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'इस विजयादशमी से अगली विजयादशमी तक', इस मासिक स्तंभ के जरिए झांकिए भारतीय इतिहास के कुछ अनुपम नायकों के जीवन में। ऐसे नायक जिनके अनुकरणीय कार्य-व्यवहार ने हमें दिए विजय और गौरव की अनुभूति के स्वर्णिम पल।
प्रशांत बाजपेई
भारत में मैंने एक ऐसा मानव वंश देखा है, जो धरती पर वास करता है, परंतु धरती से बंधकर नहीं रहता। विकसित नगरों में रहता है, परंतु उनके मोह में ठहरे नहीं रहता (अर्थात् निरंतर गतिशील रहता है)। धरा का हर सुख उसके पास है, परंतु वह किसी सुख का दास नहीं है।' आज से दो हजार वर्ष पूर्व ग्रीक दार्शनिक व यात्री अपोलोनियस टायनस ने भारतवासियों की प्रशंसा में ये शब्द कहे। इस कथन में गहरे अर्थ निहित हैं। यह कथन तत्कालीन भारत की आंतरिक- बाह्य संपदा की विपुलता की ओर इशारा कर रहा है। दक्षिण का महान चोल साम्राज्य ऐसा ही एक संदर्भ है। इस दिलचस्प इतिहास में आपको आज प्रचलित अनेक शब्द मिलेंगे। ये शब्द हैं- सुशासन, कला, साहित्य, वास्तु, महाशक्ति, नौसैनिक शक्ति, संचार व्यवस्था, ग्राम स्वराज्य और जनता की आवाज।
हजार साल पुराने चोल साम्राज्य की अनेक विशेषताएं इक्कीसवीं सदी में भारतवासियों का माथा गौरव से ऊंचा करने वाली हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों की ध्वनि आज भी इस महान राज्य के प्रस्तर शिल्पों और अभिलेखों में गूँज रही है। राज्य जनसभाओं के माध्यम से संचालित और शासित होता था। इन सभाओं को 'उर' अथवा सभा कहा जाता था। सभा के सदस्य ग्रामों के जनसामान्य में से चुने जाते थे। ये सदस्य ही अपनी सभा की कार्यकारी परिषद 'आडुगणम्' का चुनाव करते थे। इन सभाओं की कार्यविधि और अधिकार अच्छी तरह परिभाषित थे। इनके अपने कार्य विभाग या उपसमितियां होती थीं। इनके कार्य में हस्तक्षेप का अधिकार सम्राट को भी नहीं होता था।
सभा की ये रचना वैदिक पद्घति पर आधारित दिखती है। सदस्य वर्ष भर के लिए चुने जाते थे। फिर जनता नए सभासद चुनती थी। जिस प्रकार आज हम प्रदेश, जिला, विकासखण्ड आदि इकाइयां देखते हैं, ठीक उसी प्रकार चोल राज्य में मण्डल (प्रदेश), कोट्टम (उपप्रदेश), नाडु (जिला), कुर्रम (ग्राम समूह) तथा ग्रामम् होते थे। कहा जाता है कि जहां-जहां कावेरी नदी की धार मुड़ती थी, वहां-वहां ये राजवंश फैला था।
9 वीं शती से तेरहवीं शती तक चोल साम्राज्य ने सांस्कृतिक, आर्थिक, व्यापारिक और सैन्य मोचार्ें पर अपनी बढ़त बनाए रखी। इस दौरान ये साम्राज्य दक्षिण तथा दक्षिण पूर्वी एशिया की महाशक्ति बना रहा। उनकी नौसेना उन्नत थी। बंगाल की खाड़ी तो चोलों की झील बन गई थी। अत: समुद्री मार्ग से धरती के सुदूर कोनों तक उनके वाणिज्य का विस्तार था। 1077 ई़ में 70 चोल व्यापारियों का मण्डल चोल दूत बनकर चीन गया। वहां इस व्यापारी मण्डल को 81,800 कांस्य मुद्राओं की माला मिली। वास्तव में प्रत्येक वस्तु के बदले एक कांस्य मुद्रा प्रदान की गई थी। राजराजा चोल और उनके पुत्र राजेन्द्र चोल के बारे में प्रसिद्घ है कि हर उगते सूरज के साथ उनके प्रभाव का विस्तार होता था।
चोल राजाओं ने अपने नागरिकों को सुशासन प्रदान किया। नौकरशाही को निरंकुश होने से बचाने के लिए विशेष विभाग बनाए गए थे। जो राजा से सीधे जुड़े होते थे। अधिकारियों के कायोंर् का निरीक्षण होता था। नौकरशाही और ग्राम सभाओं में बेहतरीन तालमेल होता था। अलग क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की विविध सभाएं थीं, जो आपस में मिलकर काम करती थीं। न्याय प्रदान करने का काम ग्राम और नगर सभाओं से होता ही था, साथ ही शासन की अधिकृत न्यायिक व्यवस्था भी थी।
चोल साम्राज्य के योजनाकारों ने कृषि विकास और सिंचाई तंत्र का विकास किया। कुएं, तालाब, बांध और नहरें बनवाईं। राजेन्द्र प्रथम ने गंगैकोड-चोल पुरम् के निकट झील का निर्माण करवाया। इसका बांध 16 मील लंबा था। छायादार वृक्षों से पूर्ण, कुओं और धर्मशालाओं और सुरक्षा व्यवस्था के कारण निरापद भव्य राजमागार्ें पर हर यात्रा यादगार रही होगी। स्त्रियां सामाजिक जीवन में सक्रिय भाग लेती थीं। शिव उपासक चोल राजाओं के राज्य में वैष्णव, बौद्घ और जैन पंथों ने भी उन्नति की। संस्कृत और तमिल साहित्य की रचना हुई। कंबन रामायण और अनेक वैष्णव साहित्य इस काल की देन हैं।
जीवन को खण्ड-खण्ड में न देखकर अखण्ड मण्डलाकार स्वरूप में देखना हमारी जीवन दृष्टि का मूल तत्व है। चोल शासन में हर गांव और नगर में छोटा हो या बड़ा, परंतु एक मंदिर अवश्य होता था। ये मंदिर आध्यात्मिक साधनाओं के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, और लोक संग्रह का केन्द्र भी बने। त्योहारों में ये देव स्थान सामूहिक उपासना और सुंदर आयोजनों का स्वाभाविक स्थान होते थे। सृष्टि के सारे व्यापार को अपनी मुद्रा और भंगिमा में समेटे प्रसन्नचित्त नटराज की कांस्य प्रतिमाएं चोल कलाकारों की कालजयी कथा को हम तक पहुंचा रही हैं।
इस काल की पूरी कथा को पृष्ठों और स्याही के माध्यम से समेटना असंभव है। एक लघु लेख के माध्यम से एक झलक देखना-दिखाना भी अत्यंत कठिन है। मानव जाति की धरोहर बन चुकी यह कथा ऋतुओं के हजार चक्र पूरे कर रही हैं। मार्क ट्वेन ने कहा है कि 'भारत मानवजाति का हिंडोला है।' इस हिंडोले के आनंद की एक झलक पाने के लिए राजराजेश्वर या गंगैकोंडचोलेश्वर जाइये अथवा नटराज को अपलक निहारिए। ल्ल
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