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भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में सबसे पुरानी मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति चिकित्सा शास्त्र के आदि ग्रंथ अथर्ववेद की देवी चिकित्सा पद्धति है क्योंकि अथर्ववेद का आरम्भ दिव्य गुण वाली देवी नामक औषधि से होता है। ह्यऊँ शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभिस्रवन्तु न:।ह्ण इस मंत्र का तात्पर्य है कि हे दिव्य गुणों वाली देवी, नामक औषधि, तुम्हारा नीरोग करने वाला रस हमेशा सदा मिलता रहे। देवी के पर्याय नाम से आयुर्वेद में अनेक जड़ी बूटियां उपलब्ध हैं जैसे गौरी, पार्वती, उमा, ब्राह्मणी, नारायणी, अनन्ता, वरदा, जया, विजया, जननी, ऐन्द्री, वाराही, हेमवती, भद्रा, ऋद्धि, सिद्धि इत्यादि।
मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति का मूल आधार रक्त को विकार रहित करना है। इस प्रणाली के अनुसार प्रत्येक प्राणी अपने खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार, मेल-मिलाप, व्यवहार-संसर्ग और आवागमन से प्रभावित होता है। यह प्रभाव कभी दुष्ट परिणाम देता है और परिणास्वरूप रक्त दूषित हो जाता है तथा उसमें अनेक रोगाणु पलने लगते हैं। ये रोगाणु कभी-कभी कष्टदायक असाध्य रोग पैदा करते हैं जिसके कारण प्राणी की अकाल मृत्यु हो जाती है। पद्धति के अनुसार इस रोगाणु के नाम रक्तबीज, चंड, मुंड, शुंभ, निशुंभ, असुर, महिष आदि हैं और इनसे रक्षा का उपाय दुर्गा कवच है। दुर्गा कवच का विधान नीरोगी और रोगी दोनों व्यक्तियों के लिए हैं। नीरोगी व्यक्ति इस कवच का प्रयोग पूरे वर्ष स्वस्थ रहने के लिए वर्ष में दो बार चैत्र शुक्ल पक्ष के प्रथम नौ दिनों तथा आश्विन शुक्ल पक्ष के प्रथम नौ दिनों में कर सकता है। रोगी व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ करने तक इसका प्रयोग करना पड़ता है।
मार्कण्डेय ऋषि ने मार्कण्डेय पुराण में स्वीकार किया है- हे पितामह, लोगों की सब प्रकार से रक्षा करने वाली उस सुगुप्त विधि का मुझे उपदेश दीजिए, जिसका उद्घाटन आज तक किसी से नहीं किया है। ब्रह्माजी ने भी इसकी गुप्तता को स्वीकार करते हुए कहा- हे ऋषि, वास्तव में सब प्राणियों का उपकारक एक अति गोपनीय विधान इस संसार में है। इस विधान का नाम देवी कवच है। मैं उसका उपदेश आपको दूंगा? दुर्गाकवच में प्रमुख रूप से नौ दुर्गाओं का विवेचन है जो वास्तव में दिव्य गुणों वाली नौ औषधियों के नाम हैं- प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी। तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम।। पंचम स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमं।। नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिता। ये औषधियां प्राणियों के समस्त रोगों को हरने वाली और उन्हें रोगों से बचाए रखने के लिए कवच का काम करने वाली हैं। इनके प्रयोग से लूता, विस्फोट आदि समस्त रोग दूर हो जाते हैं। इनका सही प्रयोग सब रोगों को दूर कर देता है। ये समस्त प्राणियों की पांचों ज्ञानेन्द्रियों व पांचों कर्मेन्द्रियों पर सतत् प्रभावशाली हैं। इनके प्रयोग से मनुष्य अकाल मृत्यु से बचकर सौ वर्ष की आयु भोगता है। इन्हें सुख, समृद्धि, सौभाग्य, यश, रूप, बल देने वाली और रोग हरने वाली कहा गया है। इन देवियों को रक्त में विकार पैदा करने वाले समस्त रोगाणुओं का नाशक कहा जाता है।
प्रथमं (हरड़) शैलपुत्री : दुर्गा कवच में प्रधान नौ औषधियों में प्रथम शैलपुत्री है। इस शैलपुत्री को हिमावती, हरड़ कहते हैं। यह आयुर्वेद की प्रधान औषधि है जो सात प्रकार की होती है। हरीतिका (हरी) अभया (भय से रहित करने वाली), पथया (हितकारिणी), कायस्था (शरीर को बनाए रखने वाली) , पूतना ( पवित्र करने वाली), अमृता (अमृत तुल्य), हेमवती (हिमालय में होने वाली), अव्यथा (व्यथा का नाश करने वाली), चेतकी (चित्त को प्रसन्न करने वाली), श्रेयसी ( यशदाता), शिवा (कल्याणकारिणी)।
द्वितीयं (ब्राह्मी) ब्रह्मचारिणी : दुर्गा कवच की दूसरी महौषधि ब्रह्मचारिणी या ब्राह्मी है। ब्राह्मी आयुवर्द्धक, स्मरणशक्तिदायक, रुधिर विकारों की नाशक होने के साथ-साथ स्वर मधुर करती है। पेट को साफ करती है तथा खांसी, ज्वर, सूजन, पांडु रोग, कोढ़ का नाश करती है। मतभेद के कारण इस ब्राह्मी के तीन नाम हैं: ब्राह्मी, मण्डुकपर्णी और माण्डुकी। ब्राह्मी को सरस्वती भी कहा जाता है क्योंकि यह मन व मस्तिष्क में शक्ति प्रदान करती है । ब्राह्मी, मण्डूकपर्णी और माण्डूकी की मस्तिष्क कण्ठ और जननेन्द्रियों पर विशेष क्रिया है। यह वायु विकार और मूत्र सम्बन्धी रोगों की प्रमुख दवा है। यह मूत्र द्वारा रक्त विकारों को बाहर निकालने में समर्थ औषधि है।
तृतीयं (चन्द्रसूर) चन्द्रघण्टेति : दुर्गा कवच की तीसरी औषधि का नाम चन्द्रघण्टा है। इसे चन्द्रसूर या चमसूर कहते हैं। यह धनिये की तरह का पौधा है जिसके पत्तों की सब्जी खाई जाती है। इसको भद्रा कहते हैं क्योंकि यह कल्याणकारी है। यह मोटापा दूर करने की एकमात्र औषधि है इसलिए इसे चर्महन्ती कहते हैं। शक्ति को बढ़ाने वाली, रक्त को शुद्ध करने वाली यह चन्द्रिका ह्रदय रोगियों के लिए परम उपकारी है :
चन्द्रिका चर्महन्ती च पशु मेहन कारिणी।
नन्दनी कारवी भद्रा वास पुष्पा सुवासरा।।
चन्द्रसूर हितं हिक्का वातश्लेष्माति सारिणाम्।
असृग् वात गद्वेषि बलपुष्टि विवर्धनम्।।
कृष्माण्डेति (पेठा) चतुर्थकम : दुर्गा कवच की चौथी औषधि कूष्माण्डा है जिससे पेठा नामक मिठाई बनती है। इसे कुमला या कुम्हड़ा भी कहते हैं। यह पेठा पुष्टिकारक, वीर्यवर्द्धक व रक्त विकारों का नाशक है। पेट को साफ करने वाला है। मन की दुर्बलता को दूर करने की यह प्रधान औषधि है। यह उन्माद रोग को हरने वाली है। यह शरीर के समस्त दोषों को दूर कर ह्रदय रोग में उपकारी दवा है। यह रक्तपित्त और गैस्ट्रिक (गैस) को दूर करती है। फल की दीर्घता और लघुता के आधार पर यह दो प्रकार की है।
पंचम (अलसी) स्कन्दमातेति : दुर्गा कवच की पांचवी औषधि स्कन्दमाता है। इसे पार्वती या उमा कहते हैं। अतसी अर्थात अलसी है। यह वात, पित्त, कफ तीनों रोगकारक दोषों की नाशक है।
अतसी नीलपुष्पी च पार्र्वती स्यादुमा क्षमा।
अतसी मधुरा तिक्ता स्त्रग्धिा पाके कदुर्गरु:।।
उष्णा दृकशुकवातन्घी कफ पित्त विनाशिनी।
षठं (मोइया) कात्यायनीति च।। दुर्गा कवच की छठी औषधि कात्यायनी है। इसका आयुर्वेदीय नाम अम्बा, अम्बालिका, अम्बिका है। इसको मोइया या माचिका कहते हैं। यह कफ, पित्त, रुधिर विकार कण्ठ रोगनाशक है।
माचिका प्रस्थिकाम्बष्ठा तथा अम्बा,
अम्बालिका, अम्बिका, रक्त्तातिसार पित्तास्त्र
कफ कण्ठामयापह्य।
सप्तमं (नागदौन) कालरात्रीति : दुर्गा कवच की सातवीं औषधि है कालरात्रि, जिसे महायोगीश्वरी कहते हैं। यह नागदौन है। सब प्रकार के विषयों की नाशक, सब प्रकार के रोगों की नाशक, सर्वत्र विजय दिलाने वाली, मन और मस्तिष्क के समस्त विकारों को दूर करने वाली महौषधि है। इसके पौधे को घर में लगाने मात्र से ही घर के सारे कष्ट दूर होने लगते है। यह सब विषों की नाशक औषधि है।
विज्ञेया नागदमनी बलामोटा विषापहा। नागपुष्पी नागपन्ना महायोगीश्वरीति च।। बलामोटा कटुतिक्त्ता लघुपित्त कफापह्य। मूत्रकृच्छ व्रणान रक्ष्ये नाशयेत जालगर्दभम्।।
महागौरीति (तुलसी) चाष्टमं : दुर्गाकवच की आठवीं औषधि महागौरी है जो सर्वत्र सुलभ घरों में लगायी जाने वाली तुलसी है। तुलसी सात प्रकार की है। सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरुवा, दवना, कुठेरक, अर्जक, वटपत्र। ये सभी रक्तशोधक हैं। ह्रदय रोगनाशक है।
तुलसी सुरसा ग्राम्या सुलभा बहुमंजरी।
अपेतराक्षसी महागौरी शूलघ्नी देवदुन्दुभि:।।
तुलसी कटुका तिक्त्ता हृद्य उष्णाहापित्तकृत्।
मरुदनिप्रदो हृद्य तीक्षणाष्ण: पित्तलो लघु:।
नवमं सिद्धिदात्री (शतावरी) च नवदुर्गा प्रकीर्तिता : दुर्गा कवच की नौवीं औषधि सिद्धिदात्री है जिसे नारायणी या शतावरी कहते हैं। शतावरी बुद्धि, बल, वीर्य के लिए उत्तम है। रक्त विकार तथा वात-पित्त-शोध-नाशक है। ह्रदय को बल देने वाली त्रिदोषनाशक महौषधि है। सिद्धिदात्री का जो भी लोग नियमपूर्वक सेवन करते हैं उनके कष्ट स्वयंमेव दूर हो जाते हैं। दुर्गा कवच में वर्णित देवियां जीवनी शक्ति देने वाली औषधियां हैं जो रक्त शोधक हैं। ये रक्त में पैदा होने वाले रोगाणुओं को नष्ट करने वाली हैं। ल्ल
तुला लग्न, तुला राशि, कई ग्रह समान
एक राम का द्रोही, दूसरा साधक
ल्ल समीर उपाध्याय, ज्योतिर्विद
अगर आपने रामायण या रामचरितमानस न भी पढ़ा हो तो उसकी कथा तोे जरूर सुनी होगी, या रामायण धारावाहिक देखा होगा। रामायण का एक अहम किरदार रावण है। रावण का नाम सुनते ही एक ऐसा व्यक्तित्व मानस पटल पर उभरता है जो अपनी अद्वितीय शक्ति के घमंड में चूर होकर साधु-संतों की तपस्या भंग करने के साथ सीता-हरण जैसे अनैतिक कार्य को अंजाम देकर जन्म-जन्मांतर के लिए खलनायक बन गया। सीता हरण की घटना ने लंकापति रावण को दुरात्मा बना डाला।
आइए, हम उन ग्रह योगों को जानें जिन्होंने कुंडली में समान लग्न तथा ग्रहों की कुछ मिलती-जुलती स्थिति के बावजूद रावण को दुरात्मा और तुलसीदास को संतात्मा बनाया।
लंकापति रावण
-ग्रहण योग ने दुरात्मा बनाया
-भाग्येश बुध की कमजोर स्थिति कलंकारी बनी
भगवान शिव को अपनी कठोर तपस्या के बल पर वशीभूत कर वांछित वरदान प्राप्त करने वाले लंकापति रावण को भला कौन नहीं जानता। पौराणिक कथाओं की मानें तो सभी विद्याओं मे निपुण लंकापति रावण एक प्रकांड विद्वान एवं बलशाली व्यक्तित्व का स्वामी था।
रावण का जन्म तुला लग्न, तुला राशि में हुआ था। रावण की कुंडली में चारों केन्द्र भावों में उच्च-ग्रह मौजूद थे। लग्न में उच्च राशि के शनि की उपस्थिति लम्बे समय तक प्राप्त होने वाली प्रतिष्ठा एवं वैभव देने वाला यश योग बनाए हुए थी। दशम भाव में उच्च बृहस्पति से बने हंस महापुरुष योग ने रावण को कई सिद्घियों का स्वामी बनाया और देव कृपा के साथ शास्त्रों का प्रकांड विद्वान बना डाला। चतुुर्थ भाव में उच्च राशि में स्थित मंगल ने रावण को विशाल साम्राज्य का अधिपति बनाया। मंगल के प्रभाव के कारण रावण बलशाली योद्घा बना। सप्तम भाव में उच्च राशि में स्थित सूर्य के प्रभाववश रावण को प्रतिष्ठित एवं शक्तिशाली शत्रु (राम) का सामना करना पड़ा।
ग्रह-योग जिन्होंने दुरात्मा बनाया
लग्न में चंद्र-शनि-केतु की युति के कारण चंद्रमा दूषित हो गया और उसने रावण को स्वभाव से कुटिल एवं मायावी बना डाला। लग्न में चंद्र+शनि ग्रहण एवं पुनर्योग ने रावण को कई बाधाओं का सामना करवाया। सप्तम भाव में स्थित उच्च राशि के सूर्य पर चंद्र, मंगल तथा शनि की दृष्टि ने रावण को दूषित चरित्र वाला व्यक्तित्व दिया। लग्नेश शुक्र के छठे भाव मंे उच्च राशि में रहने ने रावण को भोगी, विलासी एवं विवादित बनाया। भाग्येश बुध की नीच राशि में स्थिति ने रावण को अपने कुल के लिए अनिष्टकारी बनाया और इसी ने रावण की बुद्घि को भ्रमित कर कुमार्गी भी बनाया।
संत तुलसीदास
-भाग्येश बुध+आयेश सूर्य की कर्म भाव में युति से संत बने
-लग्नस्थ चंद्र ने रामचरितमानस का रचयिता बनाया
पंद्रह सौ चौवन विसै, कालिंदी के तीर।
श्रावण शुुक्ल सप्तमी, तुलसी धरे शरीर॥
(भविष्योत्तर पुराण)
पंद्रहवीं शताब्दी में उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के राजापुर नामक गांव में संवत् 1554 श्रावण शुक्ल पक्ष सप्तमी के दिन संत तुलसीदास का जन्म हुआ था। भविष्योत्तर पुराण के अनुसार महर्षि वाल्मीकि ने तुलसीदास के रूप में पुनर्जन्म लिया। जन्म के साथ ही रोने की जगह ह्यरामह्य का नाम लेने वाले, तुलसीदास के जन्म से पांच सौ वर्षांे के बाद भी जनमानस द्वारा उनके द्वारा रचित रामचरितमानस एवं हनुमान चालीसा का पाठ बड़े भक्ति-भाव से किया जाना तुलसीदास को विलक्षण संत बनाता है।
ग्रह-योग जिन्होंने संत बनाया
तुलसीदास का जन्म तुला लग्न तथा तुला राशि में हुआ था। इनकी कुंडली में लग्न-चंद्र से चतुर्थ भाव में मंगल केतु की स्थिति ने जन्म से ठीक दसवें दिन में माता तथा जन्म के समय पालन-पोषण करने वाली दासी चुनिया का महज साढ़े पांच वर्ष की उम्र में निधन करा दिया। इनकी कुंडली में लग्न तथा राशि का स्वामी शुक्र होने से पत्नी रत्नावली से अगाध प्रेम किया, किंतु चतुर्थ भाव में मंगल (मंगला दोष) तथा सप्तम में नीच राशि के शनि ने पत्नी द्वारा तिरस्कार के बाद संत बना डाला। तुलसीदास की कुंडली के सभी चारों केंद्र भावों में ग्रह होने से बने ह्यआसमुद्रात योगह्ण ने उनकी कीर्ति पूरी दुनिया मे फैलाई। भाग्येश बुध दशम भाव में सूर्य के साथ तथा कर्मेश चंद्र लग्न भाव में स्थित होने के कारण विलक्षण भक्त कवि बने। द्वितीय भाव में स्थित गुरु की दशम भाव पर दृष्टि की वजह से इनकी चौपाइयां आज भी अमोघ मंत्र की तरह व्यक्ति के कष्ट, रोग व शोक को दूर करने वाली बनी हुई हैं। इनके जन्म लग्न तुला से दशम अर्थात कर्क लग्न-राशि में जन्मे श्रीराम के प्रति तुलसीदास के जन्मजात भक्ति ज्योतिषीय दृष्टि से सत्य सिद्घ होती है। -अजय विद्युत
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