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देश की मुख्यधारा की राजनीति में जो भूले-भटके इस ओर आ निकले हैं, वे हैं कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी ) के महासचिव प्रकाश करात। वेे 19 नवम्बर को दिल्ली में आयोजित सेन्टर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन्स (सीटू) के कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए बोले, 'उन्हे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सीखना और समझना चाहिए कि किस प्रकार संघ ने जीवन के हर क्षेत्र में अपनी पकड़ बनाई है।'जिन्हें आप अपना दुश्मन मानते हैं उनसे भी सीखने को तैयार रहना बड़ी अच्छी बात है, लेकिन करात की बात सुनकर मन में पहला ख्याल यही आया कि वे ऐसा कर सकेंगे क्या? क्योंकि सीखने के लिए, शुरुआत करने के लिए कोई तो समान आधार होना चाहिए। फिर वामपंथी और संघ, मानो दो अलग-अलग दुनिया की बातें हैं। करात से कहना यही है कि इन असमानताओं में से कुछ पर गौर फरमाएं ।
प्रकाश करात जी! संघ का आधार संस्कृति और साधन व्यक्ति है। आपका आधार राजनीति और साधन सत्ता (किसी भी प्रकार की) है। हिंदुत्व संघ का प्राण है, जो आपको जहर समान लगता है। आपका कहना है कि संघ जीवन के विविध क्षेत्रों में जैसी पकड़ बना रहा है वैसी वामपंथियों को भी बनानी चाहिए। लेकिन क्या आपने कभी ध्यान दिया है कि भारत के विविधता से भरे परिदृश्य में हिंदुत्व ही वह आधार है जिसने संघ के कार्यकर्ताओं को इतना व्यापक फैलाव दिया है। सर्वस्पर्शी हिंदू सोच ही संघ के स्वयंसेवकों को हर स्थान और वातावरण के अनुसार ढलने की लोच और सबको समझने की उदारता देती है, जिसके कारण वे समाज के हर रंग में घुल मिल जाते हैं। जबकि वामपंथी वैमनस्यताओं,वर्गविभेद और काल्पनिक प्रतिशोधों की अंधेरी, संकरी गलियों में फंस जाते हैं। संघ संस्कृति में समस्याओं का समाधान ढूंढता है, आपको संस्कृति सारी समस्याओं की जड़ लगती है। संघ संस्कृति के संरक्षण के प्रयास में लगा है, आप संस्कृति के विरुद्घ वास्तविक और वैचारिक शस्त्र लिए घूमते हैं। भारत समेत सारी दुनिया में वामपंथियों ने स्थानीय संस्कृति को नष्ट करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद, सब कुछ लगाया है और अथक परिश्रम किया है। जहां पर भी कम्युनिस्टों के हाथ सत्ता आई वहां किताबें, मंदिर और संस्कृति के सभी चिन्ह नष्ट कर दिए गए। चीन में लोगों के हाथों से लाओ त्से, कन्फ्यूशियस और बोधिधर्म को छुड़ाकर लाल किताब पकड़ा दी गई। रूस, कम्बोडिया हर जगह कम्युनिस्ट क्रांति की आग में पहली आहुति इतिहास और संस्कृति की ही दी गई। भारत में भी सार्वजनिक जीवन में संस्कृति के हर प्रतीक को मिटाने में वामपंथियों का विशेष उत्साह रहता है। वे शुभ अवसर पर दीप प्रज्वलन का विरोध करते हैं, तिलक का विरोध करते हैं और आस्था का उपहास उड़ाते हैं। वे भारत के मंदिर तो नहीं मिटा सके, लेकिन बाबर और औरंगजेब जैसे मूर्तिभंजकों की विरुदावली जरूर गाते हैं ।
संघ ने स्वामी विवेकानंद के वाक्य को अपना ध्येय बनाकर समाज को ही अपने आराध्य के रूप में स्वीकार किया। समाज के प्रति संघ के अगाध विश्वास का ही सूचक है, कि संघ के कार्यकर्ताओं के बीच बार-बार दोहराया जाता है-हमें समाज में अलग संगठन खड़ा नहीं करना है, बल्कि समाज का संगठन करना है। इतना ही नहीं, संघ के स्वयंसेवकों को प्रेरणा दी जाती है कि उनके द्वारा किए जाने वाले कायोंर् का श्रेय भी समाज का है। इसके विपरीत सारी दुनिया में कम्युनिस्टों ने समाज व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने का काम किया है। कम्बोडिया, वियतनाम, रूस के करोड़ों परिवार कम्युनिस्टों के बलात् श्रमदान अभियानों की बली चढ़ गए और सामाजिक व्यवस्थाएं उलट-पुलट हो गईं। भारत जैसे देशों में, जहां वामपंथियों के हाथ उपरोक्त प्रकार की निरंकुश सत्ता नहीं आ सकी, वहां उन्होने वर्ग-भेद, वर्ग-संघर्ष, नस्लभेद और सांप्रदायिक विद्वेष का आधार बनाकर समाज में विखंडन पैदा किए। वनवासी, आर्य-अनार्य, आर्य-द्रविड़ जैसे कपोल कल्पित विवादों को उठाने और उभारने में वामपंथी ही सबसे आगे रहते हैं। वामपंथियों को हमेशा किसी काल्पनिक शत्रु की आवश्यकता होती है। एक वर्ग को पकड़कर दूसरे के खिलाफ उसे उकसाए बिना वामपंथ जिन्दा नहीं रह सकता। मानव के बारे में हिंदू संस्कृति का दृष्टिकोण है कि वह ईश्वर का अंश है और मानव को सच्चे अथोंर् में सुखी बनाने के लिए भीतरी और बाहरी दोनों प्रकार की समृद्धि आवश्यक है। स्वाभाविक रूप से संघ का भी यही दृष्टिकोण है। इसके विपरीत कम्युनिस्ट मानव को आर्थिक इकाई मात्र मानते हैं। शायद यही कारण है कि स्वयं को वामपंथी कहने वाले अंतत: दामपंथी के रूप में परिणित होते देखे गए हैं। सारी दुनिया ने कम्युनिस्ट तानाशाहों और नेताओं के वैभव और विलासिता से जगमगाते महल देखे हैं, जबकि जनता के खून और पसीने की आखिरी बूंदें तक निचोड़ी जा रही थीं। 19 नवम्बर को प्रकाश करात को संघ के लाखों सेवाकार्य भी इसीलिए याद आए क्योंकि संघ ने समाज के वंचित वर्ग में पैठ बनाई है। स्पष्ट है कि इस कथन के पीछे सेवा का भाव नहीं, ताकत और प्रभाव की लालसा है। पूरी एक सदी का अनुभव है कि कम्युनिस्ट गरीब लोगों के नाम पर राजनीति करते हैं और सत्ता हथियाने के लिए वर्ग भेद और काल्पनिक क्रांति की आग भड़काते हैं। गरीब और वंचित व्यक्ति इस आग का चारा मात्र होता है।
संघ एक राष्ट्रवादी संगठन है। इसके नाम के शुरू में ही राष्ट्र शब्द है। संघ की शाखाओं में प्रतिदिन भारत माता की सामूहिक प्रार्थना होती है। 'भारत माता का परम वैभव', ये वाक्य आप संघ कार्यकर्ताओं के मुंह से अक्सर सुनेंगे। इसके विपरीत कम्युनिज्म का वैचारिक आधार तैयार करने वाले कार्ल मार्क्स का प्रसिद्घ वाक्य है, 'मजदूरों का कोई देश नहीं होता।' आने वाले समय में कम्युनिस्ट इससे भी आगे निकल गए। वे समय-समय पर अपने देश के दुश्मन सिद्ध होते रहे हैं। सत्ता में रहते हुए कम्युनिस्टों ने पश्चिम बंगाल में बच्चों को पढ़ाई जाने वाली पाठ्य-पुस्तकों में अपने राष्ट्रविरोधी सिद्धांतों का जहर घोलने का भरपूर प्रयास किया था। सवार्ेच्च न्यायालय में भी ये मामले आए हैं। 1अगस्त 2002 को सॉलिसिटर जनरल हरीश साल्वे ने न्यायालय के सामने पश्चिम बंगाल के एक विद्यालय का हिंदी भाषा का प्रश्नपत्र प्रस्तुत किया। इस प्रश्नपत्र में छात्रों से इनमें से किसी एक विषय पर निबंध लिखने के लिए कहा गया था-1)राष्ट्रीय एकता और अखंडता झूठे राजनैतिक नारे हैं। 2)भारत में हिंदुओं और हिंदी के लिए कोई जगह नहीं है। 3)पंचवर्षीय योजनाएं एक धोखा हैं। 4) लोकतंत्र एक षड्यंत्र है। 5) क्रांति ही प्रगति का एकमात्र रास्ता है। इसी प्रश्नपत्र में छात्रों को कुछ वाक्यों को संक्षिप्त करने के लिए कहा गया था। वे वाक्य इस प्रकार थे-'नई दिल्ली एक हृदयहीन प्रशासनिक स्थान है, जहां लोगों के चुने हुए प्रतिनिधि नहीं बल्कि जातियों के जंगल से निकले हुए जहरीले सांप रहते हैं।
ऐसी ही वामपंथी प्रेरणाओं का परिणाम है कि जब दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की छात्र परिषद में चीन सरकार द्वारा अरुणाचल प्रदेश को चीन का हिस्सा दिखाए जाने के विरोध में प्रस्ताव लाया गया तोेे वहां बहुमत रखने वाले तीन कम्युनिस्ट छात्र संगठनों एसएफआई (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया-मार्क्सवादी से सम्बद्घ), एआईएसएफ (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया से संबद्ध) और एआईएसए (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया मार्क्सवादी-लेनिनवादी से सम्बद्ध) ने इस प्रस्ताव का विरोध कर उसे खारिज कर दिया।
संघ की स्थापना भारत की स्वतंत्रता और सब प्रकार से उन्नत भारत के निर्माण के लिए शक्ति संग्रह और संस्कार जागरण के उद्देश्य से हुई। संघ संस्थापक डॉ़ हेडगेवार समेत कई प्रमुख कार्यकर्ताओं ने कारावास भोगा, जबकि कम्युनिस्टों ने कभी स्वतंत्रता संग्राम में भाग नहीं लिया। इसके विपरीत वे रूसी तानाशाह स्टालिन के निर्देशों पर देश के साथ द्रोह करते रहे। मई 1941 में कम्युनिस्टों ने घोषित किया कि 'भारत एक राष्ट्र नहीं बल्कि अनेक राष्ट्रों का समूह है'। सितम्बर 1942 में कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति की बैठक में इन तथाकथित राष्ट्रों की घोषणा की गई। ये इस प्रकार हैं-पठान, सिंधी, पंजाबी मुस्लिम, सिख, हिंदुस्थानी, गुजराती, राजस्थानी, असमिया, बंगाली, बिहारी, उडि़या, आंध्र, तमिल, मलयाली, मराठी और बलूची। जब मुस्लिम लीग ने देश के विभाजन की मांग उठाई थी तब संघ ने उसका कड़ा विरोध किया था, जबकि भारत के कम्युनिस्टों ने पाकिस्तान निर्माण को अपना पूरा समर्थन दिया था।
1947 का कबायली हमला हो, 1962 का भारत-चीन युद्ध हो या पाक के साथ लड़े गए अन्य युद्ध, संघ के स्वयंसेवक सेना के जवानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो गए। इसके विपरीत 1962 के चीनी आक्रमण के समय भारतीय कम्युनिस्ट चीन का साथ देते दिखाई पड़े। उन् हे आक्रमणकारी चीनी सेना में 'मुक्तिदाता' दिखाई पड़ने लगे। इतना ही नहीं, युद्घ की उस घड़ी में उन्होंने अपने मजदूर संगठनों का सहारा लेकर रक्षा उत्पादन को ठप करने का भी प्रयास किया। मई 1998 में जब भारत ने पोकरन में परमाणु परीक्षण किया तो भारतीय कम्युनिस्टों ने उसका विरोध किया, लेकिन चीन या रूस के परमाणु कार्यक्रमों पर कभी एक शब्द भी नहीं कहा। वामपंथी अक्सर संघ को 'फासिस्ट' संगठन कहते आए हैं। सत्य यह है कि समय-समय पर सरकारों ने संघ के विरुद्ध द्वेषवश भयंकर दमनचक्र चलाए, जिनमें कम्युनिस्टों ने भी दमनकारी सत्तातंत्र का ही साथ दिया। 1948 और 1975 में अपने विरुद्ध लगाए गए अन्यायपूर्ण प्रतिबंधों का संघ ने अहिंसापूर्ण सत्याग्रह कर विरोध किया। अनेक स्वयंसेवक बलिदान हो गए, परंतु हर बार संघ नेतृत्व ने 'भूल जाओ, माफ करो' यही संदेश दिया है। इसके उलट वामपंथी नेता चारू मजूमदार कहते हैं,'जिसने वर्गशत्रुओं के खून में अपनी उंगली नहीं डुबाई, उसे कम्युनिस्ट नहीं कहा जा सकता।' केरल के पूर्व कम्युनिस्ट सांसद ए़ पी़ अब्दुल्ला कुट्टी ने जनवरी 2014 में खुलासा किया कि माकपा के राज्य सचिव पिनरई विजयन ने पार्टी नेताओं को निर्देश देते हुए कहा था कि केरल के कम्युनिस्टों के हत्या करने के तरीके अनाड़ीपन से भरे हैं। उन्हें 'हत्या के बंगाल मॉडल' को अपनाना चाहिए, जिसमें विरोधी को नमक डालकर जिंदा गाड़ दिया जाता है। बाद में हड्डी भी नहीं बचती। ध्यान रहे यह बात कहने वाला माकपा का प्रदेश स्तर का पदाधिकारी है। संघ के स्वयंसेवक जिन राष्ट्रनायकों का प्रात:स्मरण में श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं, वे कम्युनिस्टों की नजरों में खलनायक रहे हैं। तभी तो वे, उदाहरण के लिए, गांधी जी को 'साम्राज्यवाद का एजेंट'और शिवाजी को 'पहाड़ी लुटेरा' कहते आए हैं। उन्होंने सरदार पटेल को भी फासिस्ट कहा था, आज भी कहते हैं। मजहब के आधार पर भारत के विभाजन का समर्थन करने वाले, हर छोटे-बड़े विवाद में सांप्रदायिक कोण ढूंढने वाले वामपंथी हिंदुत्व जैसे उदार विचार पर संघ के खिलाफ विष-वमन करते हैं। किन-किन बातों की तुलना की जाए करात जी! क्या संघ के स्वयंसेवकों की गुरुदक्षिणा और चाकू-बंदूक की नोंक पर वसूली जाने वाली 'लेवी' की तुलना हो सकती है?
क्या अपना समय, श्रम, धन और रक्त देश को अर्पित करने वालों की तुलना सोवियत रूस और चीन से चंदा लेने वालों से की जा सकती है? कश्मीर प्रश्न, नक्सल समस्या, सीमा पर चीनी सेना का रवैया, इन विषयों पर आप की पार्टी स्पष्टता से बात करने का साहस रखती है क्या? सूचनाओं और विश्लेषण के इस युग में आप अपनी प्रासंगिकता कैसे बनाए रखेंगे? संघ से प्रति माह हजारों युवा जुड़ रहे हैं, जबकि आपकी पार्टी माकपा से गत दो वर्ष में मुट्ठीभर लोग ही जुड़ पाए हैं। उत्तर दे सकेंगे क्या? संघ से सीख सकेंगे क्या? –प्रशांत बाजपेई
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