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विवेक शुक्ला
कच्चे तेल के दामों का विश्व बाजार में लगातार गिरने का सिलसिला जारी है। दाम कब तक गिरेंगे? इससे भारत को क्या लाभ होगा या हो रहा है? क्यों गिर रहे हैं दाम? ये सब अहम सवाल हैं। कच्चे तेल की कीमतों में लगातार गिरावट जारी है। पिछले कुछ दिनों से कच्चा तेल 80 डॉलर प्रति बैरल के नीचे ही कारोबार कर रहा है। इससे घरेलू मोर्चे पर कई तरह की राहत मिल रही है। महंगाई घट रही है।
घटेगा आयात खर्च
कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट से भारत के आयात खर्च में कमी आएगी और सरकार पर सरकारी छूट का बोझ भी कम होगा। इसके अलावा कच्चे तेल के सस्ते होने से देश की पेंट, प्लास्टिक, खाद और जहाज कंपनियों को फायदा होगा। एक बात समझ लेनी चाहिए कि भारत कच्चे तेल का तीसरा सबसे बड़ा आयातक देश है, कोयला आयात करने में भी वह तीसरे स्थान पर है और प्राकृतिक गैस का पांचवां या छठा सबसे बड़ा आयातक देश है। कुल मिलाकर वह ऊर्जा का चौथा सबसे बड़ा आयातक देश है। इसलिए तेल की कीमतों के बारे में आ रही खबरों से सबसे ज्यादा लाभान्वित होने वाले देशों में भारत भी है।
कम होता आयात खर्च
देश का शुद्ध ऊर्जा आयात, उसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 6 फीसदी से भी अधिक है, जिसमें मुख्य हिस्सेदारी तेल की ही है। पिछले छह महीनों के दौरान ऊर्जा कीमतों में तकरीबन 40 फीसद की कटौती से पूरे वित्त वर्ष के दौरान देश के शुद्ध आयात बिल में 3़2 लाख करोड़ रुपये के बराबर कमी आएगी। अगर तेल की कीमतें 72 डॉलर प्रति बैरल के अपने नए स्तर पर टिकती हैं या और नीचे जाती हैं, जैसा कि बड़े तेल निर्यातकों को लगता है कि वे जाएंगी, तो भारत अगले वर्ष बेहतर हालत में ही रहेगा।
चीन-जापान में ढीला पड़ता विकास
दरअसल माना जा रहा है कि एशियाई अर्थव्यवस्थाओ- खासकर चीन और जापान का आर्थिक विकास कुछ थमता दिख रहा है, इसीलिए वहां से तेल की मांग में कमी होती नजर आ रही है और इसी के चलते तेल के दाम कम हो रहे हैं। ऐसे में क्या यह शुभ संकेत है?
भारत के लिए तो अभी सब कुछ अच्छा दिखाई दे रहा है। तेल के दाम गिरने से महंगाई कम होगी और लोगों का बचा पैसा बाजार में आएगा। मगर यदि दाम गिरना अंतरराष्ट्रीय मंदी का लक्षण है तो इसका असर आज नहीं तो कल, भारत पर भी पड़ना है।
अहम रोल 'ओपेक' का
पहले बता दें कि कच्चे तेल के अन्तरराष्ट्रीय उत्पाद में 'ओपेक' देशों की 40 फीसद, उत्तरी अमरीका की 17 फीसद, रूस की 13 फीसद, चीन की 5 फीसद, दक्षिण अमरीका की 5 फीसद और अन्य की 20 फीसद हिस्सेदारी है।
भारत कच्चे तेल के अपने आयात का 20़2 फीसद सऊदी अरब से, 13 फीसद इराक से, 10़8 फीसद कुवैत से, 8.6 फीसद नाइजीरिया से, 7.4 फीसद यूएई से, 5़8 फीसद ईरान हासिल करता है। अन्तरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव मांग और आपूर्ति आधार पर तय होते हैं, जिसमें 'ओपेक' की बड़ी भूमिका होती है। चीन की मांग पहले जैसी रफ्तार से नहीं बढ़ने की वजह से कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट हो रही है। 2010 में चीन की मांग में 12 फीसद की बढ़त हुई थी जबकि इस वर्ष चीन की मांग में कोई बढ़त नहीं हुई है।
तेल कंपनियों को लाभ
कच्चे तेल में नरमी से वित्त वर्ष 2015 में तेल कंपनियों की 'अंडर रिकवरी' 40 फीसद घटने का अनुमान है। क्या होती 'अंडर रिकवरी'? तेल वितरण कंपनियां इंडियन ऑयल कार्पोरेशन, हिंदुस्तान पेट्रोलियम और भारत पेट्रोलियम सब्सिडी के कारण बाजार कीमत से काफी कम पर बिक्री करती हैं। नियंत्रित कीमत और बाजार कीमत के बीच के फासले को 'अंडर-रिकवरी' या राजस्व नुकसान कहा जाता है। वित्त वर्ष 2015 में यह नुकसान 83़5 हजार करोड़ रुपये रहेगा। वित्तवर्ष 2016 में 66 हजार करोड़ रुपये रहेगा।
कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट से एचपीसीएल, बीपीसीएल और आईओसी को बड़ा फायदा होगा। इसके साथ ही भारत जैसे देशों के लिए कच्चे तेल में आगे आने वाले उछाल से निपटने की तैयारी करने का सुनहरा मौका है। आने वाले समय में कच्चा तेल तो उपलब्ध होगा लेकिन सस्ते कच्चे तेल का जमाना खत्म हो चुका है। अगर कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई तो 2015 तक कच्चे तेल की कीमत 80-85 डॉलर प्रति बैरल रहने का अनुमान है।
स्थिरता रहेगी
एक राय यह भी है कि कच्चे तेल की कीमतें 80 डॉलर प्रति बैरल के नीचे जाना दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत नहीं है। उनके मुताबिक कच्चे तेल की कीमतों के 80-90 डॉलर प्रति बैरल रहने से विश्व के ज्यादातर हिस्सों में स्थिरता बनी रहेगी। पिछले एक दशक में, जब तेल की कीमतें आसमान पर थीं तब सरकार को पेट्रो उत्पादों की कीमतों को कम रखने और बेलगाम महंगाई को काबू में करने के लिए कच्चे तेल और पेट्रोलियम उत्पादों पर केंद्रीय करों को कम रखने पर मजबूर होना पड़ा था।
सबसे कम कर
फिलहाल पेट्रोल और डीजल उन वस्तुओं में शामिल हैं, जिन पर देश में सबसे कम कर हैं। कच्चे तेल पर कोई सीमा शुल्क नहीं है और बिना ब्रांड वाले पेट्रोल और डीजल पर प्रति लीटर 3 रुपये से भी कम उत्पाद शुल्क है। राज्य सरकारें जरूर इस पर शुल्क लगाती हैं लेकिन वित मंत्री अरुण जेटली के लिए यह सीमा शुल्क लगाने का बढि़या मौका है।
दस फीसदी का कर लगभग 60,000 करोड़ रुपये का राजस्व देगा, जिससे केरोसिन और रसोई गैस पर सरकारी छूट की क्षतिपूर्ति हो जाएगी। सरकारी छूट में कमी और राजस्व में बढ़ोतरी के मेल से राजकोषीय घाटे में एक फीसद की कटौती की जा सकती है, अगर कभी ऐसा हो पाया तो यह एक बड़ी सौगात होगी। शुल्क में बढ़ोतरी को तेल की गिरती कीमतों के साथ समायोजित किया जा सकता है, जिससे मुद्रास्फीति के फिर सिर उठाने का खतरा नहीं रह जाएगा। उपभोक्ताओं के लिए पहले ही पेट्रोल की कीमतें 10 रुपये प्रति लीटर तक कम हो गई हैं, यहां तक कि डीजल के दाम भी घट गए हैं।
बेशक सस्ते तेल की वजह से दशकभर में मिले इस मौके को व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए और इसके जरिये सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की कोई इच्छा नहीं होनी चाहिए। खासतौर से तब जब एक वर्ग के तौर पर उपभोक्ता बेहतर वृहद आर्थिक आंकड़ों से लाभ उठाने पर अडिग हैं।
रुपये को बनाएं प्रतिस्पर्धी
रुपये की विनिमय दर के बारे में बात करें तो अगर प्रधानमंत्री मोदी 'मेक इन इंडिया' को लेकर गंभीर हैं और दुनिया भर में भारत में बना सामान बेचना चाहते हैं तो उन्हें रुपये को प्रतिस्पर्धी बनाए रखना होगा।
इसके लिए रिजर्व बैंक को वही करना होगा, जो उसने 2000 के दशक के मध्य में किया था, यानी अधिक से अधिक डॉलर खरीदकर विदेशी मुद्रा भंडार को भरना चाहिए। फिलहाल विदेशी मुद्रा भंडार 300 अरब डॉलर से कुछ अधिक है, जिसके बारे में अधिकांश विश्लेषकों की यही राय है कि यह स्तर 400 अरब डॉलर होना चाहिए। यह फौरन हासिल नहीं किया जा सकता लेकिन उस लक्ष्य की दिशा में कदम बढ़ाने के लिहाज से यह अच्छा वक्त है।
चाहत भारत की
बहरहाल कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कच्चे तेल की कीमतों में कमी से देश को चौतरफा लाभ हो रहा है। भारत तो चाहेगा कि विश्व बाजार में कच्चे तेल के दाम कभी बहुत न बढं़े। कारण यह है कि हम तो अब भी कमोबेश बहुत बड़े स्तर पर अपनी जरूरत के लिए ईंधन को खरीदते हैं। इस सारी प्रक्रिया में बहुत बड़ा खर्च देश को करना होता है। ल्ल
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