संस्कृति - खंड चिंतन: समग्र चिंतन
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संस्कृति – खंड चिंतन: समग्र चिंतन

by
Aug 11, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 Aug 2014 14:32:57

कन्याकुमारी में समाधि से उठकर स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि भारतमाता और जगदंबा में कोई अंतर नहीं है। एक की पूजा, एक की सेवा, दूसरी की भी पूजा और सेवा है। स्वांमी जी की इस उक्ति से किसी का मतभेद नहीं है, किंतु करोड़ों संतानों और भक्तों के होते हुए भी भारत के आकार में परिवर्तन हुए। न भारत देश अक्षत रहा, न भारत माता। जब पाकिस्तान बना तो भारत के तत्कालीन नेताओं को यह नहीं लगा कि उनके अपने देश के टुकड़े हो रहे हैं। वे तो अपना राज्य पाकर प्रसन्न थे। जो भाग पाकिस्तान में गया, वहां के हिंदुओं के साथ क्या अत्याचार हुआ, उसकी चिंता किसी को नहीं थी। वे जन गन मन गा रहे थे और झूम रहे थे। मेरठ में आज भी एक हिंदू लड़की का अपहरण, बलात्कार और मतांतरण होता है, तो भी देश में कहीं कंपन दिखाई नहीं देता। सारे हिंदू अपने- अपने काम में व्यस्त हैं। काम अधिक प्रिय है। उससे धन का अर्जन होता है। किसी और की पीड़ा को यह देश अपनी पीड़ा नहीं मानता। कश्मीर के पहले युद्घ में जिस प्रकार विजयोन्मुख युद्घ को बीच में बंद कर, जवाहरलाल नेहरू संयुक्त राष्ट्र संघ को बुला लाए थे, उससे भी नहीं लगा कि नेहरू जी को अपने देश की भूमि, शत्रु देश को देने में कोई कष्ट हुआ होगा। वे तो हमारे वे प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने नेफा छिन जाने पर कहा था, वहां घास का एक तिनका भी नहीं उगता। अर्थात् जहां घास का तिनका उगता है, वही भूमि उनको चाहिए थी। वे अपने बंगले के लॉन से प्रेम करते थे। देश के प्रति उनके मन में प्रेम नहीं था। उनकी पुत्री ने अवश्य सिक्किम को अपने देश का अंग बना लिया और बंगलादेश को पाकिस्तान से पृथक कर शत्रु को दुर्बल किया। यह भूल उनसे भी हुई कि सेना द्वारा जीती हुई भूमि तथा पाकिस्तानी सैनिक पाकिस्तान को लौटाते समय, उन्होंने कश्मीर का वह भाग पाकिस्तान से नहीं छीना, जो हमारा ही है और पाकिस्तान ने उसपर अनधिकृत रूप से कब्जा कर रखा है।
दिल्ली में मेरे पास अपने रहने के लिए एक मकान है इसके अतिरिक्त सारे भारत में मेरे पास भूमि का कोई प्लॉट, कोई मकान, कोई फ्लैट, कुछ नहीं है किंतु यह सारा भारतवर्ष मेरा है। यहां तक कि अंदमान, नीकोबार द्वीप समूह से भी मुझे उतना ही लगाव है, ', जितना अपने घर से है क्योंकि यह मेरा देश है। बामियान में बुद्घ की प्रतिमा तोड़ी गई, तो भी मुझे उतना ही कष्टं हुआ, जितना किसी को अपने शरीर पर घाव सहते हुए होता है। किंतु हमारी सरकार तो चुपचाप देखती रही। राम-कथा को काल्पनिक बताकर राम-सेतु को तोड़ने का प्रयत्न करने वाले क्या इस देश और राष्ट्र के प्रेमी हो सकते हैं ? मेरा वश चले तो उनपर देशद्रोह का मुकदमा चलाऊं।
मेरा पोता मुझ से पूछता है कि जब आर्य बाहर से नहीं आए थे तो हमें गलत इतिहास क्यों पढ़ाया जाता है? तो मैं उसे यही बता सकता हूं कि हमारे देश के नेता और बुद्घिजीवी विदेशी दासता के कैंसर से पीडि़त हैं। इसलिए वे वही पढ़ाना चाहते हैं, जो उनको पढ़ाया गया है। स्वतंत्र मौलिक राष्ट्रवादी चिंतन की प्रतिभा उनमें नहीं है। वह पूछता है कि भारतीय पंचांग को भुला कर हम पाश्चात्य कैलेंडर से काम क्यों करते हैं? तो मैं हंस कर उत्तर देता हूं, क्योंकि हमारे यहां सरकारी कर्मचारियों को उसी कैलेंडर की पहली तिथि को वेतन मिलता है। आज वेतन भारतीय पंचांग से देना आरंभ करो, देखो सबको सारे दिन, महीने, तिथियां स्मरण हो जाएंगी।
वह पूछता है, हमें विद्यालय में हिंदी में क्यों नहीं पढ़ाते? मैं उसे बताता हूं, क्योंकि हमारे देश के नेताओं को हिंदी नहीं आती। वह पूछता है, वे लोग हिंदी सीख क्योंढ नहीं लेते? मैं कहता हूं, क्योंकि वे ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज और हार्वर्ड में इतनी अंग्रेजी पढ़ आए हैं कि अब उनके लिए हार्ड वर्क कर हिंदी सीखना असंभव हो गया है। बड़े आलसी और स्वार्थी हैं कि स्वयं अपनी भाषा नहीं सीखना चाहते और सारे देश को एक विदेशी भाषा पढ़ाना चाहते हैं। 'ऐसा क्यों?' 'पद का मद है और क्या?' 'यह मद कैसे उतरेगा?' 'प्रजा की मार से'
मैं सोचता हूं कि 1947 से आज तक यह देश एकत्व् की ओर बढ़ने के स्थान पर विभाजित ही क्यों होता रहा? इस धर्मनिरपेक्ष देश में बहुमत और अल्पमत के आधार पर लोगों के कल्यांण की योजनाएं बनाई जाती हैं। किसी रोगी को औषध इसलिए दी जाए क्यों कि वह हिंदू या मुसलमान है, इसलिए नहीं कि वह रोगी है और भारत का नागरिक है। यह सत्ताकर्मियों का ही चिंतन हो सकता है, समाज के किसी शुभचिंतक का नहीं। किसानों को यह समझाया जाता है कि अन्यं सारे व्यवसायों के लोग उनके शत्रु हैं। अत: किसानों को अपने लिए अधिक से अधिक सुविधाएं प्राप्त करनी चाहिए। उन्हें अपने अन्य देशवासियों के विषय में सोचने की कोई आवश्यकता नहीं है। जिस किसान के पास भूमि, मकान, पशु, ट्रैक्टर तथा जीप आदि साधन हैं, उन्हें तो सरकारी सहायता की आवश्यकता है उस मजदूर, चपरासी, रेहड़ी वाले, अथवा अन्य व्यवसाय करने वाले को नहीं, जिसके पास अपना कुछ भी नहीं है। गांव वालों को यह समझाया जा रहा है कि नगरवासी उनके शत्रु हैं। गांव में हवेली का स्वाामी तो शोषित है, उसे सरकारी नौकरियों में आरक्षण चाहिए और नगर या कस्बे में झुग्गी् में रहने वाला शोषक है। इस प्रकार कुल मिला कर इन सत्ताकर्मियों ने किसी को भी भारतीय बनने में सहायता नहीं दी। उन्हेंह बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक, सवर्ण, हरिजन, किसान, अकिसान, देहाती और शहरी तो बनाया ही है, उन्हें स्त्री और पुरुष में भी बांटा है। प्रत्येक पुरुष प्रत्येक स्त्री का शत्रु घोषित किया जा रहा है, चाहे वह उसका अपना भाई ही क्यों न हो। इस खंड-खंड चिंतन का उदाहरण हमारा शिक्षा जगत भी है, जहां अनेक परिस्थितियों में अध्यापक अपने क्षेत्रों को अपना विरोधी पक्ष मान बैठते हैं तथा छात्र अपने गुरुओं को ही अपने शत्रु के रूप में देखने लगते हैं।
इस वैषयपूर्ण खंड-खंड चिंतन का परिणाम कुछ हमारे सामने है और कुछ सामने आने वाला है। अपने वोटों के लोभ में ये सत्ताकर्मी यह मान बैठे हैं, कि वे संपूर्ण देश के नेता तो हो नहीं सकते, वे तो समाज के किसी छोटे-बड़े खंड को ही भ्रम में रख सकते हैं कि वे उनके शुभचिंतक हैं। वे महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, तिलक, वल्लभभाई पटेल, तथा खान अब्दुल गफ्फार खां नहीं बन सकते। वे बन सकते हैं, केवल मुहम्मद अली जिन्ना, जो समग्र को छोड़कर केवल एक खंड के ही नेता हो सकते हैं। परिणाम हमारे सामने है। आज इतिहास बार-बार पूछ रहा है कि जिन्ना ने देश का विभाजन करवाकर भारत का हित तो नहीं ही किया, किंतु क्या भारतीय मुसलमानों का हित किया?
जिन्ना ने तो इस देश के दो टुकड़े किए थे किंतु वर्तमान सत्ताकर्मी अपने भाषणों में देश की एकता के जितने भी राग अलापते रहें, किंतु अपने व्यवहार से इसे निरंतर खंडित करने का प्रयत्न कर रहे हैं। जाने वे लोग इस देश का कोई गली मुहल्ला तो दूर, कोई घर परिवार भी अविभाजित रहने देंगे या नहीं। इस विभाजन रूपी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक ही हथियार है- विभिन्न प्रकार के विशेषाधिकार। उन लोगों ने कदाचित यह स्वीकार कर लिया है कि हमारा देश समाज के एक अंग को वंचित किए बिना दूसरे अंग को कुछ नहीं दे सकता। अर्थात हमारे देश में शिक्षा का कभी इतना प्रसार नहीं होगा कि प्रत्येक व्यक्ति, जो जहां भी है, अपना विकास कर पाए। इसलिए यह आवश्यक हो गया है कि या तो दूसरे का विकास अवरुद्घ कर के अपना विकास किया जाए या अपने पिछड़ेपन को अपना विशेषाधिकार मान कर बिना विकास के ही विकास की सुविधाओं और सम्मान को प्राप्त किया जाए। ये सत्ताकर्मी मानते हैं कि इस देश में कभी रोजगार के इतने अवसर नहीं होंगे कि बिना दूसरे का मार्ग अवरुद्घ किए, अपने लिए आजीविका प्राप्त की जा सके। इसलिए शिक्षण संस्थाओं के साथ-साथ नौकरियों में भी जाति, धर्म, प्रदेश, भाषा, व्यवसाय, तथा लिंग के आधार पर आरक्षण की योजनाएं बनाई जा रही हैं। आज ये आरक्षण लगभग पचास प्रतिशत के पास पहुंच गए हैं। और जिस दिशा में हवा चल रही है, इसके और आगे बढ़ने के संकेत मिल रहे हैं। इससे न केवल देश की मेधा अपनी योग्यता के आधार पर आगे बढ़ कर देश का नेतृत्व नहीं कर पाएगी, वरन अयोग्य को अपने शीश पर सहन न कर सकने के कारण देश का सर्वनाश भी करेगी क्योंकि आरक्षण का अर्थ योग्यता का विकास नहीं है। वस्तुत: आरक्षण विशेषाधिकार का नाम है और विशेषाधिकार विकास की आवश्यकता को नकारता है।
ऐसा नहीं है कि मुझे पिछड़े हुए दुर्बल, असहाय, दमित, दलित, लोगों से सहानुभूति नहीं है। मैं यह भी जानता हूं कि हमारे समाज का ढांचा कुछ ऐसा था, जिससे अनेक लोगों पर अत्या चार भी हुआ, उनका दमन भी हुआ, और उनके विकास के अवसर उनसे छीन लिए गए। हम इसका प्रतिकार करना चाहते हैंय किंतु उसे प्रतिशोध का रूप देना नहीं चाहते। प्रतिशोध प्रतिहिंसा को जन्मह देता है। इतिहास के क्रम में अतीत में जिन्हों ने अत्याशचार किया है, वर्तमान में वे विद्यमान भी नहीं होते, जिससे उनसे उनके त्योंे को प्रतिशोध लिया जा सके। या उन्हेंश दंडित किया जा सके। यदि हम प्रतिशोध की बात करते हैं तो उन लोगों को दंडित करते हैं, जिन्होंकने यह अपराध किया ही नहीं है। हम समाज में वर्ग-भेद मिटाना चाहते हैं तो जो सचमुच दलित हैं, उनके विकास के मार्ग की बाधा को हटाना होगा। सब को विकास के समान अवसर देने होंगे। किंतु अन्यक लोगों के विकास को न तो रुद्घ करना होगा, न उन्हें समान अधिकारों से वंचित करना होगा। यदि हम यह मानते हैं कि हमारे देश में नारी का दमन और शोषण हुआ है, तो उसका समाधान नारी को उस दमन और शोषण से मुक्ता करने में है, न कि उसे यह सिखाने में कि उसे पुरुष का शोषण और दमन करना है।
वस्तुनतरू जीवन और समाज को उसकी समग्रता में न देख पाने के कारण हम में यह खंड बुद्घि उपजी है। यदि हम समाज में वैषम्यन न खोज कर सामंजस्यं खोजें तो समाज और देश का विकास इस ढंग से करें कि उसका लाभ समाज के प्रत्येसक व्यदक्ति को मिले। विश्रामकक्ष की सफाई शोभनकक्ष को गंदा कर के नहीं होती। पूरा घर साफ होगा तो शोभनकक्ष भी साफ होगा, रसोई भी और शौचालय भी। उसी प्रकार यदि हम समाज का समग्र विकास करेंगे तो उससे किसान को भी लाभ होगा, मजदूर को भी, सिपाही को भी, और बुद्घिजीवी को भी। किसान को सिपाही से लड़वा कर, अथवा बुद्घिजीवी को मजदूर से लड़वा कर हम किसी का भी हित नहीं करेंगे। यदि मनुष्य को स्वास्थल रहना है तो उसे सारे शरीर को एक इकाई में देखना होगा। भुजाओं को दुर्बल करके हम टांगों को शक्तिशाली नहीं बना सकते। इसलिए हमारे नेताओं को समूचे देश के नेता बनने का प्रयत्नं करना चाहिए। किसी एक अंग को अपना पिछलग्गून बना कर उन्हें शेष समाज से काट कर, उनका अहित कर, स्वियं को कुर्सी पर बैठाने का पाप उन्हें नहीं करना चाहिए। यह पाप कभी सुफलित नहीं हो सकता रू विनाश को आमंत्रित अवश्यि कर सकता है। 

-नरेन्द्र कोहली

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