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लग्न, मुहूर्त के आधार पर व्यक्तियों की कुंडली बनाने वाले लोग देशों की भी कुंडलियां बनाते हैं। परंतु क्या किसी राष्ट्र के जन्म क्षण को पकड़ना संभव है? गुण-संस्कारों का बीज तो जन्म से पहले पड़ता है। चेतना तो जन्म से पहले ही विद्यमान रहती है। तो इस देश की कुंडली कैसे बने? कैसे पता लगे कि यह देश क्या था, क्या है और क्या होगा? वैसे, पत्री-पोथे से बांधे बगैर राष्ट्र के जीवन पथ की भविष्यवाणी के लिए कुछ प्रबंधकीय कसौटियां जरूर हैं। शक्ति, कमजोरी, अवसरों की उपलब्धता और आशंकाओं का आकलन बता सकता है कि हम कब, कहां से चले और संभवत: कहां पहुंचेंगे।
पाञ्चजन्य के स्वतंत्रता दिवस विशेषांक में ऐसा ही प्रयास हमने किया है। इस देश की क्षमताओं और अड़चनों का विषय-विशेषज्ञों द्वारा विश्लेषण बताता है कि इस देश के लिए संभावनाओं का आकाश कितना विस्तृत है और कहां-कहां बादल छाए हैं।
शक्ति की बात करें तो हर ऐतिहासिक संघर्ष से पार निकलने की जिजीविषा इस राष्ट्र की पूंजी है। इसमें भी खास बात यह कि जीवित ही नहीं बचना बल्कि बड़ी से बड़ी 'रगड़' के बाद विजिगीषु चमक के साथ लौटना इस देश का सांस्कृतिक स्वभाव है।
वैचारिक विविधता को खुले मन से स्वीकारने वाली इस भूमि की विशेषता है नवोन्मेष और परंपरागत ज्ञान के बीच अद्भुत तालमेल। पश्चिम जब गैलीलियो (1564 ई.-1624 ई.) को गरिया रहा था उससे हजार साल पहले भारत ने आर्यभट्ट (476ई.-550ई.) और वाराहमिहिर (505ई.-587ई.) के ज्ञान चक्षुओं से ब्रह्मांड को देखना, समझना प्रारंभ कर दिया था। मेधा संपन्न, कुशल मानव संसाधन से भरा भारत विश्व का सबसे युवा देश है। 'आर्ग्यूमेंटेटिव इंडिया' के लेखक, नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के अनुसार यह इकलौता ऐसा देश है जिसके तर्क और विश्लेषण क्षमता का लोहा दुनिया मानती है। इसके अतिरिक्त भी इस राष्ट्र में वैश्विक सम्मोहन के प्रचुर तत्व हैं। योग, अध्यात्म एवं आयुर्वेदिक चिकित्सा का वैज्ञानिक ज्ञान और इसके प्रतिनिधि चेहरे आज भारत के संभावनाशील 'ब्रांड एम्बेसेडर' हैं। एक अन्य बात है जिसके कारण कोई भारत को नजरंदाज नहीं कर सकता। वह है इसकी रणनीतिक तौर पर अत्यंत महत्वपूर्ण स्थिति। पश्चिम एशिया की भारी उथल-पुथल के मुहाने पर इस सबसे बड़े लोकतंत्र में दुनिया वैश्विक आश्वस्ति के राजनीतिक-सामरिक सूत्र खोज रही है। किन्तु सब कुछ अच्छा हो यह जरूरी नहीं। और न ही ऐसा है। समय के साथ कदमताल अच्छी बात है लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नीति नियंताओं ने पहले चाल और फिर लीक ही बदल डाली। और शायद इसी कारण नालंदा और तक्षशिला जैसे ज्ञानकेंद्रों की परंपरा वाले देश का आज यह हाल है कि विश्व के शीर्ष शिक्षण संस्थानों में इसका एक भी संस्थान नहीं है।
मेधा और उद्यमिता का राष्ट्र धारा में सदुपयोग करने की बजाय दशकों तक इसकी उपेक्षा हुई। परिवारवाद और भ्रष्टाचार ने राष्ट्र के प्रति प्रेम और समाज के सहज-सबल नेतृत्व को पनपने से रोकने का काम किया। भारी जनसंख्या वाले देश में सिद्धहस्त कामगारों की कमी और श्रम के बढ़ते मूल्य की समस्या सिद्धांतत: होनी ही नहीं थी किन्तु विविध क्षेत्रों में दक्ष, प्रशिक्षित कामगारों और विशेषज्ञ पेशेवरों का अभाव दिखता है। भर्ती संबंधी ढांचागत अड़चनों और अंग्रेजी पर जोर जैसी विसंगतियों के कारण न्याय प्रक्रिया की सुस्ती और जनोन्मुखी ना होना भी एक बिंदु है जिस पर विचार आवश्यक है। यह सब नीतियों के क्रियान्वयन में अधूरेपन का परिचायक है। खस्ताहाल आधारभूत ढांचे वाले भारत को देशानुकूल कानूनों और प्रबंधकीय मॉडल की आवश्यकता है।
तुष्टीकरण की राजनीति से उपजे गतिरोधों ने भी समाज व्यवस्था को आहत किया है। ऐसे में सबको साथ लेकर भूमंडलीकरण के दौर में आगे बढ़ने की चुनौती भारत के सामने है। लेकिन यह भी सच है कि चुनौतियों का ताला संकल्प की चाबी से ही खुलता है। पश्चिम एशिया के बाजारों में संबंधों का परंपरागत आधार भारत की ऐसी पूंजी है जिससे उद्यमिता विकास, व्यापार और रोजगार के बड़े रास्ते खुल सकते हैं। दुनिया को उच्च गुणवत्ता की सेवा प्रदान करने में सक्षम संसाधन संपन्न विभिन्न क्षेत्र भारत के पास हैं। सिर्फ बीपीओ या कॉल सेंटर की परोक्ष सेवाओं से बाहर निकलकर निर्माण जैसे प्रत्यक्ष क्षेत्र में कौशल प्रदर्शन का मौका भी है और आवश्यकता भी। विशालतम बाजार की शक्ति के अलावा ज्ञान और चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में सबसे बड़े वैश्विक ब्रांड के तौर पर उभरने का मौका आज भारत के पास है। वैसे, 67 वर्ष का यह लोकतंत्र न तो सिर्फ राजनीतिक भूल-चूक, लेनी-देनी का बही-खाता है और न ही इस भूमि का स्वभाव विशुद्ध राजनीतिक है। यदि कुछ गड़बडि़यां और कमजोरियां दिखती भी हैं तो इसका उपचार करने की क्षमता भारतीय समाज अपनी स्मृति परंपराओं और भारतीयता के अनुरूप नवोन्मेष के आधार पर कर सकता है।
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