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वृहद् इस्रायल की स्थापना
मुजफ्फर हुसैन
विश्व पटल पर इन दिनों जो घटनाएं घट रही हैं उन में दाइश की भूमिका ने विश्व शांति के चाहकों के सामने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या 2015 तृतीय महायुद्ध का वर्ष होगा? मुस्लिम राष्ट्रों से लेकर ईसाई जगत तक अब इस मुद्दे पर विचार करने लगे हैं कि बंदर के हाथ में जो उस्तरा आ गया है उसका परिणाम अत्यंत भयानक होने वाला है। पिछले दिनों अनेक देशों में विशेषकर राष्ट्र संघ जैसी विशाल संस्था ने अपने अनेक कार्यक्रमों में इस बात को बार-बार दोहराया था कि कुछ भी हो जाए अब कोई अन्य महायुद्ध नहीं होने देंगे, लेकिन फिर भी इतिहास साक्षी है कि दूसरा महायुद्ध होकर रहा। उसकी समाप्ति हीरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए एटम और हार्डड्रोजन बम के बाद हुई। उस विनाशलीला के बाद समझदार इंसानों ने इस वचन को फिर से दोहराया कि अब युद्ध नहीं होने दंेगे, लेकिन इसके बावजूद पिछले दिनों मध्यपूर्व में जो घटनाएं घटीं- उनसे लगता है कि महायुद्ध तो एक बार फिर से होकर ही रहेगा।
पिछले 60 वर्षों में अनेक बार यह देखने को मिला कि महायुद्ध अब छिड़े और अब छिड़े लेकिन समझदार देशों के नेताओं ने अपने प्रयासों से अनेक बार बचाने की कोशिश की। लेकिन पिछल दिनों खतरनाक आतंकवादी संस्था दाइस (दौलते इस्लामिया, इराक शाम) ने सीधे-सीधे इस संघर्ष का नेतृत्व करते हुए दो टूक शब्दों में यह दर्शा दिया है कि उसका एकमात्र उद्देश्य इस्लाम का झंडा सारी दुनिया पर फहराने का है। अपने शब्दों को व्यावहारिक रूप देते हुए ऐसा उत्पात मचाया कि दुनिया सोचने पर मजबूर हो गई है कि जब तक इस नाग का फन नहीं कुचला जाता है दुनिया इसमें उलझ गई है। इसलिए हर कोने में तीसरे महायुद्ध की आहट महसूस की जा रही है। वास्तविकता तो यह है कि जिसे कुछ समय पूर्व अरब वसंत की उपमा दी जाती थी वह ट्यूनिश में केवल एक चिंगारी थी। जब वह फैली तो उसने उत्तरी अफ्रीका से लेकर मध्य-पूर्व तक के भाग को अपनी चपेट में ले लिया। जब वह सीरिया पहुंची तो लगा था कि वह तत्कालीन बशीरुल असद की सरकार को अपनी चपेट में ले लेगी, लेकिन सरकार की पकड़ राजधानी दमिश्क पर बनी रही। अमरीका और नाटो के देश सीरिया में विद्रोहियों को बराबर सहायता पहुंचाते रहे। इस बीच सीरिया की सेना और अन्य इस्लामी गुटों ने भी इसमें भाग लेना प्रांरभ कर दिया। सीरिया तुर्की से जुड़ा हुआ है इसलिए उसकी सीमाएं शरणार्थियों एवं विद्रोहियों के लिए खोल दी गईं। वहां उनके सैनिक प्रशिक्षण केन्द्र भी शुरू हो गए। लगभग वही स्थिति हो गई जो बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में सोवियत रूस के विरुद्ध पाक-अफगान सीमा पर दिखाई पड़ती थी। लेकिन समय बीतने के साथ बशरुल असद की सरकार को रूस और ईरान की ओर से पूर्ण समर्थन मिलता रहा। इस बीच उत्तरी सीरिया में दाइश नामक संगठन अस्तित्व में आता है। उत्तर से उठा हुआ यह तूफान उत्तरी इराक को भी अपनी चपेट में लेकर अनेक बड़े नगरों पर अधिकार जमा लेता है। अब लोगों में यह विचार पैदा होना स्वाभाविक था कि दाइस किस प्रकार अस्तित्व में आया? उन्हें लगने लगा कि क्या यह सब कुछ इस्रायल करा रहा है। जो मध्य पूर्व में कोई नया खेल खेल सके। ऐसा लगने लगा कि इस्रायल विश्व राजनीति में कोई भूमिका अदा कर सके उसके लिए यह मार्ग प्रशस्त किया जा रहा है उन्हें इस बात की भी शंका होने लगी कि उक्त संस्था उन युवा सुन्नी मुसलमानों की भी हो सकती है जिन्होंने सद्दाम के पश्चात अमरीकी नेतृत्व में इराक में स्थापित होने वाली साम्प्रदायिक सरकार और बशरुल असद के अत्याचारों से संघर्ष करने के लिए इसका निर्माण किया गया हो!
दूसरी ओर दाइस को रोकने के लिए अमरीका के नेतृत्व में स्थानीय अरबों के साथ-साथ विश्व स्तर का एक मोर्चा भी तैयार हो चुका था जिसने दाइश को कुचलने के लिए अपनी रणनीति तैयार कर ली थी। दाइस का अस्तित्व उत्तरी सीरिया में हुआ करता था जो तेजी से बढ़ता चला गया। इतना ही नहीं उक्त संगठन ने अनेक स्थानीय संगठनों से भी हाथ मिला लिया था। इराक के सुन्नी बहुल क्षेत्रों में नूरुल मलिकी की शिया हुकूमत के विरुद्ध भी प्रतिक्रिया प्रारम्भ हो गई थी।
स्थानीय मुसलमान चरणबद्ध तरीके से अपना विरोध दृढ़ता से प्रकट कर रहे थे। दाइस ने उन्हें भी घेर लिया और उन्हें अपने नेता जिसे वे अपना खलीफा कहते थे उसका समर्थन करना प्रारम्भ करवा दिया। बाद में उनसे कहा गया कि वे अपना बलिदान देने के लिए तैयार हो जाएं। इस प्रकार इराक के कुछ स्थानों पर सुन्नी क्षेत्रों में भी सुन्नियों के साथ टकराव प्रारम्भ हो गया। सीरिया में बशरुल असद की अत्याचारी सरकार के विरुद्ध जो क्रांतिकारी संघर्ष कर रहे थे उन्हें भी एक मोर्चा और मिल गया। इस प्रकार दाइस ने इराक में भयंकर रक्तपात करके सारी दुनिया को हिला दिया।
अब लाख टके का सवाल यह है कि इस कार्रवाई से किसको लाभ हुआ? पता चलता है कि मध्य पूर्व में सीरिया और इराक की सरकार को लाभ हुआ, जबकि मध्यपूर्व से बाहर अमरीका और इस्रायल को इस क्षेत्र में रक्तपात करने का अवसर मिल गया। इसी प्रकार पश्चिमी दुनिया के दो पत्रकारों के गले जिस प्रकार काटे गए उससे पश्चिम को एक बड़ा हथियार मिल गया। उसने दुनिया को यह बतला दिया कि देखो इस्लाम का नाम लेने वाले और उनके लिए काम करने वाले कितने क्रूर होते हैं? इसके पश्चात अमरीका के नेतृत्व में 40 राष्ट्रों का एक गुट बन गया जो इस बात का प्रचार करने लगा कि दुनिया को इस क्रूरता से छुटकारा दिलाना अत्यंत अनिवार्य है। इस रणनीति के कारण अब अमरीका और इस्रायल तेल के इस लबालब क्षेत्र का किस प्रकार लाभ उठाएंगे इस पर विचार करना बहुत कठिन नहीं है। सच बात तो यह है कि अमरीका और उसके साथियों को इस क्षेत्र का भूगोल ही बदल देेने का अवसर मिल गया। इसलिए यह समझना कठिन नहीं है कि जो मुस्लिम राष्ट्र अमरीका के साथ हैं उनके हाथों में कुछ भी नहीं आने वाला है।
अरब देशों का यह निष्कर्ष ठीक ही है कि दाइस की कार्रवाइयों से सर्वाधिक लाभ बशरुल असद को ही मिला है। इसके पश्चात इराक पर जिस सरकार का कब्जा है उसे लाभ मिला है। ऐसा क्यों किया गया और पीछे कौन से चक्र गतिमान हैं इसे समझने के लिए हमारे लिए पहले यह आवश्यक होगा कि अरब वसंत को जन्म देने के पीछे कौन से उद्देश्य थे, उन्हें समझना और जानना अनिवार्य है। पाठकों को याद दिला दें कि उक्त अरब वसंत प्रथम नहीं है बल्कि उसकी प्रथम आवृत्ति 1917 में लॉरेश ऑफ अरबिया के नेतृत्व में सामने आई थी जिसने भारी तबाही मचाई थी। उस समय भी उसका कार्यक्षेत्र यही था। इस बार यह टयूनिश से शुरू हुई जिसने अब तक मध्यपूर्व के अनेक भागों को अपनी चपेट में ले लिया है। उक्त आन्दोलन उस समय प्रारम्भ किया जाता है जब इस क्षेत्र में यहूदी दृष्टिकोण से यहां का कायाकल्प किए जाने पर चिंतन होता है। इसी का परिणाम था कि प्रथम महायुद्ध हुआ और उस्मानी खिलाफत की धज्जियां उड़ा दी गईं।
अरब और अन्य मुस्लिम साम्राज्यों ने जो हुकूमतें कायम की थीं उन्हें तहस-नहस कर देना इसका मुख्य उद्देश्य था। दूसरा महायुद्ध इसकी अगली कड़ी थी उसके उद्देश्य भी वही थे। कुल मिलाकर अरबों के बीच इस्रायल नामक देश की स्थापनी कर दी गई। इस प्रकार मुस्लिम राष्ट्रों की सीमाएं बदलती रहीं और अंतत: यहूदी देश की स्थापना करने में यूरोप और अमरीका यानी ईसाई ताकतों को सफलता मिल गई। अब जो आगे का खेल है उसमें मुस्लिम राष्ट्रों की न केवल राजनीतिक सीमाएं बदलने का खेल है बल्कि उनकी तेल की सम्पत्ति को भी छिन्न-भिन्न करके उन्हें हर तरह से पश्चिमी राष्ट्रों पर निर्भर रहने के लिए मजबूर करना है।
आधुनिक समय में मुस्लिम राष्ट्रों की भूल और गलतियों का विश्लेषण किया जाए तो उनमें सद्दाम हुसैन द्वारा कुवैत पर आक्रमण करना एक ऐतिहासिक त्रुटि मानी जाएगी। यह इस्रायल और अमरीका को आमंत्रित करने की पहली गलती थी। 90 के दशक में जिस समय अमरीका और नाटो संधि के देशों ने इराक पर हमला किया तो बगदाद तक पहुंचकर उन्होंने अपना सहयोग बंद कर दिया था। जब अमरीका को विश्वास हो गया कि सद्दाम की हार निश्चित है तो उसने युद्ध से अपने आप को हटा लिया। अब इराक पर अनेक अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगा दिए गए। जो कुछ शेष था वह 11/9 की घटना ने पूरा कर दिया। इस मुद्दे को लेकर अमरीका अफगानिस्तान में घुस गया। इसके पश्चात इराक पर आणविक हथियारों का आरोप लगाकर उस पर हमला कर दिया। भले ही अमरीका को इस युद्ध में कुछ नहीं मिला हो लेकिन उसने वहां शिया सुन्नी के विवाद का ऐसा बीजारोपण किया कि आज सम्पूर्ण मुस्लिम ब्लॉक इस आग में बुरी तरह से झुलस रहा है।
अमरीका ने शियाओं के हाथों में इराक की सरकार सौंप दी। जिससे लेबनान के हिजबुल्ला सीरिया की बशरुल असद सरकार और ईरान की शिया हुकूमत के कारणों से एक बड़ा खतरा बनकर उनकी गर्दनों पर सवार रहे। मुसलमान इस खेल को समझने के बावजूद अपने शासकों से लाचार थे जिनके सामने शिया सुन्नी सबसे बड़ा मसला था। जिस समय अरब देशों ने सीरिया सरकार का तख्ता उलटने के लिए सीरिया के क्रांतिकारियों की सहायता की तो ईरान और ईरान समर्थक लेबनानी हिजबुल्लाह सीरिया में बशरुल असद की सरकार बचाने के लिए मैदान में कूद पड़े। इस प्रकार यहूदी राजनीति एक बार फिर से मुस्लिमों को लड़ाने में सफल हो गई। बशरूल असद की सरकार को समाप्त करना अमरीका और इस्रायल के लिए इसलिए आवश्यक है क्योंकि भूमध्य सागर के बंदरगाह तक रूस के जंगी बेड़े की पहुंच थी? जिससे इस्रायल के प्रयासों से रूस दूर रहे। अभी यह लड़ाई अधूरी है।
फिलस्तीन के पक्ष में भले ही सारी दुनिया हो जाए लेकिन अमरीका और स्वयं इस्रायल अपना नक्शा तैयार करने के लिए सब कुछ दाव पर लगा सकते हैं। अब इन दोनों को विश्वास हो गया है कि इस्लामी देश जो न केवल बंट रहे हैं बल्कि आपस में ही गुत्थम-गुत्था होकर पिट रहे हैं, वे निश्चित ही उनके उद्देश्य को सफल बनाने में सहायक होंगे। मध्यपूर्व एक बड़े परिवर्तन की दहलीज पर खड़ा है जिसका लाभ केवल और केवल इजरायल को मिलेगा।
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