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शर्मा जी कई दिन से बेचैन थे। जब भी मिलते, ऐसा लगता मानो कुछ कहना चाहते हैं; पर बात मुंह से निकल नहीं पा रही थी। मन की बात बाहर न निकले, तो वह भी पेट की गैस की तरह सिर पर चढ़ जाती है। रक्षाबंधन वाले दिन मैं उनके घर गया, तो शर्मा जी की मैडम मायके गई थीं। मैदान साफ देखकर मैंने बात छेड़ दी।
-शर्मा जी क्या बात है; मुझे तो बताओ। आपका बुझा हुआ चेहरा अच्छा नहीं लगता। हो सकता है, मैं कुछ सहायता कर सकूं।
-वर्मा जी, जीवन की शाम आ गई है; पर अब तक मुझे न तो तुम्हारी भाभी समझ पाई और न बच्चे। मैं चाहता हूं कि कम से कम बाकी लोग तो मुझे ठीक से जान लें। इसलिए मैं अपनी आत्मकथा लिखना चाहता हूं।
-शर्मा जी,अच्छे काम करने वालों की जीवनी भावी पीढि़यां लिखती हैं, जिन्हें अपने कर्मों पर विश्वास न हो, उनकी बात दूसरी है।
-मेरे बच्चे और मित्र तो कुछ नहीं करेंगे; पर दिक्कत ये है कि मुझे लिखना नहीं आता। मैंने सुना है कि लोग इसके लिए किराए पर किसी की सेवाएं ले लेते हैं। तुम कोई ऐसा आदमी ढंूढ दो।
-पर शर्मा जी, इसे छापेगा कौन? क्योंकि प्रकाशक तो वही पुस्तक छापते हैं, जो खूब बिक सके।
-वह लेखक यही तो करेगा। वह झूठी-सच्ची सामयिक घटनाओं से मुझे जोड़कर उसे चटपटा बनाएगा। इससे मेरा व्यक्तित्व युधिष्ठिर की तरह धरती से छह इंच ऊपर उठ जाएगा। फिर पुस्तक बाजार में आने से पहले उसके कुछ विवादित अंश जारी कर देंगे। कुछ प्रायोजित लेखक उसकी प्रशंसा करेंगे, तो कुछ निंदा। विवाद जितना तीखा होगा, पुस्तक उतनी अधिक बिकेगी।
मैंने उनका यह भूत उतारने का बहुत प्रयास किया; पर सब व्यर्थ। अंतत: मेरा एक मित्र बीस हजार रु़ में तैयार हो गया। काम शुरू हो गया, तो शर्मा जी ने मुझे कुछ पृष्ठ दिखाए। उन्होंने एक जगह अपने वरिष्ठ अधिकारी के रिश्वत के किस्से भी लिखे थे। मैंने इस पर आपत्ति की-शर्मा जी, ये ठीक नहीं है। आपके बीच चाहे जैसे मतभेद रहे हों; पर अब आप दोनों कार्यमुक्त हो चुके हैं। ऐसे में अपने अधिकारी की छीछालेदर करना ठीक नहीं है।
-पर वह कितना कामचोर और घूसखोर था, यह सबको पता लगना चाहिए। उसने मुझे कितना दुखी किया है, ये मैं ही जानता हूं।
-पर कम तो आप भी नहीं थे। लोग मेज के नीचे से लेते हैं; पर आप तो ऊपर से ही नोट थाम लेते थे। और कार्यालय में आप कभी दो घंटे से अधिक नहीं बैठे। क्या ये सब भी लिखोगे?
– कैसी बात कर रहे हो वर्मा। मुझे अपना मान बढ़ाना है, तो ये सब क्यों लिखूंगा ? मैंने मोहल्ले के प्रधान जी को भी खूब रगड़ा है।
-वो तो बहुत सज्जन आदमी हैं। फिर भी आप उन्हें परेशान करते रहते थे। आपने मोहल्ला सभा का चंदा कभी समय से नहीं दिया। कभी कोई जिम्मेदारी नहीं ली। हां, उनके विरुद्घ पर्चे छपवाने और चुनाव के समय हंगामा करने में आप सबसे आगे रहते थे।
-तुम चाहे जो कहो; पर मैं अपने मन की भड़ास निकाल कर रहूंगा। मैंने तो तुम्हारी भाभी की भी खूब खिंंचाई की है।
-पर आपने उन्हें कितने कष्ट दिए हैं, यह मुझे खूब पता है। आधा वेतन तो आप मौज-मस्ती में ही खर्च कर देते थे और उन बेचारी को आधे वेतन में ही घर चलाना पड़ता था।
-जब मैं कमाता था, तो मेरी मर्जी। मैं चाहे जो करूं?
पांडुलिपि तैयार होने पर मैंने उसे देखा। उसमें उनके मन की भड़ास कम और दिल-दिमाग का कीचड़ अधिक था। उन्होंने खुद को दूध का धुला बताते हुए बाकी सबको दुष्ट सिद्घ करने का प्रयास किया था। मैंने पांडुलिपि उनकी मेज पर दे मारी।
-क्यों वर्मा जी, क्या हुआ?
-हुआ तो कुछ नहीं; पर इसे छपवाने से पहले ये जरूर सोच लो कि इससे दूसरों की नजर में चढ़ना तो दूर, आप अपनी नजर में इतने गिर जाओगे कि भगवान भी नहीं उठा सकेंगे।
-मैं समझा नहीं।
-जो कीचड़ में थूथन डालकर अपने काम की चीज ढूंढते रहते हैं, उन्हें यह समझने के लिए ह्यएक जिंदगी काफी नहींह्ण है।
यह कहकर मैं आ गया। कल वे मिले, तो मेरे कान में बोले-मैंने आत्मकथा छपवाने का विचार छोड़ दिया है। – विजय कुमार
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