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मुंह में घूमती जुबान, हाथ में फिरती माला और चहुंदिश घूमता मन हो तो सारे धर्माचार बेकार हैं। आज धर्म को सिर्फ बाहरी आचरण, दिखावा, स्टेटस सिंबल, रोजगार का साधन और राज का मुद्दा बनते हुए देखकर उपनिषद् का ह्यधर्मं चरह्ण और धारणाद् धर्ममित्याहु:ह्ण के उद्घोष दिमाग में हलचल मचा रहे हैं। मन, बुद्धि, चित्त में उतारने, मनन धारण पालन के उपरान्त ही धर्म बाहरी स्तर पर कहीं महसूस हो, इसके बजाए आज बिकाऊ कमाऊ सबसे पहले होने लगा है। वास्तव में धर्म हमें सबसे पहले अच्छा इंसान बनाने की प्रक्रिया का नाम है। तभी तो जगदीश स्वयं मानव बनकर इसे महनीय कर देते हैं। क्या दानव, यक्षादि योनि में भी प्रभु या तीर्थंकर होते हैं? यह जिज्ञासा भी सहज ही है। इस कारण आज नवरात्र पर्व को व्यक्ति के लिहाज से समझने की तमन्ना बलवती हो चली है।
ह्यज्योत्स्नायै चेन्दु रूपिण्यैह्ण : यानी माता का रूप देवीसूक्त में कभी रौद्र है तो अगले ही पल चांद की चांदनी सा शीतल सुखदायक होता है। उसी माता में यह सारा जगत् प्रतिष्ठित है। आदमी और औरत के सही स्वस्थ और कल्याणकारक रिश्ते वास्तव में मातृत्व पाकर कृतार्थ होने में ही हैं। नवरात्र का पहला सबक यही है कि पूत कपूत भले बन जाए मां मातृत्व नहीं खोती है।
बुद्धिरूपेण संस्थिता : चेतना रूप में सबके भीतर बसने वाली यह शक्ति सबसे पहले बुद्धि रूप में प्रकट होती है। यदि बुद्धि ठिकाने पर है, आपकी सोच स्वच्छ और गांठ घुमाव छलावे से रहित है तो सब दुख आखिर में सुख देकर ही जाएंगे। शंख और बांसुरी दोनों में अपनी आवाज या सुर नहीं हैं। उन्हें कोई और ही बुलवाता है। लेकिन भीतर से घुमावों से भरा शंख सिर्फ सीधी सपाट आवाज ही निकाल सकता है, जबकि सूखी गांठांे वाले भीतर से खुरदरे बांस की बांसुरी से मीठे, सुरीले, मनमोहक सुर निकलते हैं। कारण, बांस ने बांसुरी बनने की प्रक्रिया में अपनी सारी भीतरी गांठें, घुमाव, छल छिद्र दुराव छिपाव त्याग कर अपना भीतरी हिस्सा चिकना, सरल सीधा बना लिया है। ह्यजहं सुमति तहं सम्मति नानाह्ण अर्थात् उत्तम बुद्धि से अच्छे विचार, अच्छे आचरण और अच्छे फल ही आखिरकार मिलते हैं।
कान्तिरूपेण संस्थिता : अर्थात् क्रमश: मन और विचार शुद्ध, सरल, ममतामय हैं तो निद्रा, भूख, प्यास आदि सारी बाहरी क्रियाएं नियमित होकर यह सारी दुनिया आपको प्यारी लगने लगेगी और आपके चेहरे पर ओज और दैवीय तेज की कान्ति खुद-ब-खुद आ जाएगी। इसीलिए देवीसूक्त के 10-19 श्लोकों में क्रमश: नींद, भूख, प्यास, शोभा, आदि रूप में ही देवी को नमस्कार करते हुए 20वें श्लोक में उन्हें कान्तिरूपा माना है।
लक्ष्मी रूपेण संस्थिता : रूप के माध्यम से ऋषि मार्कण्डेय (सप्तशती के प्रवक्ता) हमें यही पाठ पढ़ाते हैं कि उक्त सारी बातें हम अपने भीतर पैदा करने की ईमानदार कोशिश करें तो देवी हमारे भीतर और बाहर लक्ष्मी रूप में विराजमान हो जाएंगी। ऐसे व्यक्ति के पास दुनियादारी के नजरिए से बेशक कम नगदनारायण हो, पर वे लोग जहां खुशी से रहें, जाएं या बैठें, वहां लक्ष्मी का निवास होता है।
वृत्तिरूपेण संस्थिता : यानी नवरात्र का पांचवां सबक यही है कि अपनी रोजी, रोटी, व्यवसाय व्यापार को पूजा, इबादत, व्रत तपस्या का दर्जा देना चाहिए। जो लोग अपने पेशे के साथ पूरी लगन और ईमानदारी के साथ बर्ताव करते हैं, वे बिन भौतिक पूजा अर्चन व्रत पूरा फल पा जाते हैं। वे कृष्ण भगवान् के वचन से ह्ययोग: कर्मसु कौशलम्ह्ण के अनुसार सच्चे योगी की तरह पूजनीय आदरणीय बन जाते हैं।
स्मृतिरूपेण संस्थिता : के द्वारा अगले ही श्लोकमन्त्र में हमें हिदायत दी गई है कि सम्पर्क में आने वालों की अच्छी बातें, अच्छा व्यवहार सदा याद रखें। जो कुछ बुरा हुआ है उसे भूल जाएं और आगे बढ़ें। बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि ले। सामने वाले के कर्मों का लेखा-जोखा रखना परमशक्ति का काम है। तदनुसार उसका कोई कर्म पाप की श्रेणी में है तो उसका फल परमात्मा देगा। अपराध है तो उसका फल समाज का न्यायाधिकरण देगा। हम उसके लिए अधिकृत नहीं हैं।
दयारूपेण संस्थिता : सब तरह से सफल योग्य लायक खुशहाल होकर हम दया, उदारता ममता को न भूलेंं। सामने वाले को उसके कर्मों का खाली अहसास भर कराना काफी है। इसीलिए तो देवी को क्षान्ति यानी क्षमा रूप में नमस्कार करते हुए क्षमा करने वाले का दर्जा बड़ा बताया है।
तुष्टिरूपेण संस्थिता : द्वारा व्यवसाय में शुभ और लाभ का समन्वय बना अपने और सामने वाले के शुभ और लाभ का साथ-साथ ख्याल रखते हुए जीवन में कहीं किसी मोड़ पर तसल्ली सन्तोष का लक्ष्य तय कर लें। सदा लोभ, तृष्णा और कमाने बचाने की हाय हाय से ऊपर उठने की बात तय कर लें। इसी में शान्ति-सुख है।ह्यइन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु याह्ण कहने से पहले ऋषि उन्हें पुन: माता रूप में नमस्कार करते हुए औरत-मर्द के रूप में मतभेद – मनभेद और टकराव से परे जाकर, मन को बांसुरी सा सुरीला सरल बनाते हुए रिश्ते की सुखद परिणति के रूप में सन्तान का मंुह देखकर टूटे या टूटते घोंसले को फिर-फिर बनाए रखने की शिक्षा देते हैं। नीड़ का निर्माण फिर फिर या रहिमन फिर फिर पोहिए टूटे मुक्ताहार। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:। – डॉ. सुरेश चन्द्र मिश्र
उत्तम पाठ : उत्तम पाठ के छह अंग हैं- मधुरता, स्पष्ट अक्षरोच्चार, पदच्छेद का ज्ञान, धीरज, लय, सामर्थ्य और मधुर कण्ठ। पाठ शान्त चित्त से करें। समझे बिना अतिशय शीघ्रता से पाठ न करें। चंचल मन को विवेकरूपी बोध से संभालें उच्च स्वर से जप पाठ करने से मन एकाग्र होता है, निरोध होता है।
नवरात्र या नौ दिन? : अमावस्या की रात से अष्टमी तक या पड़वा से नवमी की दोपहर तक व्रत चलने से नौ रात यानी नवरात्र नाम सार्थक है।
ऐसा व्रत चल रहा है आपका? : आखिर नवरात्र हैं। हममें से तमाम लोग उपवास पर हैं। मार्केट में उपवास वालों की खासी पूछ है- बड़े-बड़े रेस्त्रां में नवरात्र व्रतधारियों के लिए स्पेशल महंगी थाली की व्यवस्था है। हल्दीराम से लेकर तमाम बड़े निर्माताओं ने नमकीन और नाश्ते के लिए एक से एक स्वादिष्ट आइटम पेश कर रखे हैं। घरों में व्रत रखने वालों के लिए क्या-क्या नहीं बन रहा। रसोई में ऐसी अच्छी चीजें आम दिनों में कहां दिखाई पड़ती हैं। असल में उपवास रखने के दौरान हम सामान्य खाना नहीं खाते, पूड़ी, हलवा और मेवे की खीर, और वह भी भरपूर मात्रा में! हालांकि लिखा-सुना यही जाता है कि उपवास के दौरान फलाहार थोड़ी मात्रा में लेना ही श्रेयस्कर है।
उपवास यानी ईश्वर के पास रहना : हमने भोजन न करने को उपवास मान लिया है। क्या इसका उपवास से जरा भी ताल्लुक है। संस्कृत में उपवास शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है ह्यउपह्ण और ह्यवासह्ण। उप का अर्थ है ह्यपासह्ण और वास का अर्थ है ह्यरहनाह्ण। हम ईश्वर के पास होने का आनंद लें, उपवास तभी सार्थक है।
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