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वर्षों बाद शासन ने ली सुध

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Sep 8, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Sep 2014 11:00:55

आज इंटरनेट पर हिन्दी का बोलबाला है, गूगल ने ऑनलाइन हिन्दी टंकण की सुविधा उपलब्ध कराई है तो यूनीकोड ने हिन्दी फॉन्ट संबंधी असुविधाओं को दूर किया है, जिसके बलबूते आज ब्लॉगर धूम मचाये हुए हैं।

जब से मोदी सरकार अस्तित्व में आई है, हिन्दी को भारी समर्थन प्राप्त हो रहा है। प्रथम दिन से ही प्रधानमंत्री ने अपने सरकारी वक्तव्यों, विदेशी राजदूतों, अन्य देशों के शासनाध्यक्षों आदि से बातचीत में तथा संसद में केवल हिन्दी के व्यवहार की नीति अपनाई। 27 मई को गृह राज्यमंत्री श्री किरण रिजीजू ने अपने एक आदेश में सभी सरकारी विभागों से कहा कि वे सोशल मीडिया में अपने संदेशों का प्रसारण केवल हिंदी में करें, यद्यपि बाद में स्पष्टीकरण द्वारा इसे केवल हिन्दीं राज्यों में लागू करने की बात कही गई। एक लंबे अंतराल के पश्चात हिन्दी को वह स्थान प्राप्त होता दिखने लगा है जो अभी तक अत्यंत अन्यायपूर्ण एवं तर्कहीन रूप से एक विदेशी भाषा अंग्रेजी के नाम लिखा हुआ था। लगता है कि सरकार में भाषा के क्षेत्र में नई बयार बहने लगी है।
सोशल मीडिया वाले सरकारी आदेश के विरोध में दक्षिण भारत के राजनेताओं ने पुराने घिसे-पिटे अंदाज में विरोध की आवाज बुलंद की, परन्तु उनके स्वरों में अन्य भारतीय भाषाओं का न्यायोचित पिष्टपेषण कम और अंग्रेजी की वकालत अधिक लगी।
वस्तुत: भारत के सभी भागों के राजनेता गाहे-बगाहे और भांति-भांति से अंग्रेजी के प्रति अपना उत्कट प्रेम प्रदर्शित करते रहे हैं। इसी के चलते हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को अपना उचित अधिकार प्राप्त नहीं हो सका है। परन्तु दूसरी ओर एक मूक क्रांति भी चलती रही है। दक्षिण  को ही लें। 1964 में हिन्दी विरोधी उग्र आंदोलन के पश्चात् दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की परीक्षाओं में प्रतिवर्ष मात्र 6000 विद्यार्थी बैठते थे। परन्तु सभा की ही वर्ष 2011 की रपट के अनुसार वर्तमान में यह संख्या बढ़कर सवा लाख तक पहुंच चुकी है। इसी से उत्साहित होकर सभा का एक प्रतिनिधिमंडल मुख्यमंत्री जयललिता से इस प्रार्थना के साथ मिला भी था कि तमिलनाडु के विद्यालयों में वैकल्पिक विषय के रूप में हिन्दी को पढ़ाया जाना प्रारम्भ कर दिया जाना चाहिए। सभा का मत है कि आज तमिल नौजवानों में बढ़ता हिन्दी प्रेम इसलिए है ताकि आर्थिक शक्ति के रूप में उभरते भारत के प्रत्येक राज्य (विशेषकर उत्तर में) उन्हें अच्छी नौकरी प्राप्त करने में सुविधा हो। स्मरणीय है कि आज तमिलनाडु में जगह-जगह 'हिन्दी स्पीकिंग कोर्स' के बोर्ड दिखते हैं तथा दक्षिण से ही 'युग प्रभात' (केरल), 'संग्रथन' (केरल) एवं 'हिन्दी प्रचार वाणी' (कर्नाटक) जैसे पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के 'लिंग्विस्टिक' विभाग के अनुसार हिन्दी के प्रति देश एवं विदेशी छात्रों का रुझान बढ़ता ही जा रहा है। हालात ये हैं कि कुछ वर्षों से दाखिले प्रारम्भ होते ही सीटें भर जाती हैं जबकि पहले ऐसा नहीं था। कारण वही है कि विश्व की नामी-गिरामी व्यापारिक कम्पनियां धड़ाधड़ भारत में अपने प्रतिष्ठान खोल रही हैं।
ज्ञातव्य है कि लोकसेवा परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं को माध्यम के रूप में अपनाने वालों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है यद्यपि 2011 सिविल सर्विसेज एप्टीटूयूड टेस्ट (सीसैट) को लागू करने के पश्चात प्रारम्भिक परीक्षा में सफलता प्राप्त करने वालों की संख्या घटने लगी।
जहां इसके पहले के वषोंर् में सफलता प्रतिशत 35-40 हुआ करता था, वह अब गिरकर 16 तक रह गया। कठिनाइयां दो थीं- एक तो यह कि साढ़े बाईस अंकों का एक खण्ड अंग्रेजी ज्ञान का था। यह था तो केवल दसवीं के स्तर का, फिर भी गांवों एवं छोटे नगरों से आने वाले परीक्षार्थी असहज अनुभव करते थे। यह स्वागत योग्य है कि उनके हित में चार अगस्त को मोदी सरकार ने निर्णय लिया कि इस खण्ड के प्राप्ताकों का उपयोग मैरिट के निर्धारण के लिए नहीं किया जाएगा। फिर भी दूसरी एक कठिनाई शेष है। शेष खण्डों के प्रश्नों के हिंदी अनुवाद ऐसी निर्जीव एवं अटपटी कम्प्यूटरी हिंदी में दिए जा रहे थे जिन्हें समझना ही लगभग असंभव था। उदाहरणार्थ, 'स्टील प्लांट' के लिए 'इस्पात पौधा', 'टैबलेट' के लिए 'गोली कम्प्यूटर' और 'लैपटॉप' के लिए 'गोदसुर'। स्पष्ट है कि इस ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। आशा है सरकार शीघ्र आवश्यक कदम उठाएगी। स्मरणीय है कि सीसैट लागू होने के पहले जहां अच्छी खासी संख्या में हिन्दी माध्यम वाले आई.ए,एस. बनने लगे थे, वहीं 2013 में यह संख्या गिरकर 26 तक पहुंच गई थी। यहां यह लिखना भी समीचीन होगा कि पटना में 'सुपर 30' नामक संस्था वषोंर् से हिन्दी माध्यम से विद्यार्थियों की तैयारी आई.आई.टी. संस्थानों में प्रवेश के लिए कराती रही है और लगभग प्रत्येक वर्ष उसके सभी परीक्षार्थी सफलता प्राप्त करते हैं।
वर्ष 2013 की 'इंडियन रीडरशिप सर्वे' रपट कहती है कि हिंदी क्षेत्रों में तो अंग्रेजी अखबार मात खा ही रहे हैं, अन्य राज्यों में भी इन अखबारों की पाठक संख्या में जबरदस्त गिरावट आई है। यह गिरावट आंध्रप्रदेश में 55, तमिलनाडु में 38 और केरल में 23 प्रतिशत रही है। 'आज इंटरनेट पर हिन्दी का बोलबाला है; गूगल ने ऑनलाइन हिंदी टाइपिंग की सुविधा उपलब्ध कराई है तो यूनीकोड ने हिन्दी फॉन्ट संबंधी असुविधाओं को दूर किया है, जिसके बलबूते आज ब्लॉगर धूम मचाये हुए हैं' (पाञ्चजन्य 15 सितम्बर, 2013)। विकीपीडिया पर आज लगभग एक लाख हिन्दी लेख, विभिन्न विषयों पर पढ़े जा सकते हैं। यह सब क्यों? इसलिए न कि नए समय की आवश्यकता के चलते अंग्रेजी का प्रभाव जनसामान्य में कम हुआ है।
इसी तर्क को और बल देने के लिए बताना आवश्यक हो जाता है कि वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग ने अब तक इस क्षेत्र से सम्बंधित साढ़े सात लाख नए शब्दों का निर्माण कर लिया है, जिनमें लगभग चौदह हजार तो सूचना एवं प्रौद्योगिकी क्षेत्र के ही हैं। इसके चलते हिन्दी में शोध सेमिनारों का आयोजन संभव हुआ है एवं शोध जर्नल (विज्ञान परिषद अनुसंधान पत्रिका, भारतीय वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान पत्रिका आदि), लोकरुचि विज्ञान पत्रिकाएं (विज्ञान, आविष्कार, विज्ञान प्रगति, कृषि चयनिका आदि) पुस्तकें आदि धड़ल्ले से प्रकाशित हो रहे हैं।
अब तनिक श्री मोहित चंद्रा के एक ब्लॉग को देखें। श्री चंद्रा केपीएमजी नामक एक बहुराष्ट्रीय कन्सल्टेंसी प्रतिष्ठान के भारतीय पार्टनर हैं। उन्होंने वर्ष 2012 मई माह में 'द न्यूयार्क टाइम्स' के वेब पोर्टल के ब्लॉग 'इंडिया इंक' पर लिखा, बल्कि आश्चर्य और दु:ख प्रकट किया कि नामी शिक्षा संस्थानों से पढ़कर निकले भारतीय युवाओं को भी अंग्रेजी समझ पाना दुष्कर कार्य है। इस भाषा में उनकी अभिव्यक्ति और कार्य करने की क्षमता अत्यंत सीमित सी है। 27 अक्तूबर 2010 को प्रतिष्ठत अंग्रेजी समाचार पत्र 'द हिन्दू' में छपी एक सर्वे रपट में भी कहा गया कि भारी सरकारी संरक्षण एवं प्रारंभिक शिक्षण विद्यालयों में माध्यम के रूप में अंग्रेजी पर अत्यधिक जोर के बाद भी भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों में युवाओं का अंग्रेजी ज्ञान अल्प ही रह जाता है।
इसी पत्र के 13 अक्तूबर, 2012 के अंक में दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी के प्रोफेसर एवं पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. सुमन्यु सत्पथी का एक पत्र छपा है जिसमें उन्होंने जोर देकर कहा है कि समाज में फैला अंग्रेजी के प्रति अंधा मोह (उन्होंने 'पैथेटिक' शब्द का प्रयोग किया है) स्वाभाविक न होकर किन्हीं अन्य बातों से ही प्रेरित है और स्वागत योग्य नहीं है।
उपर्युक्त तथ्यों के प्रकाश में क्या यह स्पष्ट नहीं हो जाता है कि अंग्रेजी माध्यम की प्रारंभिक (और फिर अंत तक) शिक्षा की अंधी दौड़ देश की प्रगति में बाधक बन रही है? ज्ञातव्य है कि 2004 में प्रतिष्ठित डॉ. बिधान चंद्र राय पुरस्कार से नवाजे गए डॉ. अशोक पानागढि़या (स्नायुशास्त्र विशेषज्ञ) के नवीनतम शोध से भी 2011 में यह तथ्य उजागर हुआ कि मातृभाषा में दी गई शिक्षा ही मस्तिष्क शीघ्रता और मजबूती से पकड़ पाता है। यह उदाहरण इसलिए क्योंकि अभी तक शिक्षाशास्त्री जो कहते थे उसकी इससे पुष्टि हो रही है।
जब युवाओं का ही ज्ञान अथकचरा होगा तो नए बनने वाले अध्यापक उस भाषा में बेहतर शिक्षा किस प्रकार देंगे? यह मानते हुए भी कि एक झटके में अंग्रेजी भाषा की पढ़ाई समाप्त कर देने से विज्ञान के क्षेत्र में समस्याएं खड़ी हो सकती हैं, क्या यह अधिक अच्छा न होगा कि प्रारंभ से ही इस भाषा का शिक्षण केवल एक विषय के रूप में सीमित कर दिया जाए। ऐसी दशा में हमारे विश्वविद्यालयों और सरकारी कार्यालयों आदि में प्रत्येक पत्रक आदि की भाषा इसे बनाए रखने की उपयोगिता भी स्वयमेव समाप्त हो जाएगी और देश में भारतीय भाषाओं के पक्ष में अपेक्षित वातावरण तैयार होगा। इस दृष्टि से मोदी सरकार ठीक मार्ग पर है। उसकी नई भाषा नीति मृतप्राय और अनादृत भारतीय भाषाओं के लिए निश्चित रूप से ऑक्सीजन का कार्य करेगी, आज यह देश की आवश्यकता है।
-डॉ. ओम प्रभात अग्रवाल , लेखक वरिष्ठ भाषाविद् एवं शिक्षाशास्त्री हैं

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