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देवेन्द्र स्वरूप
14 के चुनाव परिणामों की सबसे बड़ी देन यह है कि जो पार्टी सोनिया के नेतृत्व में 2004 से दस साल तक केन्द्र में सत्ता पर काबिज थी, वह 2014 के चुनावों में केवल 44 सीटों पर सिमट गई और वह संसद में विपक्ष की वैधानिक दर्जा प्राप्त करने की स्थिति में भी नहीं रही। उस पार्टी का ऐसा पतन क्यों हुआ? उसके लिए कौन जिम्मेदार है? इसकी जड़ों तक जाने का साहस सोनिया मंडली ने तो दिखाया ही नहीं। पर वह मीडिया,जो अपने को सर्वशक्तिमान समझता है और जो अपने अहं को नाक की बाल बनाकर घूमता है, उसने भी यह साहस नहीं दिखाया। इस पराजय के लिए सबको दोषी ठहराया गया, केवल उसे छोड़कर जिसके हाथ में इस पार्टी की नकेल है अर्थात् सोनिया और उनके पुत्र राहुल को छोड़कर। सब जानते हैं कि गांधी युग से चली आ रही कांग्रेस हाईकमान की परिभाषा 1991 में राजीव गांधी की मृत्यु के बाद से इटली पुत्री सोनिया में सिमट गई है। सोनिया के निवास स्थान 10, जनपथ में ही सब निर्णय लिए जाते हैं। वहीं से राज्यों के मुख्यमंत्रियों के नाम तय होते हैं, वफादारों को राज्यपाल पद दिया जाता है, प्रांतीय कमेटियों के अध्यक्ष भेजे जाते हैं। यहां तक कि दस वर्ष तक देश के प्रधानमंत्री पद पर मनमोहन सिंह का चयन जनता के द्वारा नहीं,बल्कि 10 जनपथ ने किया। वे लोकसभा के रास्ते से नहीं, राज्यसभा के रास्ते इस पद तक पहुंचे और इस महत्वपूर्ण पद के लिए उनका चयन सोनिया और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के स्व. हरकिशन सिंह सुरजीत ने मिलकर लिया।
यह भी जगजाहिर है कि मनमोहन सिंह का चयन करने के एक दिन पहले सोनिया को पहले उनकी पार्टी और फिर यूपीए गठबंधन के सांसदों ने अपना नेता चुना था और उसी हैसियत से वह अपने समर्थक सांसदों की सूची लेकर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.अब्दुल कलाम को मिली थीं। वहां कुछ तो हुआ कि वे राष्ट्रपति भवन से वापस लौटीं और अगले दिन मनमोहन सिंह को सामने रखकर राष्ट्रपति को मिलीं। मनमोहन इन दस वर्षों में एक क्षण के लिए भी यह नहीं भूले कि वे प्रधानमंत्री की गद्दी पर अपने कारण नहीं तो सोनिया की कृपा से बैठे हुए हैं और इसलिए उन्होंने कोई नीति या नियुक्ति संबंधी निर्णय 10 जनपथ से पूछे बिना नहीं लिया। रोज समाचार पत्रों में पूरे पृष्ठ के विज्ञापनों में मनमोहन से पहले सोनिया का चित्र छपता रहा। जिन पी.वी.नरसिंह राव ने मनमोहन को पहली बार मंत्री बनाया था उन नरसिंह राव की इन दस वर्षों में पूर्ण उपेक्षा की गई। उनके जन्मदिवस और मृत्यु दिवस की याद तक देशवासियों को नहीं दिलाई। सोनिया पार्टी के किसी कार्यक्रम में नरसिंह राव के चित्र नहीं लगाए गए। जनहित की किसी सरकारी योजना का नामकरण उनके नाम पर नहीं किया गया, जबकि राजीव की जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर करोड़ों अरबों के पूरे-पूरे पेज के विज्ञापन देशभर की सब भाषाओं के दैनिक पत्रों पर छाए रहे। अधिकांश योजनाओं, विमानपत्तनों, सड़कों, चौराहों का नामकरण राजीव के नाम पर किया गया। इस स्थिति से व्यथित होकर एक बार हमने प्रश्न उठाया था कि भारत वर्ष का नाम 'राजीव वर्ष' होने में कितनी देर है?
मनमोहन सिंह के प्रेस सचिव और मित्र संजय बारू ने अपनी पुस्तक ' दि एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर मनमोहन सिंह' में तथ्यों के साथ प्रमाणित किया है कि प्रधानमंत्री के नाते मनमोहन सिंह का प्रत्येक निर्णय 10 जनपथ में लिया गया था। इसी प्रकार जिन दिनों मनमोहन सिंह स्वयं कोयला मंत्रालय को संभाल रहे थे उन दिनों के कोयला सचिव श्री पारिख ने भी एक पुस्तक में यह प्रमाणित किया है कि जिन विवादास्पद निर्णयों के लिए अनेक लोगों पर मुकदमे चलाए जा रहे हैं वे सब निर्णय मनमोहन सिंह ने स्वयं 10 जनपथ के निर्देश पर लिए थे। इन दो पुस्तकों के बाद तीसरी पुस्तक योजना आयोग के सदस्य अरुण मोयरा ने प्रकाशित की है। उस पुस्तक में भी मनमोहन सिंह के सब निर्णयों के लिए सोनिया को जिम्मेदार ठहराया गया है।
किंतु हमारे मीडिया में यह साहस आज तक नहीं हुआ कि वह सोनिया से साक्षात्कार का समय लेकर इन पुस्तकों में दिए गए तथ्यों की सत्यता के बारे में छानबीन करे। सच तो यह है कि 2004 से आजतक किसी तीस मार खां सम्पादक को सोनिया का साक्षात्कार प्राप्त नहीं हुआ। क्या वे 10 जनपथ से आतंकित हैं? सोनिया ने हमारे मीडिया की कमजोरी को पूरी तरह भांप लिया है कि जो बोलोगे मीडिया उसी की चर्चा करेगा। उसी पर बहस करेगा। इसलिए सोनिया ने आजतक अपने से जुड़े किसी भी विवाद पर अपना मुंह नहीं खोला और हमारा नपुंसक मीडिया उसका मुंह नहीं खुलवा पाया। वह रोमन अक्षरों में लिखे दो चार पंक्तियों के हिन्दी भाषण को मंच पर आकर पढ़ती हैं और मीडिया उसी की सुर्खियां बनाता रहता है, उसी को बार-बार कोट करता रहता है।
सोनिया ने प्रयत्नपूर्वक एक 'त्यागमूर्ति' की छवि ओढ़ी है। भारत के प्रति उनके प्रेम की गहराई को जानने के लिए यही एक तथ्य काफी है कि राजीव से प्रेम विवाह के पश्चात् 1967 में भारत के प्रधानमंत्री निवास में प्रवेश पाने के बाद सोनिया ने 1982 तक भारत की नागरिकता तब तक ग्रहण नहीं की जब तक उन्हें यह विश्वास नहीं हो गया कि इंदिरा का उत्तराधिकार राजीव को मिल सकता है। प्रधानमंत्री निवास का अंग बनने के बाद भी 1977 में इंदिरा कांग्रेस की पराजय के बाद जब जनता दल के शासनकाल में इंदिरा गांधी पर आपत्तियों के बादल छाए रहे तब इंदिरा जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होने के बजाए सोनिया अपने बच्चों और राजीव को लेकर इटली के दूतावास की शरण और सुरक्षा में चली गईं।
सोनिया ने प्रयत्नपूर्वक त्यागमूर्ति की छवि ओढ़ी है। पाठकों को स्मरण होगा कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार जब एक मत से गिर गई थी तब सोनिया ने सीपीएम के सुरजीत और ज्योति बसु की सहायता से प्रधानमंत्री पद पाने की बहुत कोशिश की थी। उन्होंने वामपंथी रूझान के राष्ट्रपति के.आर.नारायणन के समक्ष 272 सांसदों के समर्थन का दावा भी पेश किया। किंतु सांसदों के हस्ताक्षरों की संख्या गिनने पर दावा झूठा निकला था। राजग के शासनकाल में सोनिया हरकिशन सिंह सुरजीत के मार्गदर्शन में सत्ता पाने की रणनीति बिछाती रहीं, उन्होंने योजनापूर्वक मुस्लिम वोट बैंक को भाजपा के विरुद्ध खड़ा किया और 2004 में वे सत्ता के दरवाजे मेंे प्रवेश कर गईं।
इन दस वर्षों में वे प्रत्यक्ष रूप में सत्ता से दूर रहीं, पर सत्ता के सब सूत्रों का संचालन करती रहीं। प्रधानमंत्री को प्राप्त सुरक्षा एवं अन्य सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक महत्वपूर्ण यात्रा में मनमोहन सिंह को साथ लेकर जाती रहीं। उन्होंने मनमोहन सिंह का महाभारत के शिखंडी की तरह इस्तेमाल किया और वे अपने पुत्र राहुल को सत्ता का उत्तराधिकार सौंपने की गोटियां बिछाती रहीं। कितने आश्चर्य की बात है कि हमारा सर्वज्ञानी मीडिया सोनिया राहुल वंश को नेहरू गांधी वंश के नाम से सम्बोधित करता है। नेहरू का नाम इंदिरा के साथ समाप्त हो जाना चाहिए था, क्योंकि पारसी मूल के फिरोज घाण्डी से विवाह के बाद इंदिरा नेहरू कहलाने की अधिकारी नहीं रह गयी थीं, किंतु उनके प्रेमी पति फिरोज घाण्डी से गांधी कब हो गए, इसकी खोज हमारे चतुर सुजान पत्रकारों को अवश्य करनी चाहिए। घाण्डी कुल नाम का इतिहास वे तिहाड़ जेल में बंद नक्सली बुद्धिजीवी 'कोबाड घाण्डी' से जान सकते हैं। राजीव सोनिया वंश को नेहरू गांधी वंश का नाम देकर मीडिया स्वाधीनता आंदोलन के दो लोकप्रिय वंदनीय नामों को विदेशी रक्त से जोड़ रहा है। शब्दों व नामों का अपना महत्व होता है। शायद इसी महत्व के कारण फिरोज के वंशनाम घाण्डी का गांधी में रूपातरंण किया गया है। राहुल को गांधी नहीं राहुल घाण्डी कहा जाना चाहिए। उसी प्रकार राजीव घाण्डी की पत्नी सोनिया माईनो को सोनिया घाण्डी कहा जा सकता है।
इससे भी बड़ा झूठ जो मीडिया हमें परोस रहा है वह है सोनिया पार्टी को 1885 में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नाम देकर। इतिहास का प्रत्येक विद्यार्थी जानता है कि 1885 में स्थापित कांग्रेस का चरित्र परिवर्तन 1920 में हो गया था जब गांधी जी ने उसके लिए नया संविधान बनाया, उसकी प्राथमिक सदस्यता के लिए नए नियम निर्धारित किए। इसके बाद जो कांग्रेस स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व कर रही थी वह गांधी की कांग्रेस थी। 1948 में अपनी मृत्यु के पूर्व गांधी जी उस कांग्रेस को विसर्जित करने का आदेश दे गए थे। किंतु नेहरू जी ने उस आदेश को नहीं माना और कांग्रेस नाम बनाए रखा। पर 1950 में जब सरदार पटेल और नेहरू जी की विचारधाराओं में टकराव हुआ तब नेहरू के प्रत्याशी आचार्य कृपलानी को हराकर पटेल द्वारा समर्थित राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन अध्यक्ष चुने गए तब नेहरू ने उन्हें स्वीकार नहीं किया और दिसम्बर, 1950 में सरदार पटेल की मृत्यु का लाभ उठाकर राजर्षि टंडन को त्यागपत्र देने को विवश कर दिया। तब एक व्यक्ति, एक पद के सिद्धांत का अतिक्रमण कर वे प्रधानमंत्री के साथ-साथ कांग्रेस अध्यक्ष भी बन बैठे। तभी से कांग्रेस सत्ता की चेरी बनने की दिशा में चल पड़ी।
1959 में नेहरू ने अपनी पुत्री इंदिरा गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर वंशवाद की उस परंपरा को आगे बढ़ाया जिसे 1928 में उनके पिता मोती लाल नेहरू ने अपने पुत्र जवाहरलाल नेहरू को अगला कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की प्रार्थना की थी।
कांग्रेस अध्यक्ष पद पर सवार इंदिरा जी 1966 में प्रधानमंत्री पद पर पहुंच गईं और 1969 में उन्होंने कांग्रेस का विभाजन करके
स्वतंत्रता आंदोलन से निकले सभी वरिष्ठ नेताओं को कांग्रेस से
अलग होने को मजबूर कर दिया। सत्ता से जुड़े रहने को आतुर
चाटुकारों की भीड़ को उन्होंने इंदिरा कांग्रेस नाम दिया। इसके बाद कांग्रेस के नाम पर जो टोली बची उसने विधिवत अपना नाम इंदिरा कांग्रेस रखा। उस कांग्रेस की मानसिकता का उदाहरण आपातकाल में प्रगट हुआ जब इंदिरा कांग्रेस के अध्यक्ष डी.के.बरुआ ने सगर्व कहा, 'इंदिरा भारत है, इंडिया इंदिरा है।'
पी.वी.नरसिंह राव के नेपथ्य में चले जाने के बाद जो मंडली सोनिया के साथ खड़ी रही उसे सोनिया पार्टी या सोनिया कांग्रेस कहा जा सकता है। 129 साल पुरानी इंडियन नेशनल कांग्रेस तो कदापि नहीं। इसलिए हमारा कहना है, 'नकली गांधी, नकली कांग्रेस, झूठ परोसे मीडिया।'
यदि मीडिया सत्य के प्रति निष्ठावान है तो उस सोनिया पार्टी की
पराजय का पूरा दायित्व उसकी अध्यक्ष सोनिया और उनके पुत्र राहुल घाण्डी, जिन्हें सोनिया ने अपनी पार्टी का उपाध्यक्ष बनाकर घाण्डी वंश का अध्याय आगे बढ़ाया, पर मढ़े। हमारा मीडिया कहां खड़ा है,यह सत्य सामने आ जाएगा।
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