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इराक और सीरिया में जारी खून-खराबे का भारत की विदेश नीति पर बहुआयामी प्रभाव पड़ेगा। इस प्रभाव को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, वैचारिक, सैन्य और कूटनीति के स्तरों पर विश्लेषित किया जा सकता है। हम यहां मुख्य रूप से पश्चिमी एशिया में इसके आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और रणनीतिक प्रभावों की चर्चा करेंगे।
आर्थिक प्रभाव
इन दिनों अर्थव्यवस्था विदेश नीति का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है। पश्चिम एशिया में अस्थिरता में भारत की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव डालने की बड़ी ताकत है। यह क्षेत्र भारत की ऊर्जा जरूरतों का 75-80 प्रतिशत आयात करता है। इराक, ईरान या सऊदी अरब में गिरावट भारत की आर्थिक और ऊर्जा सुरक्षा के लिए बहुत बुरी हो सकती है। इसके बाकी दूसरे आयामों पर गहरे प्रभाव पड़ेंगे जिनको अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस क्षेत्र के देशों के साथ अपने पारंपरिक जुड़ाव और अच्छे संबंधों का इस्तेमाल करना बेहद जरूरी है।
सामाजिक प्रभाव
अनिवासी भारतीय सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दा है, खासकर खाड़ी में। 46 नर्सों पर आया संकट समस्या की एक छोटी सी झलक ही था, जिसने भारत के सभी कूटनीतिक संसाधनों को एकजुट होने के लिए मजबूर कर दिया था। अगर इस क्षेत्र में संघर्ष बढ़ता है तो 2.5 मिलियन लोगों की जिन्दगी और सुरक्षा दाव पर लग जाएगी। हमारे पास ऐसे संकट से निपटने के लिए न तो ढांचा है, न तंत्र, न ही ताना-बाना। हमें ध्यान रखना होगा कि संकटपूर्ण परिस्थितियों को कूटनीतिक स्तर पर ही नहीं संभाला जा सकता। बेशक, आधिकारिक तंत्र महत्वपूर्ण है लेकिन गैर आधिकारिक और सभ्य समाज से अच्छे संबंध बनाए रखना भी उतना ही जरूरी है। हालांकि अर्थव्यवस्था और कूटनीति महत्वपूर्ण है, पर लेबनान के सबक ने दिखाया है कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तानाबाना संकटपूर्ण परिस्थिति में काम आता है, खासकर सामाजिक मुद्दों से निपटने में।
राजनीतिक-रणनीतिक प्रभाव
राजनीतिक-रणनीतिक स्तर पर, केवल इराक ही नहीं बल्कि इस क्षेत्र में काफी सारी राजनीतिक और मजहबी उठापटक भी है। चाहे इजिप्ट में मुस्लिम ब्रदरहुड हो, ट्यूनीशिया से शुरू हुआ और अरब बसंत हो जो लीबिया और सीरिया में होता हुआ इराक जा पहुंचा है। सीरिया और इराक के बीच बदलते हालात के चलते अमरीका-ईरान का परमाणु मुद्दे पर आमना-सामना हो, अमरीका-सऊदी अरब में संबंधों में उतार की बात हो, कुर्द मुद्दे और ईरान-सऊदी संबंध अटकते ही रहेंगे। ये मान्यता कि अमरीका अपने हित खो रहा है, एक गलत मान्यता होगी। इससे से भी बढ़कर, पश्चिम एशिया में मुद्दा केवल तेल और गैस का नहीं है, फिर भी अमरीका इस क्षेत्र का महत्व को अनदेखा करना गवारा नहीं कर सकता।
अलकायदा, आईएसआईएस और दूसरे अनेक आतंकी गुटों की मौजूदगी एक और महत्वपूर्ण राजनीतिक और रणनीतिक चिन्ता का विषय है। इसकी प्रतिक्रिया में शियावाद का उभरना एक और अनदेखा रहा आयाम है। यह केवल ईरान तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें अब शिया कोण भी है। भारत के लिए ईरान और सऊदी संबंधों में संतुलन लाना सबसे बड़ी कूटनीतिक चुनौती है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में भी इसका बड़ा असर पड़ेगा। क्या अफगानिस्तान में इराक की तरह अमरीकी व्यवस्था के ढहने की संभावना है, यह सबसे ज्यादा चिंताजनक सवाल है। क्या तालिबान वास्तव में अफगानिस्तान-पाकिस्तान में हाशिये पर चला गया है और इराक में इस घटनाक्रम पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी? अमरीका के वहां से पूरी तरह से निकल जाने के बाद क्या होगा? क्या तब अफगानिस्तान ढह जाएगा, फिर पाकिस्तान पर उसका प्रभाव क्या पड़ेगा और उसके साथ ही जम्मू कश्मीर में क्या होगा? हालांकि भारत पर सीधे असर और आतंकवादियों के अपनी बंदूकें जम्मू कश्मीर की तरफ मोड़ने की संभावना कम है, लेकिन भारत अफगानिस्तान में अपना रणनीतिक महत्व खो सकता है। इससे कुल मिलाकर सामाजिक परिस्थिति सुरक्षा हालात के लिए खतरा पैदा कर सकती है।
आंतरिक तौर पर दक्षिण एशिया और भारत पर इस परिस्थिति का असर पड़ सकता है। शिया समुदाय में बढ़ता जुनून एक खतरनाक संकेत है। भारतीय मुसलमानों में कट्टरता बढ़ने की संभावना है लेकिन इसके साथ ही कुछ मुस्लिम के उदारवादी इस्लाम को सामने लाने की भी संभावना है। आज जरूरत है कि भारत के मुसलमानों को मुख्यधारा से जोड़ा जाए, खासकर शिक्षा और रोजगार के अवसर उपलब्ध कराए जाएं। किस्मत से भारतीय मुसलमानों ने शिक्षा के महत्व को समझना शुरू कर दिया है। कुछ मौलवी भी इसका प्रसार कर रहे हैं। इसे हमें सही तरीके से देखना होगा।
इसलिए अगर भारत संकटपूर्ण स्थिति से निपटने में पहल करता है, बड़ी ताकतों के साथ संतुलन बनाए रखते हुए बात करता है और मुस्लिम जनमत को सावधानीपूर्वक संभालता है, परिस्थिति से भली प्रकार निपटता है, तो हम पश्चिम एशिया के संकट से उभरने वाले मुद्दों और चुनौतियों से निपटने में बेहतर स्थिति में होंगे।
(ले.जन. (से नि) एस.ए. हसनैन जम्मू-कश्मीर में कोर कमांडर रहे हैं)
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