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आजादी के बाद से आज तक खेलों में हमने जो कुछ हासिल किया उसकी बात करते हुए सबसे पहले तो मैं उन शहीदों को नमन करना चाहता हूं जिन्होंने अपना बलिदान देकर हमें आजादी दिलाई। अब रही बात खेलों में हमारे आगे बढ़ने की तो मैं उस जमाने का पैदा हुआ हूं जब मुझे पता तक नहीं था कि खेल भी कोई चीज होती है। उस वक्त हाकी और उसमें भी ध्यानचंद के अलावा खेल के नाम पर कुछ और था ही नहीं। 1947 के बाद समग्रता से देखें तो खेलों में हिन्दुस्थान ने बहुत तरक्की की है। 1951 से शुरू करें। तब हमने ही पहली बार एशियाई खेल कराए थे। फिर 1982 में हमने दुबारा एशियाई खेल आयोजित किए। 2010 में हमने राष्ट्रमण्डल खेल आयोजित किए। कहने का अर्थ है कि खेलों को लेकर हिन्दुस्थान में एक जागृति आ चुकी है। कितने ही खिलाडि़यों ने खेलों में आगे बढ़कर हमारे देश का नाम ऊंचा किया है।
जिस जमाने में मैं दौड़ता था वह कुछ और ही जमाना था, लेकिन आज वक्त काफी बदल गया है। उस जमाने में कौन जानता था एन.एस.ओ. या एस.ए.आई. को? ये संस्थाएं बाद में आई हैं। 1951 में जब मैंने दौड़ना शुरू किया था तब एक राजकुमारी अमृत कौर योजना हुआ करती थी। वही एक योजना थी खिलाडि़यों और कोच की मदद करने के लिए। खेलों का न मंत्रालय था, न बजट, लेकिन आज हमारे पास सब कुछ है। इसलिए हमने इस क्षेत्र में बहुत तरक्की की है, लेकिन वह कुछ ही खेलों तक सीमित रही है। जैसे शूटिंग, बॉक्सिंग, कुश्ती, बैडमिंटन, टेनिस में तो हमने अच्छा नाम कमाया है। मगर मुख्य खेल, जैसे एथलेटिक्स, हाकी, फुटबाल, बासकेटबाल, वॉलीबाल, जिमनास्टिक, तैराकी वगैरह में हम उतनी तरक्की नहीं कर पाए जितनी दुनिया के दूसरे देशों ने की है। मेरी नजर में इसके पीछे जिम्मेदारी है भारतीय ओलम्पिक संघ की। वही है जो सभी खेलों की इकाइयों को नियंत्रित करती है। भारतीय ओलम्पिक संघ को सरकार की तरफ से भेजे जाने वाले प्रतिनिधि के साथ बैठक करनी चाहिए और सोचना चाहिए कि ऊपर बताए खेलों में हम आगे क्यों नहीं बढ़ पा रहे हैं। शूटिंग, कुश्ती, बॉक्सिंग वगैरह में हम अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं तो एथलेटिक्स, फुटबाल और हाकी में हम क्यों पिछड़ रहे हैं? हाकी में तो हम नंबर एक थे, हमने दुनिया को हाकी सिखाई और आज हम खुद ही इसमें पीछे हो गए हैं। इसका क्या कारण है? आज हमारे पास किसी चीज की कमी नहीं है। हमारे जमाने में तो हमें यह तक नहीं पता होता था कि कोच कहते किसे हैं। पर आज तो हिन्दुस्थान में हजारों कोच हैं। बढि़या उपकरण हैं, स्टेडियम हैं, पैसा है। सब कुछ है हमारे पास। सरकार दोषी नहीं है। सरकार ने तो हमें जो सुविधाएं दी हुई हैं उनके हिसाब से हमारा प्रदर्शन नहीं हो रहा है।
एथलेटिक्स को दुनिया में 'मदर स्पोर्ट्स' माना जाता है, नंबर एक खेल माना जाता है। आजादी के बाद से आज तक सिर्फ 5-6 खिलाड़ी ही इसमें फाइनल तक पहुंचे हैं। मैं खुद मिल्खा सिंह, पी.टी. उषा, श्रीराम सिंह, गुरबचन सिंह रंधावा और अंजू जार्ज। इन सबके हाथ से सोने का पदक फिसल गया। ये सब फाइनल तक तो पहुंचे पर आगे पदक नहीं जीत पाए। मेरी तो आखिरी इच्छा यही है कि हम इसमें स्वर्ण पदक जीतें। मैंने 80 अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में से 77 जीतीं। तब हर आदमी यही कहता था कि 400 मीटर में मिल्खा ही स्वर्ण पदक जीतेगा, पर वह मेरे हाथ से फिसल गया।
पहले की तुलना में ग्लासगो में हमारे पदक कम रह गए। मेरे ख्याल से इसमें तैयारी की कमी रही। पर और प्रतियोगिताओं में हमारे खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। जो कमी है तो उसे दूर करने को आने वाले ओलम्पिक खेलों के लिए भारतीय ओलम्पिक संघ को 'कांट्रेक्ट' के आधार पर कोच रखने चाहिए जो परिणाम दें। हमारे पास अच्छे खिलाड़ी हैं, हुनर है, बस उसे निखारना है। कोच अच्छे से तैयारी करके नतीजे दें। नहीं तो जैसा चल रहा है, वैसा चलता रहेगा। हर खेल इकाई से पूछा जाए कि आने वाले 4,8,10 साल के लिए उसकी क्या योजना है। हमारे पास खिलाड़ी, स्टेडियम, पैसा सब है,कमी रह जाती है इच्छाशक्ति की। वह मजबूत करनी होगी। राजनीति की जहां तक बात है तो वह हर खेल में रहती ही है, पर उससे हमें कोई सरोकार नहीं है। चीन का उदाहरण देखिए, चीन ने ओलम्पिक से 8 साल पहले कह दिया था कि चीन दुनिया में अव्वल रहेगा। उन्होंने अव्वल बनकर दिखाया। तो हिन्दुस्थान में हमारे पास किसी चीज की कमी नहीं है, कमी है तो सिर्फ कड़ी मेहनत और इच्छाशक्ति की। ओलम्पिक खेलों में कड़ी मेहनत के बिना पदक हासिल नहीं हो सकता।
देश में बात चलती है कि क्रिकेट को ज्यादा को ज्यादा महत्व दिया जाता है,उसमें पैसा बहाया जाता है। मेरा कहना है कि क्रिकेट बोर्ड पैसा कमाता है और उसे ही क्रिकेट पर लगाता है। हमें उससे कोई शिकायत नहीं है। हाकी, फुटबाल में भी वह चीज की जा सकती है। पहले जमाने के हमारे हाकी खिलाडि़यों के पास पैसे नहीं होते थे, तंगहाली में ही रहे सब। ध्यानचंद को तो हिटलर ने कहा भी था कि आप जर्मनी में ही रहो, आपको हर चीज दी जाएगी। मगर हमें तो देश से प्यार था। मुझे, मिल्खा सिंह को ही क्या मिला? मैंने कितने कॉमनवेल्थ, एशियन, नेशनल गेम्स जीते, ओलम्पिक रिकार्ड तोड़ा, मुझे तो किसी ने एक धेला नहीं दिया। लेकिन आज तो राज्य सरकारों ने अपने यहां के खिलाडि़यों को करोड़ों के ईनाम देने शुरू किए हैं। आज इतना सब है तो बच्चों को आगे बढ़कर मेहनत करनी चाहिए। ग्लासगो में अच्छा प्रदर्शन करने वाले खिलाडि़यों और उनके माता-पिता को मैंने बधाई दी थी। हमारे बच्चों को और आगे बढ़कर देश का नाम ऊंचा करना चाहिए।
हमारे देश में हुनर की कमी नहीं, कड़ी मेहनत की कमी है, कोच पूरी मेहनत से आने वाले ओलम्पिक में पदक दिलाने की ठान कर तैयारी कराएं। खिलाडि़यों के लिए हर चीज का इंतजाम हो, तो कोई ताकत नहीं जो पदक रोक दे। लेकिन पहली शर्त है निष्ठा और लगन। मिल्खा की फिल्म देखने के बाद मुझसे हजारों बच्चों ने कहा, हम मिल्खा सिंह बनना चाहते हैं। लेकिन मिल्खा सिंह बनना आसान बात नहीं है। वह मौत से लड़ा, कड़ी मेहनत की, खून की उल्टियां तक कीं, मौत तक के साए में रहा, पर इरादा मजबूत था कि जब तक ओलम्पिक रिकार्ड नहीं तोडूंगा तब तक मैं चैन से नहीं बैठूंगा। तो कहने का मतलब है कि इरादा मजबूत हो तो आप जमीन से उठकर आसमान छू सकते हैं। खेलों में लाखों, करोड़ों मेहनत करते हैं, उनसे पार पाकर कोई एक पदक जीतता है। मैं कॉमनवेल्थ खेलों में जीते सभी हमारे खिलाडि़यों को बधाई देता हूं। मोदी सरकार को इनका, इनके माता-पिता का सम्मान करना चाहिए कि आपके बच्चों ने हमारे देश का नाम ऊंचा किया है।
('फ्लाइंग सिख' के नाम से मशहूर भारत के सर्वश्रेष्ठ धावक मिल्खा सिंह से आलोक गोस्वामी की बातचीत पर आधारित)
मजबूती
आजादी के बाद से भारतीय खेलों न कई मुकाम बनाए हैं। किक्रेट में भारत ने विश्व स्तर पर झंडा गाढ़ा है। वहीं आजादी के बाद भारत के पहले व्यक्तिगत ओलंपिक पदक विजेता पहलवान के.डी. जाधव थे,जिन्होंेने 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में कुश्ती में कंास्य पदक जीता था,जिसके बाद भारत का पहला स्वर्ण अभिनव बिंद्रा ने 2008 में बीजिंग ओलंपिक में जीता । हाल ही में ( 2014) ग्लासगो में हुए 20वें राष्ट्रमंडल खेलों में भारत ने शानदार प्रदर्शन करते हुए कुल 64 मेडल जीत कर राष्ट्रमंडल देशों में पांचवे स्थान पर रहा। भारत ने कुल 15 स्वर्ण , 30 रजत और 19 कांस्य पदक जीते।
कमजोरी
जब भी कोई वैश्विक खेल प्रतिस्पर्धा आयोजित होती है तो सवा अरब की आबादी के बावजूद खेलो में भारत के दयनीय प्रदर्शन पर आत्मचिंतन का दौर शुरू हो जाता है। तमाम पुनरावृत्तियों से एक ही बात उभर कर सामने आती है कि भारत की क्रिकेट को छोड़कर और किसी खेल में कोई खास दखल और रुचि नहीं है।
अवसर
आज हमारे ग्रामीण भारत में ऐसे लोगों की खान है जो खेलों के क्षेत्र में प्रतिभा के धनी तो हैं पर उनको जो मंच मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाता जिससे उनकी प्रतिभा कुंद हो जाती है या स्थानीय स्तर पर ही सिमट कर रह जाती है। भारत के कई राज्यों के गंावों में गली-मुहल्लों में खेले जाने वाले खेल कबड्डी,तीरंदाजी और फुटबाल को खेलने वाला एक बड़ा वर्ग इन खेलों में पारंगत होने के बावजूद उसे समुचित अवसर की कमी उसे आगे नहीं आने देती। लेकिन इसके साथ ये भी सच है कि हम अनेक खेलों में अन्य देशों के मुकाबले अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं।
चुनौती
मौजूदा सरकार को खेल संघों में बेहतर लोगों और खिलाडि़यों का े लाने का प्रयास करना होगा। अगर ऐसा होता है तो ये बड़ी उपलब्धि होगी। हमारे देश में जब भी खेलों को लेकर कानून बनाने की बात चलती है तो विरोध शुरू हो जाता है। जबकि दुनियाभर के करीब 45 देशों में खेलों का कानून बड़ी सफलता से चल रहा है,खासकर उन देशों में जो खेल की दुनिया में सबसे आगे हैं। इन देशों में खेलों का जबरदस्त ढांचा है,सुविधाएं हैंं। आज राष्ट्रीय खेल संघों पर जो शीर्ष पद पर विराजमान हैं उनमें 70 से 80 फीसदी व्यक्ति अधिकतर राजनीतिक,प्रशासनिक व मंत्री स्तर के व्यक्ति हैं जिनका खेलों से दूर-दूर तक का कोई नाता नहीं।
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