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विजयादशमी पर्व पर पूज्य सरसंघचालक जी के उद्बोधन के डी़ डी़ न्यूज पर प्रसारण से कुछ लोगों में डाह पैदा हो गई है। मैंने स्वयं ये भाषण ए़ बी़ पी़ न्यूज, जी़ न्यूज, आज तक, इंडिया टी़ वी़, एऩ डी़ टी़ वी़ पर क्रमश: सुना। क्रमश: का प्रयोग इसलिये कि जब टी़ वी़ खोला तो ए़ बी़ पी़ न्यूज चैनल सामने था। जब उन्होंने ब्रेक की घोषणा की तो मैं अगले चैनल पर चला गया। ऐसा बार-बार हुआ और मैंने बार-बार कूदा-फांदी करते हुए लगभग पूरा उद्बोधन सुन लिया। अब दोपहर भोजन के बाद टी़वी़ खोला तो ए़ बी़ पी़ न्यूज चैनल ही सामने था और बहसों के नाम पर ढीठ वामपंथी, मूढ़मति कांग्रेसी कोलाहल कर रहे थे। संदीप दीक्षित, रागिनी नायक, अतुल अनजान, आशीष खेतान इस प्रकरण पर विलाप कर रहे थे। सिसकियों के बीच-बीच में गांधी के हत्यारों का गांधी जयंती के अवसर पर प्रसारण..हाय हाय़..ग़ांधी वध करने वालों का प्रसारण़.़ हाय हाय़.. गांधी़.़.हाय हाय और फिर घूँघट डाल कर सिसकियाँ़..फिर कैमरे के हिसाब से सही एंगिल बनाकर पछाड़ खाते हुए गिरना़.़ फिर हाय हाय़.़.फिर आर्तनाद़..फिर हू हू हू हू। इसी झोंक में रामचन्द्र गुहा के नाम पर टी़ वी. की बहस में एक स्थाई पट्टी भी आ रही थी। इमाम भी ऐसी मांग कर सकते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि ये प्रश्न किसी इमाम, किसी मुस्लिम संगठन के प्रतिनिधि ने नहीं किया। यह मांग या प्रतिक्रिया किसी मुस्लिम प्रतिनिधि ने नहीं की बल्कि यह प्रतिक्रियात्मक धूर्तता किसी गुहा की ओर से आई। मुस्लिम मानस में इस संभावना को टटोलने का बीजारोपण एक हिन्दू ने किया।
मेरे देखे टी़ वी़ पर किसी इमाम के भाषण पर रोक नहीं है। मुहर्रम की मजलिसें दिखाई जाती ही रही हैं। शामे-गरीबां की महफिल जो परंपरागत रूप से सदैव अंधेरे में पढ़ी जाती है, उसे दूरदर्शन पर दिखाने के लिये ही पहली बार प्रकाश का प्रयोग हुआ है। देवबंदी इज्तमाओं को टी़ वी़ दिखाता ही रहा है। मगर यह सच है किसी इमाम के भाषण का प्रसारण कभी सभ्य चैनल पर नहीं हुआ। सभ्य चैनल से मेरा अभिप्राय उन चैनलों से है जो सामान्य जनजीवन से जुड़े हुए हैं। कई चैनल ऐसे भी हैं जो दिन भर मुल्ला-पार्टी का प्रसारण ही करते हैं। ये चैनल बनाये ही इसी लिये गए हैं। यह मांग बताती है कि राष्ट्रवाद विरोधी राजनीति ढीठ तो थी ही अब निर्लज्ज भी हो गयी है और उसने लज्जा वस्त्र भी उतार फेंके। इस बात को कहने वाले व्यक्ति को इमाम क्या होते हैं और संघ क्या है इसका बिलकुल भी पता नहीं है, या वह परले सिरे का धूर्त है। बिना इस बात की तह में गए कि भागवत जी की कौन सी बात आपत्तिजनक थी, आइये इन दोनों की तुलना की जाए। संघ क्या है इसे जानने का सबसे आसान तरीका उसकी दैनिक प्रार्थना है-
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हिन्दू भूमे सुखम वर्धितोहम
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेषकायो नमस्ते नमस्ते
मैं इन पक्तियों का अर्थ नहीं करूँगा। अगर नहीं आता तो अपने घर की निकटतम शाखा में जाइये और मुख्य शिक्षक से पूछिये। मगर भावार्थ यह है कि अपने राष्ट्र के हित संरक्षण, संवर्द्धन के लिये हम कमर बांधे हुए हैं और जीवन अर्पण करते हैं। किसी गुहा-पुहा को इसमें क्या विरोध हो सकता है। पूरा उद्बोधन राष्ट्र की हित-चिंता, राष्ट्र की अर्थ व्यवस्था कैसे बेहतर हो, देश कैसे विकसित हो, समाज कैसे संस्कारित हो, से भरा हुआ था। सेना में तेईस हजार अधिकारियों की कमी, सामाजिक जीवन मूल्यों का पतन, कुटुंब के लोगों का साथ बैठना और परिवार की चिंता करने जैसे विषय किसी के लिये पेट-दर्द का कारण क्यों और कैसे बन सकते हैं? संघ राष्ट्र-हित सर्वोपरि है, के संस्कार देता है और उसके प्रमुख से सार्वजनिक मंच पर यही अपेक्षा की जा सकती है। इसी कार्य के लिये संघ देश भर में शाखा लगाता है। शाखाओं से तैयार हो कर निकले लोग दुनिया भर के कामों को करते हैं।
आइये देखें की इमाम क्या हैं? अब उनके बारे में भी जाना जाये। इस्लाम के प्रवर्तक मोहम्मद साहब ने इस्लाम को अल्लाह की वाणी बताया जिसे उनके अनुसार जिब्रील नामक देवदूत उन तक लाता था। इस प्रक्रिया में वषोंर् लगे। एक अल्लाह, उसमें कोई सम्मिलित नहीं, मूर्ति-पूजा का विरोध, बहुदेव-वाद का विरोध, मूर्ति-पूजकों का विरोध, मूर्तियों को तोड़ना, अल्लाह का अंतिम दूत मोहम्मद, उसके कुछ विशेष अधिकार जो अन्य मुसलमानों के नहीं, कुरान तथाकथित अल्लाह की अंतिम किताब, सारे मुसलमान इस्लामी भाई, उनके आपसी सम्बन्ध भ्रातृत्वपूर्ण, इसी सन्दर्भ में इस्लाम का अर्थ शांति है अन्यथा अमुस्लिमों के लिये इस्लाम भयानक रूप से घृणापूर्ण है इत्यादि बातें इस्लाम का आधार हैं।
स्पष्ट है ये सारी बातें एक सुगठित जीवन-शैली, उस जीवन शैली के सातत्य के लिये लगातार देख-रेख, बदलाव होने पर रोकने-टोकने की व्यवस्था की मांग करती हैं। इमाम उसी देख-रेख का उपकरण है। जिसकी इमामत में नमाज पढ़ी जाये वह इमाम कहलाता है। इमाम का कार्य मूलत: मस्जिद में नमाज पढ़ाना है। यही इमाम मस्जिद में शुक्रवार के दिन साप्ताहिक खुतबा पढ़ता है। किसी प्रकार की गड़बड़ या दुविधा की स्थिति में जिससे मजहब के सिलसिले में निर्देश लिया जाये उसे मुफ्ती कहते हैं। यह काम सदैव कुरआन, हदीस के अनुसार होते हैं। इन कामों को बढ़ावा देने के लिये मदरसे स्थापित किये गए थे। इनका भारत में प्रारम्भ बाबर ने किया था। अर्थात् इमाम किसी हिन्दू या अन्य धर्मावलम्बी के धर्मान्तरित होने यानी नाम बदलने से लेकर तालिबानी बनाने की प्रक्रिया का निर्देशन, नियमन करने वाला उपकरण है। भारत में यह वैचारिक बदलाव सदियाँ बीत जाने पर भी नहीं हो पाया है। इसका ही विलाप इकबाल, हाली जैसे अनेकों राष्ट्रविरोधियों ने किया है। किसी हिन्दू के मुसलमान बनने को ताजे, मीठे, ठण्डे पानी के कुनकुना होने से गुनगुना होने, खौलने, खदकने से होते हुए भाप बनने तक की यात्रा से समझा जा सकता है। इस्लाम उम्मा की पक्षधर अर्थात् राष्ट्रविरोधी सोच है। सारे संसार के मुसलमानों में भाईचारा बढ़ा कर शेष बचे अमुस्लिम लोगों को मार-पीट कर, धमका कर, लड़कियां भगा कर यानी जैसे बने मुसलमान बनाने का संगठित काम है। किसी मुल्ला द्वारा इस प्रसारण का विरोध को तो समझा जा सकता है कि राष्ट्रवाद मूलत: उम्मा की जड़ों में मट्ठा डालता है अत: उसको तो मिचेंर् लगेंगी मगर संदीप दीक्षित, रागिनी नायक, आशीष खेतान और किसी अनाम गुहा को क्या तकलीफ है? अतुल अनजान तो चलिए साम्यवादी हैं और साम्यवाद भी राष्ट्रीयता की विरोधी सोच है। अत: उनका सुलगना और धुआं देना तो समझ में आता है। मगर इन लोगों को क्या हो गया है?
मेरी अनेकों बार कांग्रेसियों, समाजवादियों, साम्यवादियों से बात हुई है। सभी राष्ट्रवाद को ठीक बताते हैं मगर मुस्लिम वोटों के लालच में सार्वजनिक रूप से अला-बला बोलते हैं। आखिर ये मुलायम सिंह ही थे जिन्होंने सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनाने को यह कह कर समर्थन देने से इंकार कर दिया था कि भारत पर विदेशी मूल का व्यक्ति शासन करने का अधिकारी नहीं है। मुलायम सिंह के साथ के किसी कम्युनिस्ट नेता ने यहां तक कि इनमें सबसे कुटिल सुरजीत सिंह जैसे व्यक्ति तक ने उन पर दबाब नहीं डाला कि सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए समर्थन दो। इमाम के टी़ वी़ पर बुलवाने का मतलब है कि वह नमाज, हज, उम्मा, अलीगढ़ विश्वविद्यालय के मुस्लिम चरित्र, उर्दू जैसे विषयों की बात करेगा। चूँकि उसे और कुछ आता ही नहीं है। न उसने कोई कायदे की पढ़ाई की है, न आधुनिक सोच-समझ उसको छू कर निकली है। वह ऐतिहासिक अँधेरे से घिरी गुफा में पैदा, बड़ा हुआ जीव है। उसने बाहर का प्रकाश देखा ही नहीं है। उसका पक्का विश्वास है कि वह जिस अँधेरे में पला-बढ़ा है, बैठा है वह सही रास्ता है और बाहर जो चमक दिखाई दे रही है वह शैतानी दुनिया है। उसके टी़ वी़ पर बोलने की वकालत वही कर सकता है जो आधुनिकता, विकास, राष्ट्रवाद का विरोधी है और वास्तव में ये लोग हैं।
आप ब्राह्मण सम्मेलन कीजिये और संदीप दीक्षित को बुलाइये। वह तुरंत आने के लिये तैयार हो जायेंग। आप हिन्दू सम्मेलन आयोजित कीजिये और इन्हें बुलाइये तुरंत विरोध में खड़े हो जायेंगे। इन्हें इस बात का दर्द है कि भाजपा ने किसी मुसलमान को चुनाव क्यों नहीं जिताया। उन्हें 125 करोड़ लोगों के विकास की बात समझ में ही नहीं आती कि यह बहुत कठिन और दूरगामी ढंग है।
अब इस हू हू हू हू की असली बदमाशी पर आता हूं। जिन चैनलों पर भाजपा के अल्पसंख्यक विरोधी होने की बहस चल रही थी, वे सब यही चैनल थे जिन्होंने सरसंघचालक जी का उद्बोधन स्वयं दिखाया। इन्हें अपने चैनल द्वारा भागवत जी का बौद्घिक दिखाने में विरोध नहीं है। इस पर बहस चला रहे हैं कि दूरदर्शन को नहीं दिखाना चाहिये। देश में सेकुलरवाद की फसल लहलहाने वाले ऐसे लोग चाहते हैं कि अपने चैनल की नीति तो ये तय करें ही मगर दूरदर्शन भी इनके हिसाब से ही काम करे। किसी चैनल पर बहस तुरंत नहीं हो जाती। उसकी दिनों पहले योजना बनानी पड़ती है। योजना के अनुसार बहस में भाग लेने वाले वक्ता विषय दे कर बुलाये जाते हैं। इस बहस के लिये पूर्वनिर्धारित कार्यक्रमों में से समय निकाला जाता है। यह काम उद्बोधन दिखाने के साथ ही तब तक शुरू नहीं हो सकता जब तक उद्बोधन से पहले ही इसकी रचना न बना ली गयी हो। यह वही बात हुई मेरी बेटी करे तो प्रेम और तेरी बेटी करे तो व्यभिचार। -तुफैल चतुर्वेदी, दूरभाष: 9711296239
संघ विरोधियों की प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी क्योंकि संघ की विचारधारा और कार्यसूची के विषय में लोगों को सीधा पता लग रहा है, इससे लोगों के बीच में उनके संघ विरोधी झूठ और तथाकथित सेकुलरवाद की पोल खुल रही थी। रामचन्द्र गुहा और कांग्रेसियों समेत वामपंथियों के लिए भी यह अच्छा रहता कि दूरदर्शन की नयूज ईवेन्ट के कवरेज के बजाय वे भाषण पर चर्चा करते। वे वहां गलतियां ढूंढने में असमर्थ हैं, देश संघ के चरित्र को वर्षोंसे जानता है और सरसंघचालक के इस सार्वजनिक भाषण के घर-घर पहुंचने से लोगों का संघ की राष्ट्रवादी भूमिका पर विश्वास और सुदृढ़ हो गया है।
— प्रो. राजवीर शर्मा, शिक्षाविद्, दिल्ली विश्वविद्यालय
इस नग्न बहुसंख्यकवाद का विरोध होना चाहिए। दूरदर्शन पर यह सीधा प्रसारण सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग है। आर.एस.एस. एक साम्प्रदायिक हिन्दू इकाई है। अगली बार इमाम और मुफ्ती कह सकते हैं कि दूरदर्शन पर हमारा सीधा प्रसारण दिखाओ।
— रामचन्द्र गुहा, गांधीवादी इतिहासकार
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