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.मनुष्य-जाति के इतिहास में उस परम निगूढ़ तत्व के संबंध में जितने भी तर्क हो सकते हैं, सब अर्जुन ने उठाए -और शाश्वत में लीन हो गए व्यक्ति से जितने उत्तर आ सकते हैं, वे सभी कृष्ण ने दिए। इसलिए गीता अनूठी है। वह सार-संचय है। वह मनुष्य की जिज्ञासा, खोज, उपलब्धि, सभी का नवनीत है। उसमें सारे खोजियों का सार अर्जुन है -और सारे खोज लेने वालों का सार कृष्ण हैं।
ओशो
शस्त्र की ऊंची से ऊंची ऊंचाई मनस है। शब्द की ऊंची से ऊंची संभावना मनस है। अभिव्यक्ति की आखिरी सीमा मनस है। जहां तक मन है, वहां तक प्रकट हो सकता है। जहां मन नहीं है, वहां सब अप्रकट रह जाता है। गीता ऐसा मनोविज्ञान है, जो मन के पार इशारा करता है। लेकिन है मनोविज्ञान ही। अध्यात्म-शास्त्र उसे मैं नहीं कहूंगा। और इसलिए नहीं कि कोई और अध्यात्म-शास्त्र है। कहीं कोई शास्त्र अध्यात्म का नहीं है। अध्यात्म की घोषणा ही यही है कि शास्त्र में संभव नहीं है मेरा होना, शब्द में मैं नहीं समाऊंगा, किसी बुद्धि की सीमा-रेखा में मुझे नहीं बांधा जा सकता। जो सब सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है, और सब शब्दों को व्यर्थ कर जाता है,और सब अभिव्यक्तियों को शून्य कर जाता है- वैसी जो अनुभूति है, उसका नाम अध्यात्म है। अर्जुन खोजती हुई मनुष्यता का प्रतीक है।
अर्जुन पूछ रहा है-और पूछना किसी दार्शनिक का पूछना नहीं है। पूछना ऐसा नहीं कि घर में बैठे विश्राम कर रहे हैं और गपशप कर रहे हैं। यह पूछना कोई कुतूहल नहीं है; जीवन दांव पर लगा है। युद्ध के मैदान में खड़ा है। युद्ध के मैदान में बहुत कम लोग पूछते हैं, इसलिए तो गीता अनूठी किताब है।
वेद हैं, उपनिषद हैं, बाइबिल है, कुरान है; बड़ी अनूठी किताबें हैं दुनिया में, लेकिन गीता बेजोड़ है। उपनिषद पैदा हुए ऋषियों के एकांत कुटीरों में, उपवनों में, वनों में। जंगलों में ऋषियों के पास बैठे हैं उनके शिष्य,लेकिन गीता अनूठी है; युद्ध के मैदान में पैदा हुई है। किसी शिष्य ने किसी गुरु से नहीं पूछा है; किसी शिष्य ने गुरु की एकांत कुटी में बैठकर जिज्ञासा नहीं की है। युद्ध की सघन घड़ी में, जहां जीवन और मौत दांव पर लगे हैं, वहां अर्जुन ने कृष्ण से पूछा है। यह दांव बड़ा महत्वपूर्ण है। और जब तक तुम्हारा भी जीवन दांव पर न लगा हो अर्जुन जैसा, तब तक तुम कृष्ण का उत्तर न पा सकोगे।
कृष्ण का उत्तर अर्जुन ही पा सकता है। गीता बहुत लोग पढ़ते हैं, परन्तु कृष्ण का उत्तर उन्हें मिलता नहीं क्योंकि कृष्ण का उत्तर पाने के लिए अर्जुन की चेतना चाहिए।
इसलिए मैं नहीं चाहता कि मेरे अनुयायी भाग जाएं पहाड़ों में। जीवन के युद्ध में ही खड़े रहें, जहां सब दांव पर लगा है; भगोड़ापन न दिखाएं, पलायन न करें; जीवन से पीठ न मोड़ें; आमने-सामने खड़े रहें। और उस जीवन के संघर्ष में ही उठने दें जिज्ञासा को। और युद्ध है। तुम जहां भी हो- बाजार में, दुकान में, दफ्तर में, घर में- युद्ध है। प्रतिपल युद्ध चल रहा है, अपनों से ही चल रहा है। इसलिए कथा बड़ी मधुर है कि उस तरफ भी, अर्जुन के विरोध में जो खड़े हैं, वे भी अपने ही लोग हैं, भाई हैं, चचेरे भाई हैं, मित्र हैं, सहपाठी हैं, संबंधी हैं।
अपनों से ही युद्ध हो रहा है। पराया तो यहां कोई है ही नहीं। पराए होते, कठिनाई न थी; दुश्मन होते, कठिनाई न थी। कृष्ण का प्रयोजन क्या है? वे क्यों समझा रहे हैं कि तू रुक; भाग मत! क्योंकि जो भाग गया स्थिति से, वह कभी भी स्थिति के ऊपर नहीं उठ पाता। जो परिस्थिति से पीठ कर गया, वह हार गया। भगोड़ा यानी हारा हुआ। जीवन ने एक अवसर दिया है पार होने का, अतिक्रमण करने का। अगर तुम भाग गए, तो तुम अवसर खो दोगे। भागो मत, जागो। भागो मत, रुको। ज्यादा जागरूक, ज्यादा सचेतन बनो। ज्यादा जीवंत बनो; ज्यादा ऊर्जावान बनो। ज्यादा विवेक, ज्यादा भीतर की मेधा उठे। तुम्हारी मेधा इतनी हो जाए कि समस्याएं नीचे छूट जाएं।
कर्म और अकर्म
कर्म क्या है और अकर्म क्या है, बुद्धिमान व्यक्ति भी निर्णय नहीं कर पाते हैं। कृष्ण कहते हैं, वह गूढ़ तत्व मैं तुझसे कहूंगा, जिसे जानकर व्यक्ति मुक्त हो जाता है।
अजीब-सी लगेगी यह बात; क्योंकि कर्म क्या है और अकर्म क्या है, यह तो मूढ़जन भी जानते हैं। कृष्ण कहते हैं, कर्म क्या है और अकर्म क्या है, यह बुद्धिमानजन भी नहीं जानते हैं।
हम सभी को यह लगता है कि हम जानते हैं, क्या है कर्म और क्या कर्म नहीं है। कर्म और अकर्म को हम सभी जानते हुए मालूम पड़ते हैं। लेकिन कृष्ण कहते हैं कि बुद्धिमानजन भी तय नहीं कर पाते हैं कि क्या कर्म है और क्या अकर्म है। गूढ़ है यह तत्व,तो फिर पुनर्विचार करना जरूरी है। हम जिसे कर्म समझते हैं, वह कर्म नहीं होगा; हम जिसे अकर्म समझते हैं, वह अकर्म नहीं होगा।
हम किसे कर्म समझते हैं? हम प्रतिकर्म को कर्म समझे हुए हैं, प्रतिक्रिया को क्रिया समझे हुए हैं। किसी ने गाली दी आपको, और आपने भी उत्तर में गाली दी। आप जो गाली दे रहे हैं, वह कर्म न हुआ; वह प्रतिकर्म हुआ, प्रतिक्रिया हुई। किसी ने प्रशंसा की, और आप मुस्कुराए, आनंदित हुए; वह आनंदित होना कर्म न हुआ; प्रतिकर्म हुआ, प्रतिक्रिया हुई।
आपने कभी कोई कर्म किया है या प्रतिकर्म ही किए हैं?
चौबीस घंटे, जन्म से लेकर मृत्यु तक, हम प्रतिकर्म ही करते हैं; हम प्रतिक्रिया ही करते हैं। हमारा सब करना हमारे भीतर से सहज-जात नहीं होता, स्वत:स्फूर्त नहीं होता। हमारा सब करना हमसे बाहर से उत्पादित होता है, बाहर से पैदा किया गया होता है। किसी ने धक्का दिया, तो क्रोध आ जाता है। किसी ने फूलमालाएं पहनाईं, तो अहंकार खड़ा हो जाता है। किसी ने गाली दी, तो गाली निकल आती है। किसी ने प्रेम के शब्द कहे, तो गदगद हो प्रेम बहने लगता है। लेकिन ये सब प्रतिकर्म हैं। ये प्रतिकर्म वैसे ही हैं, जैसे बटन दबाया और बिजली का बल्ब जल गया; बटन बुझाया और बिजली का बल्ब बुझ गया। बिजली का बल्ब भी सोचता होगा कि मैं कर्म करता हूं जलने का, बुझने का। लेकिन बिजली का बल्ब जलने-बुझने का कर्म नहीं करता है। कर्म उससे कराए जाते हैं। बटन दबता है, तो उसे जलना पड़ता है। बटन बुझता है, तो उसे बुझना पड़ता है। यह उसकी स्वेच्छा नहीं है।
प्रस्तुति : अजय विद्युत
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