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हम भारत के लोग और हमारी सरकारें किसी न किसी बहाने कोई न कोई दिन मनाने में बहुत विश्वास रखते हैं। ये दिन मनाने से कई छोटे-बड़े नेताओं के भाषण का प्रबंध हो जाता है, एक सुबह जलपान भी अच्छा रहता है और फोटो सेशन तथा कार्यक्रम का तो चोली दामन का संबंध रहता ही है। बाल दिवस से लेकर वृद्घ दिवस तक, युवा दिवस से लेकर महिला दिवस तक सभी, अब राष्ट्रीय नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक मनाए जाते हैं। अभी हमने बुजुर्ग दिवस मनाया है। उस दिन बहुत से कार्यक्रमों का आयोजन हुआ। टीवी के विभिन्न चैनलों द्वारा भी वृद्घों के प्रति सहानुभूति और उनकी पीड़ा के प्रति संवेदना प्रकट की गई। मैं हैरान हूं कि आखिर किस जमाने में हमें यह मंत्र दिया गया है जिसके द्वारा हम ईश्वर से यह मांग करते थे कि जीवेम् शरद: शतम्
अर्थात हम सौ वर्ष तक जीएं लेकिन यह भी सच है कि लंबी आयु के साथ हम भगवान से यह भी मांगते थे कि हमारे शरीर के सभी अंग स्वस्थ रहें तथा आंखों की देखने की तथा कानों की सुनने की शक्ति पूरी तरह बनी रहे। आज ं पूरे देश में एक ही चर्चा है कि भारत युवा देश है। हमारी जनसंख्या का 65 प्रतिशत 15 और 35 वर्ष की आयु के बीच है। हम दुनिया को सहारा दे सकते हैं। विश्व भर के वे देश जो बूढ़े हो गए वे हमारे युवक-युवतियों के कंधों के सहारे पर शेष जीवनयापन कर सकते हैं, वहां प्रश्न यह भी पैदा हो रहा है कि युवक तो हमारे देश में 65 प्रतिशत हैं, पर 60 वर्ष से अधिक आयु वाले वृद्घों की संख्या तो केवल दस करोड़ है अर्थात् पूरी जनसंख्या का अधिक से अधिक 9 प्रतिशत। इसके बावजूद भी संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष ने जो आंकड़े जारी किए हैं वे बेहद कष्टदायक हैं।
दस करोड़ वृद्घों में से 23 प्रतिशत ऐसे हैं जिन्हें अपने परिवार के साथ रहने का सुख प्राप्त नहीं। देश का हर पांचवां बुजुर्ग किसी न किसी तरह की उपेक्षा, अनादर व अपमान का शिकार है। इन उम्रदराज लोगों में से 40 प्रतिशत ऐसे हैं जिन्हें हर रोज अपनों से ही दुर्व्यवहार सहना पड़ता है। रपट में यह भी कहा गया है कि लगभग 61 प्रतिशत वृद्घ ऐसे हैं जिन्हें अपनी-अपनी बहुओं का दुर्व्यवहार सहन करना ही पड़ता है। जबकि बेटों से ऐसा बुरा व्यवहार झेलने वालों का प्रतिशत 59 है।
भारत जैसा देश में सृष्टि के प्रारम्भ में ही यह घोषणा कर दी गई कि माता और पिता धरती पर साक्षात् देवता हैं। देवता ही नहीं अपितु मां को तो मानव का प्रथम गुरु कहा गया। प्रथम देवता और प्रथम गुरु मां की और पिता की अगर आयु वृद्घि के साथ दुर्गति होती है तो इसका सीधा कारण यही है कि हम बच्चों को उनके बचपन में न तो सही संस्कार दे सके और न ही सही शिक्षा। हमारे आदर्श पुरुष जीवन में ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिसको अपनाने के बाद बच्चों द्वारा माता-पिता के तिरस्कार का प्रश्न ही पैदा नहीं होता, पर अफसोस यह है कि उन आदशार्ें के साथ नई पीढ़ी को परिचित करवाने और वही आदर्श जीवन में ढालने का प्रयास ही नहीं किया जाता। भगवान श्रीरामचंद्र जी के लिए तुलसीदास जी ने लिखा है-
प्रातकाल उठि कर रघुनाथा,
मात्-पिता गुरु नावहिं माथा
जब हमारे आदर्श श्रीरामचंद्र जी माता-पिता को सिर नवाकर उनके चरण छूकर अपनी दिनचर्या प्रारम्भ करते हैं तो फिर राम का नाम लेकर जन्म लेने और जीवन यात्रा संपन्न करने की चाह रखने वाले देश के आम जन माता-पिता से कैसे विमुख हो गए, यह चिंतन और चिंता का विषय है। कंधे पर वैहंगी उठाकर नेत्रहीन माता-पिता को तीर्थयात्रा करवाने वाले श्रवण की कहानी भी तो घर-घर में सुनी-सुनाई जाती है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी यही लिखा है-
जिन मात् पिता की सेवा करि,
तिन तीरथ वरत किया न किया
आज देश में साधु-संतों की कथाएं, श्रीमद्भागवत पाठ, तीर्थयात्राएं खूब हो रही हंै। उसके साथ ही परिवार के वृद्घजनों का तिरस्कार भी दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। सामाजिक सुरक्षा और समाज भलाई का दावा करने वाली सरकारें भी इन वृद्घों के लिए कुछ नहीं कर पा रहीं। सरकारी स्तर पर चलाए जाने वाले वृद्घाश्रमों की संख्या बहुत थोड़ी है। यद्यपि समाजसेवी संस्थाओं द्वारा सराहनीय प्रयास किया जा रहा है। पंजाब में भी बुढ़ापा पेंशन के नाम पर केवल 250 रुपये प्रतिमास वृद्घ को दिया जाता है और आज के युग में इतने रुपयों से केवल पच्चीस कप चाय महीने भर में खरीदे जा सकते हैं। यह कौन नहीं जानता कि पेंशन लगवाने के लिए उतना ही प्रयास करना पड़ता है जितना गौरीशंकर की चोटी फतह करने के लिए हमारे बेटे-बेटियों ने किया है। वैसे यह 250 रुपये भी हर महीने मिलने की बात सोचना भी मुंगेरी लाल के सपने जैसा है। यद्यपि हमारा पड़ोसी प्रांत प्रति वृद्घ एक हजार रुपया मासिक देता है, पर यह भी पर्याप्त नहीं। भारत जैसे देश में होना तो यह चाहिए कि जिन वृद्घों का भरा-पूरा परिवार है और वे भी अपने बुजुगार्ें का उत्पीड़न करते हैं उन्हें वृद्घाश्रमों में धक्के खाने के लिए मजबूर करते हैं उनका सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए तथा उनकी निंदा भी समाज ने करनी ही चाहिए।
मैं तो यह मानती हूं कि जिस घर में वृद्घ माता-पिता, दादा-दादी या नाना-नानी उपेक्षित हैं उस घर की बेटी को तो किसी भी परिवार को अपनी बहू नहीं बनाना चाहिए, अन्यथा वह भी अपने माता-पिता के परिवार के कुसंस्कार अपने परिवार में लाकर सास-ससुर के लिए खतरे की घंटी ही हो जाएगी। कितना अच्छा हो कि लोग बच्चों का विवाह संबंध तय करने से पहले संबद्घ परिवारों की आर्थिक स्थिति न देखें, बल्कि यह ध्यान रखें कि उन परिवारों में बड़े-बुजर्गों का कितना मान-सम्मान है और यह विशेष ध्यान रखें कि उस परिवार के किसी वृद्घ को वृद्घाश्रम में तो नहीं धकेला गया? इसके साथ ही जिन वृद्घों के परिवार में कोई संतान नहीं अथवा भयानक आर्थिक संकट है उनके लिए व्यवस्था सबसे पहले सरकारों और साथ ही समाजसेवी संस्थाओं को करनी चाहिए।
देश और प्रदेशों की सरकारों को आगामी वर्षों में यह संतुलन बनाना होगा कि युवा शक्ति को आगे बढ़ने के लिए साधन-संसाधन और उचित शिक्षा देनी है, पर इन नवयुवक-युवतियों को यह भी आदेश-निर्देश देना ही होगा कि वे अपने बड़े बुजुर्गों का सही पालन पोषण और सेवा करें। वैसे ही जैसे उनके माता-पिता ने अपनी जवानी में इन बच्चों का पूरी तरह देखभाल और पालन पोषण किया है।
जो शिक्षित, धन-संपन्न, सरकारी सेवाओं से सेवानिवृत्त वृद्घजन हैं उन्हें भी समाज के कमजोर भाई-बहनों की सेवा-सुविधा के लिए समय और अपने सारे साधन अर्पित करने चाहिएं। इस ढंग से हिंदुस्तान में किसी को भी बुजुर्ग दिवस मनाने और उपेक्षित, उत्पीडि़त वृद्घों की दुर्दशा पर आंसू बहाने तथा आंकड़े गिनाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। – लक्ष्मीकांता चावला
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