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26 मई को राष्ट्रपति भवन में शपथग्रहण के 98 दिन बाद, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के मुखिया जब 2 सितम्बर को टोक्यों में छात्रों के सामने ढोल पर थाप देते हैं तो उनके चेहरे पर विशेष आह्लादकारी भाव दिखता है। सांस्कृतिक प्रतीकों का महत्व समझने वाले व्यक्ति ने गाढ़े श्रम के बीच फुर्सत के यह क्षण निकाले हैं।
क्योतो-काशी, कामा-गंगा और मंदिर-गीता से जुड़ते सांस्कृतिक सूत्र आनंदकारी हैं। किंतु सब हर्षित हों, जरूरी नहीं। राहुल गांधी नाराज हैं। उनका सवाल है कि देश को 'इस हाल'(जबकि सवा दो साल में पहली बार तिमाही आर्थिक वृद्धि सर्वाधिक रही है) में छोड़ प्रधानमंत्री कैसे ढोल बजा सकते हैं? दरअसल, कांग्रेस महासचिव की दिक्कत यह है कि वे हमेशा सही समय पर गलत छोर पर खड़े दिखते हैं। जाहिर है, हमेशा की तरह सोशल मीडिया में उनका ताना उन्हीं को निशाना बनाता है। जिज्ञासा होती है, क्या देश को ना रुचने वाला व्यंग्य करना सबसे पुरानी पार्टी की विशेषज्ञता है।
वैसे, व्यंग्य अथवा वक्रोक्ति की एक विशेष क्षमता होती है। निस्पृह दिखते चेहरों पर भी स्मित रेखा खींचने की क्षमता। अपवादों को छोड़ दें तो दशकों से भारतीय नौकरशाही और सरकारी तंत्र ऐसी ही एक पंक्ति पर मुस्कराते चले आ रहे थे- 'मेहनत करने से कोई नहीं मरता… लेकिन फिर भी जोखिम क्यों लिया जाए?' खास बात यह कि ऊपर से कड़क, रूखे नजर आने वाले 'रायसीना हिल्स' छाप चेहरों पर छपी इस शाश्वत मंद मुस्कान पर शासकीय मुहर भी दिखती थी। लेकिन जैसा कि नियम है ज्यादा लंबा या बार-बार दोहराया गया चुटकुला खीझ पैदा करता है। सो, सरकार और व्यवस्था के चुटकुले से चिढ़ी जनता ने निर्णायक रूप से बाजी पलट दी। लोकतंत्र का परिहास बंद। चुटकुला उलट गया। मेहनत करो…वरना जोखिम है कि मारे जाओगे। राजग सरकार के सौ दिनों के काम का लेखा इसी बात का दस्तावेज है कि अब खुश होने की बारी जनता की है। मंत्री और बाबू काम पर हैं, जनता मुस्करा रही है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी टोक्यों में छात्रों के सम्मुख खुद को ढोल बजाने से रोक नहीं पाते तो इसमें सरकार की यह खुशी भी है कि उसका अपना 'होमवर्क' पूरा है। श्रम का कोई विकल्प नहीं इस उक्ति को सरकार ने चरितार्थ किया है। इससे भी महत्व की बात यह कि सांस्कृतिक आग्रहों को बनाए रखते हुए सरकार ने समयानुकूल भंगिमाएं प्रदर्शित की हैं। जब देश का मुखिया विदेशी भूमि पर भी अपनी मातृभाषा नहीं छोड़ता तो सरकारी कैलेण्डर की खानापूर्ति बन चुका हिन्दी पखवाड़ा नए अर्थ प्राप्त कर लेता है।
आईएसआईएस या इबोला, आतंक और आपदा की छाया तले विदेश में फंसे भारतीयों की स्वदेश वापसी के लिए जब सरकार दिन-रात एक कर देती है तो नागरिकों को अपने साथ खड़े पूरे देश का आभास होता है। 'रुपए में से सिर्फ दस पैसे नीचे पहुंचते हैं' का रोना रोने की बजाय, जब नीचे तक पूरा पैसा पहुंचाने की तैयारी होती हैं, एक साथ दो करोड़ गरीबों के बैंक खाते खुलते हैं तो पारदर्शिता का साक्षात्कार होता है।
फाइलों पर कुंडली मारे बैठी बाबूशाही, योजनाओं की ठिठकन और महत्वपूर्ण निर्णयों में मंत्रालयी झिझक के त्रासद युग का अंत इस सरकार ने अपने पहले सौ दिनों में किया है। इसके लिए जनाकांक्षाओं को समझती और इनके अनुसार चलती सरकार को शुभकामनाएं। लेकिन, राजग सरकार के लिए ना भूलने वाली बात अलग एवं कुछ और है…
यात्रा लंबी है और अभी तो बस प्रारंभ ही हुई है। यह सौ दिन मीडिया के लिए चाहे जो हों भाजपा और राजग के लिए यह आत्मसमीक्षा का पड़ाव मात्र है। और अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात, अनुकूल परिस्थितियों में ही विचलन की संभावना सबसे ज्यादा होती है। सो, कदम बढ़ाते चलो, और कदम जमा के चलो।
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