कृषि-संस्कृति - गर्व से कहो कि मैं भारतीय किसान हूं
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कृषि-संस्कृति – गर्व से कहो कि मैं भारतीय किसान हूं

by
Aug 23, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 23 Aug 2014 15:52:06

 

हमारे-वेद पुराणों में लिखी पंक्ति है-'दुर्लभे भारते जन्म मानुषं तत्र सुर्लभ:' यानी मनुष्य योनि में भारत में जन्म लेना ही दुर्लभ है। यह बात और किसी पर लागू होती हो या न होती हो, लेकिन हमारे मेहनतकश किसान पर सौ फीसदी सही बैठती है। बगैर किसी विद्यालयी या महाविद्यालयी शिक्षा की परंपरा से ज्ञान प्राप्त कर अत्यंत विषम परिस्थितियों में उसने जो कर दिखाया है उसी के बल पर भारत आज तन कर खड़ा है और कल महासत्ता प्राप्त करने वाला है।
हजारों वषार्ें की तपस्या और परमपिता परमेश्वर द्वारा इस धरती को वरदान के रूप में दिये अनमोल निवेश (वर्षा, आकाश और प्रखर सूर्य) का समूचित दोहन (शोषण नहीं) हमारे ऋषि वैज्ञानिकों-पाराशर, कश्यप, वराहमिहिर, शार्ड्ंगधर, चरक, सुश्रुत आदि ने खाद्य, वस्त्र और औषधि वनस्पतियों की जो विशाल श्रृंखला खोज निकाली है, वह इस देश को क्या पूरे विश्व को खिला और पहनाकर नीरोगी रख सकती है ।
हमारी यह विपुलता कितनी थी ये समझने के लिए एक ही उदाहरण पर्याप्त है कि पुर्तगाल, इंग्लैंड, फ्रांस, हॉलैंड और खैबर के दर्रे से आये मुसलमान राष्ट्रों ने इस देश को 500 साल जमकर लूटा। मुसलमान तो इसी संस्कृति में रच बस गए, लेकिन अन्य देशों ने हमारे देश को लूटकर अपने देशों को समृद्ध किया फिर भी वे हमारे देश को तोड़ न सके क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत थी। आज जिस अन्न सुरक्षा को लेकर विश्व में त्राहि-त्राहि मची हुई है, वह हमारे देश की मुख्य रीढ़ है। केवल मानव के लिए ही नहीं पशुओं के लिए भी हर गांव में तालाब थे ।
इतिहास गवाह है कि 1857 में अंग्रेजों के शासन प्रारंभ करने के पूर्व इस देश में पिछले 2000 वषार्े में मात्र 17 अकाल पड़े थे, जबकि अंग्रेजों के 110 वषार्ें के शासन में इस देश ने 32 अकाल झेले ।
इसका एकमात्र कारण यह है कि अंगे्रज आने के पहले हमारी शिक्षा प्रणाली सुदृढ़ थी । खेती वैज्ञानिक तरीके से होती थी। आज हर देश में टिकाऊ और चिरायु जीवनशैली (सस्टेनेबल) की बात चल रही है, वह हमारी नस-नस में विद्यमान थी। राजमहलों में रहने वाले हमारे आराध्य देव राम और कृष्ण पढ़ाई करने किसी पब्लिक स्कूल में नहीं गए थे, ऋषि वशिष्ठ, विश्वामित्र और संदीपनी के आश्रमों में रहकर उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया था ।
मृत्युशैया पर पड़े भीष्म पितामह के आग्रह पर भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर को 15 चरण सिखाए थे उनमें से 10 सूत्र अन्न उत्पादन और अन्नदान पर थे और 5 पंचमहाभूतों के बारे में थे ।
हमारी अन्न सुरक्षा के घेरे को तोड़कर अंग्रेज शासन ने हमारे किसानों से फूल (इत्र), मसाले, गन्ना, कपास, नील, रबड़, और अफीम की खेती कर अपने देश को आबाद किया और हमारे किसानों को नकदी फसल का चस्का लगाया । हमारी अन्न व्यवस्था चरमरा गई। 1864 के आसपास ओडिशा और बंगाल में भयानक अकाल पड़ा। अंगे्रज सरकार ने 'रॉयल सोसायटी ऑफ एग्रीकल्चर इंग्लैंड' के जॉन अगस्टिस वॉलकेयर को भारत में खेती सुधार के लिए भेजा। वे दो साल यहां रहे और पूरे देश का उन्होंने दौरा किया। उससे पहले अलेक्जेंडर वॉकर ने भारत की खेती का अभ्यास किया था । उसके बाद 1905 में अंग्रेज सरकार ने यहां किसानों को रासायनिक खेती सिखाने अलबर्ट हॉवर्ड को भेजा था। इन तीनों महानुभावों ने भारत के बारे में जो राय दी है, उस पर एक ग्रंथ लिखा जा सकता है। उनके कुछ नमूने ही यहां देना पर्याप्त होगा । अलेक्जेंडर वॉकर कहते हैं कि मालाबार में मैंने जितने प्रकार की धान देखी विश्व में कहीं न देखी न सुनी। गुजरात के किसान अपने खेतों को जितना साफ सुथरा रखते हैं, वह अभ्यास करने लायक है। उन्हांेने कहा कि इस देश के किसान यदि गोबर के कंडे बनाकर जलाते हैं तो गलत नहीं है क्योंकि वो इधर-उधर बेकार पड़ा गोबर ही काम में लेते हैं और गोबर खेत में ही डालते हैं ।
वॉलकेयर ने अपनी रपट में कहा है कि यहां किसान कई प्रकार की फसलें एक साथ बोते हैं और इनका फसल चक्र बहुत ही गुणकारी और लाभकारी है। उन्हांेने यह भी कहा कि विश्व की सर्वश्रेष्ठ कपास की खेती यहां पर होती है। अगर यहां के किसान चाहते तो कपास की बीजों का निर्यात कर खूब पैसा कमा सकते हैं, मगर उन्होंने वह बीज अपने पशुओं के लिए रखा है। 'जीयो और जीने दो' यह दर्शन मुझे यहां देखने को मिला। हॉवर्ड तो यहां 1905 में भारत के किसानों को रासायनिक खेती सिखाने आए थे, लेकिन यहां की जैविक खेती देखकर वे दंग रह गए। उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और पूरे 29 वर्ष भारतीय खेती पर अध्ययन कर गोबर खाद, गौमूत्र और फसल अवशेषों से जैविक खाद कैसे बनाई जाती है, इस पर अनुसंधान किया और पूरे विश्व को बताया कि अगर जैविक खेती सीखनी है तो भारत आइये ।
जब इतना सब कुछ भारत में था तो भारत के 40 प्रतिशत किसान खेती क्यों छोड़ना चाहतेहैं? ं क्यों गांव छोड़ शहर में पलायन कर रहे हैं? क्यों आत्महत्या कर रहे हैं?
शहीद भगत सिंह से लेकर महात्मा गांधी तक जिन स्वतंत्रता सेनानियों ने आजादी के लिए अपनी जान न्योछावर कर दी,वह देश अनुवांशिकी परिवर्तित बीटी बैंगन जैसी खतरनाक जीएम फसलों के लिए कटोरा लेकर क्यूं भीख मांग रहा है? अत्यंत संक्षेप में निम्नलिखित कारण है :
1़ आजादी के बाद हमारे देश में भारत का पुरातन कालीन गं्रथ भंडार, जो संस्कृत भाषा में था, वह उपलब्ध नहीं था। इसलिए यहां जो कृषि महाविद्यालय खुले वहां पर विदेशी खेती सिखाई जाने लगी जो पूरी तरह रसायनों और यंत्रों पर आधारित थी। उसके दुष्परिणाम हम यहां देख रहे हैं। आज वो साहित्य उपलब्ध है मगर हमारे कृषि विश्वविद्यालयों से नदारद है ।
2़ हमारी बहुफसलीय खेती की जगह गेहूं, चावल, सोयाबीन जैसी एकल फसल पद्धति अपनाई गई जो पूर्णतया अवैज्ञानिक और अभारतीय कृषि पद्वति है ।
3़ हमारी कृषि शिक्षा ने युवाओं को अपने पैतृक गांवों से तोड़ा है, जो भारत जैसे कृषि पधान देश के लिए अत्यंत घातक है ।
4. कुटीर उद्योग देने वाली कई फसलें हैं जैसे- मूंगफली, ज्वार, अम्बाड़ी, अलसी, रागी और कई पारंपरिक फसलें जो दक्षिण में या उत्तर भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में बोई जाती हैं, वह जो गांवों में रोजगार उपलब्ध करा सकती हैं, उसकी खेती नगण्य मानी गई है और उनपर कोई अनुसंधान नहीं है ।
इस वर्ष देश के इतिहास में चुनावों ने पहली बार करवट बदली है। हमारे देश का नेतृत्व भारत में खेती के पारंपरिक ज्ञान को यदि आगे बढ़ाता है तो वह इस देश के लिए ही नहीं विश्व के लिए भी लाभकारी होगा । -अरुण डिके
लेखक बायोटेक इनपुट्स एंड रिसर्च प्रा. लि. (इंदौर) के प्रबंध निदेशक हैं

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