही, गलत, असली, नकली इत्यादि। आवश्यकतानुसार इनका प्रयोग आपत्तिजनक नहीं है। आपत्ति और दु:ख तो इस बात पर है कि हिन्दी के सरल और सुबोध शब्दों के स्थान पर सचेतन और सप्रयास ढंग से अंग्रेजी या उर्दू के शब्दों का प्रयोग केवल इसलिए करना कि हिन्दी के शब्दों का प्रयोग नहीं करना है। क्या यह पीड़ादायक नहीं कि हिन्दी के एक अति सर्व सुबोध शब्द 'धन्यवाद' के स्थान पर हिन्दी के अधिकतर चैनलों पर 'थैंक्यू' या 'शुक्रिया' जैसे शब्दों का प्रयोग हो रहा है? हिन्दी शब्दों के इस स्थानापन्न से हिन्दी के लिए 'अस्मिता' की समस्या पैदा हो गई है। हिन्दी का अस्तित्व भयाक्रान्त हो गया है।
अपने संविधान के अनुच्छेद 351 के पालन की आवश्यकता यह है कि दूरदर्शन पर हिन्दी कार्यक्रमों में तथा हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी शब्दों के स्थान पर अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों की भरमार तो हो ही नहीं बल्कि अंग्रेजी एवं उर्दू के प्रचलित शब्दों के स्थान पर हिन्दी के अधिक शिष्ट शब्दों को वरीयता दी जाए। उदाहरणत: 'औरत' शब्द के स्थान पर 'महिला' शब्द अधिक उपयुक्त है। संचार-माध्यमों द्वारा हिन्दी के साथ इस दुर्व्यवहार का क्या कारण है? देश की स्थिति एवं परिस्थिति का सर्व प्रमुख कारण राजा होता है। यह बहुत सीमा तक सही है, 'राजा कालस्य कारणम्'। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् जिनके हाथ में सत्ता अधिक समय तक रही, उनके हृदय में हिन्दी के प्रति कोई स्नेह नहीं था। हिन्दी के लिए संविधान में लिखित अपने कर्तव्यों के प्रति कोई चिंता और सावधानी नहीं थी। संदेह होता है कि उन्हांेने हिन्दी को अप्रचलित करने की मानसिकता से संचार-माध्यमों को अनौपचारिक, परन्तु आधिकारिक निर्देश दिये कि हिन्दी कार्यक्रमों में अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों को अधिकाधिक डाला जाए। प्रतीत होता है कि इसके लिए उर्दू का शिक्षण-प्रशिक्षण भी दिया गया होगा ताकि उर्दू शब्दों में नुक्त: (बिंदु) का सही प्रयोग हो। लोकतंत्र में देश की दशा और दिशा के लिए न केवल शासक ही क्षमता और उत्तरदायित्व रखता है बल्कि जनता भी रखती है। इसलिए हिन्दी के प्रति अनाचार के लिए क्या हिन्दी के लेखक, हिन्दी के सभी अध्यापक और हिन्दी के सभी प्रेमी अपराधी नहीं हैं? क्या उनका यह दायित्व नहीं बनता था कि हिन्दी की इस अवमानना एवं अवमूल्यन का प्रबल विरोध करते? क्या वे हिन्दी को संरक्षण देने के लिए आंदोलन नहीं कर सकते थे?
अब कालचक्र बहुत सरलता से हिन्दी के पक्ष में चल सकता है। सत्ता में हिन्दी से सद्भावना रखने वाले लोग हैं। हिन्दी के लेखकों, शिक्षकों आदि हिन्दी प्रेमियों को दूरदर्शन के वर्तमान चलन के विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 351 मे दिये गए अपने कर्तव्य के पालन में केंद्रीय सरकार को जनमानस का आधार मिलेगा। हमारा मन्तव्य अंग्रेजी और उर्दू भाषाओं का विरोध करना नहीं है, बल्कि हिन्दी के विरोध का विरोध करना है। अंग्रेजी इतनी सशक्त है कि उसे हिन्दी संचार-माध्यम के सहारे की कोई आवश्यकता नहीं और उर्दू का विकास हिन्दी को स्थानापन्न करके नहीं हो सकता। इससे तो दोनों भाषाओं का स्वरूप बिगड़ जाएगा। उर्दू का विकास तो उर्दू के संचार-माध्यमों के द्वारा ही सम्भव है। -डॅा. रमेश चन्द्र नागपाल

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