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अच्छी पुस्तकों का अध्ययन हमें सदैव ही लाभ देता है। विद्यार्थी जीवन में हम जिन पुस्तकों का अध्ययन करते हैं, उनसे जो भी ज्ञान हम अर्जित करते हैं वह ज्ञान हमें इस समाज में अच्छे व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करता है। वह ज्ञान हमें केवल उसी समय ही नहीं बल्कि जीवन के किसी भी पड़ाव पर लाभ पहुंचा सकता है। ऐसे ही पाठ्यक्रम की पुस्तकों से हट कर अच्छे साहित्य का अध्ययन व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं जीवन दृष्टि दोनों ही में अभूतपूर्व परिवर्तन ला सकता है, आवश्यकता है तो सही साहित्य के चुनाव और सशक्त मार्गदर्शन की। ईश्वर की महती कृपा से मुझे भी ऐसे ही सशक्त मार्गदर्शन में सुश्री सुधा मूर्ति जी की पुस्तकें वह पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इन पुस्तकों ने मेरे जीवन को, मेरी सोच को बहुत प्रभावित और परिवर्तित भी किया। इन पुस्तको में बहुत सारी बातें बहुत सरल भाषा में स्वाभाविक रूप से लिखी गई हैं। व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित होने के कारण छोटे-छोटे लेख बहुत रोचक बन पड़े हैं। पढ़ने पर यह लेख हमें अपने जीवन के दैनिक अनुभवों पर ही आधारित लगते हैं। सुधा मूर्ति जी की ही एक पुस्तक 'मां का दुलार' में गंगा का घाट नामक कहानी पढ़ी। इस कहानी ने मेरी सोच में जो परिवर्तन किया उसी बात को मैं बताना चाहती हूं। यह कहानी संक्षेप में इस प्रकार है- कर्नाटक के एक छोटे से गांव में जहां प्राय: सूखा पड़ा रहता है गंगा नाम की अधेड़ उम्र की स्त्री एक छोटी सी झोपड़ी में रहती थी। सुबह उठकर काम पर जाती, खेतों में जाकर मजदूरी कर दिहाड़ी कमाकर वापस आती। पानी भरकर लाती, स्नान करती, अपना भोजन बनाती और खाकर सो जाती। गांव में पानी की बहुत समस्या थी। सरकार ने जो बोरवेल खुदवाये थे, पानी एक टंकी में जमा होता था। टंकी में से पानी लाने के लिए आधा किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था। गर्मियों में समस्या और भी गंभीर हो जाती। जिस दिन गंगा को काम नहीं मिलता तो वह निराश हो जाती कि उसके जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है। ऐसा कोई नहीं, जिसके लिए वह जिए।
एक शाम वह जब काम से लौटी तो थकान महसूस कर रही थी। स्नान कर खाना पका रही थी तो एक भिखारी ने आकर एक बाल्टी पानी स्नान के लिए मांगा ताकि गर्मी में धूल के कारण होने वाली खुजली से उसे कुछ आराम मिल सके। इस विचित्र अनुरोध से वह परेशान हो उठी और उसने मना कर दिया क्योंकि पानी लाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। परंतु बार-बार कहने पर वह उसकी बात टाल नहीं सकी और एक बाल्टी गरम पानी उसे दे दिया। बदले में भिखारी ने गंगा को बहुत आशीर्वाद दिया। फिर वह रोज आने लगा। पहले एक-दो दिन तो गंगा को परेशानी हुई परंतु जब भिखारी ने कहा कि बस एक सप्ताह तक पानी चाहिए बदले में वह गंगा को सूखे पत्रों का गट्ठर ला दिया करेगा जिससे खाना पकाने में उसे मदद मिलगी। एक सप्ताह पूरा होने पर वह बूढ़ा भिखारी एक और भिखारी को साथ ले आया और पानी की मांग की, दस दिन बाद गंगा ने तीन लोगों को आते हुए देखा, लेकिन इस बार वह परेशान नहीं हुई क्योंकि वह जानती थी कि बात फैल चुकी है कि यदि स्नान के लिए गर्म पानी चाहिए तो गंगा के घर जा सकते हैं। इसमें स्थानीय लोगों का सहयोग भी अब गंगा को मिलने लगा था और गंगा को भी जीने का लक्ष्य मिल गया था। इसमें उसे भी अब आनंद आने लगा था। अपनी इसी नि:स्वार्थ सेवा को गंगा ने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया था, बिना किसी अपेक्षा के। उसका यह निस्वार्थ सेवा का कार्य किसी के लिए भी प्रेरणा स्वरूप हो सकता है।
मेरे जीवन पर इस कहानी का जो प्रभाव हुआ, उस संदर्भ में मैं एक घटना का उल्लेख करना चाहूंगी। हर सुबह फिल्टर से दस-बारह लीटर पानी भर रखना मेरी दिनचर्या का एक अंग है। इतना पानी हमारे पूरे दिन की आवश्यकता के अनुसार पूरा होता है। यह पानी मैं एक बायो डिस्ट के द्वारा भरती हूं। पानी भरने में समय काफी लग जाता है, थोड़ी ज्यादा मेहनत का कार्य है। हमारे घर के पास ही एक जैन स्थानक है। वहां पर जैन संतों और साध्वियों का आना जाना लगा ही रहता है। घर पास होने के कारण पानी और आहार के लिए उनका आना हमारे घर होता रहता है। एक सुबह मैं बहुत थकी हुई थी क्योंकि एक ही दिन पहले मैं मायके से लौटी थी। जैसे-तैसे पानी भरा और अपने कार्यों में व्यस्त हो गई। तभी एक जैन संत आ गये और उन्होंने फिल्टर के पानी की मांग की कि यदि पहले से भरा हुआ पानी हो तो दे दो अन्यथा नहीं। एक क्षण के लिए तो मैं अवाक रह गई, क्योंकि जो पानी इतने परिश्रम से भरा था उसे देने में कुछ संकोच हुआ, अगर मना करती तो वह संत खाली हाथ लौट जाते- वह भी अच्छा नहीं होता क्योंकि भारतीय संस्कृति में अतिथि देवो भव और फिर जिन घरों में संतों के चरण पड़ें वे तो स्वत: ही पवित्र हो जाते हैं इसी कारण हमारे संस्कार ही ऐसे हैं कि उनकी सेवा को सर्वोच्च धर्म माना जाता है और हम स्वयं भी उसी परंपरा का पालन करते हैं यह सोच और साथ ही उस क्षण गंगा का स्मरण हो आया। तत्काल ही हृदय परिवर्तन हुआ और मैंने सारा पानी उनके पात्रों में उड़ेल दिया। वे बहुत प्रसन्न हुए।
उन दिनों गर्मी भी बहुत अधिक थी। अब वे रोज आने लगे, मुझे भी उनकी प्रतीक्षा होती थी, इसी कारण मैं पहले ही उनके लिए पानी भर देती थी। मेरे जीवन का लक्ष्य भी यही है कि यदि मैं किसी भी रूप में किसी की भी सहायता कर सकूं तो मैं अवश्य ही करती हूं, कई बार हम क्षणिक दुर्बलता का शिकार हो जाते हैं सही निर्णय लेने और निर्णयों का आकलन करने में ये पुस्तकें सहायक हो सकती हैं अच्छी पुस्तकों के ज्ञान से हमारा दृष्टिकोण तो सकारात्मक होता ही है साथ ही हमें अच्छा सोचने और अच्छा करने की भी प्रेरणा मिलती है। -मोनिका गुप्ता
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