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16 वीं लोकसभा के पहले सत्र में श्रीमती सुमित्रा महाजन को निर्विरोध अध्यक्ष चुना गया। पद संभालते ही कार्य निर्वहन की क्षमता की झलक वह बखूबी दिखा चुकी हैं। नया दायित्व मिलने के बाद विशेष साक्षात्कार में उन्होंने अपने राजनीतिक सफर और आसन्न चुनौतियों पर पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर एवं ऑर्गनाइजर के संपादक प्रफुल्ल केतकर से लंबी बात की। नई लोकसभा अध्यक्ष के लिए संसद में बहस का स्तर एवं विषयों की गुणवत्ता सुधारना प्राथमिकता है ताकि जनता का भरोसा लोकतांत्रिक व्यवस्था में बना रहे।
लोकसभा अध्यक्ष चुने जाने पर हार्दिक शुभकामनाएं। हालांकि आपकी राजनैतिक यात्रा काफी लंबी है मगर जनता के लिए आपका निजी जीवन अज्ञात सा ही है। क्या आपके परिवार में किसी की राजनैतिक पृष्ठभूमि रही है?
सच कहूं तो बिल्कुल भी नहीं। न मायके, न ससुराल पक्ष में। किसी की कोई राजनैतिक पृष्ठभूमि नहीं रही…परंतु परिवार में सदा से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संस्कार अवश्य था। मेरे पिताजी महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र स्थित चिपलूण के संघचालक थे और मां राष्ट्रसेविका समिति की सक्रिय कार्यकर्ता। इंदौर के जिस महाजन परिवार में मेरा विवाह हुआ वहां भी समाज सेवा का स्वाभाविक वातावरण था। यही वजह है कि समाज के लिए कुछ करने की चाह हमेशा से मन में थी। अपने बारे में दूसरी बात कहूं तो वो है पढ़ने की आदत। बचपन से ही मेरी आदत थी कि कागज का टुकड़ा भी मिल जाए तो बिना पढ़े उसे फेंकती नहीं थी। इससे बचपन से ही जीवन के विविध पहलुओं को समझते हुए बड़ी हुई।
वो कौन से लोग थे जिनसे आपको राजनीति में आने की
प्रेरणा मिली ?
राजनीति के दो अलग-अलग धु्रवों पर खड़े लोगों के कारण राजनीति में मेरा पदार्पण हुआ। पहली श्रीमती इंदिरा गांधी जिन्होंने 1975 में आपातकाल लगाया। यह एक घटना थी जो मुझे सार्वजनिक जीवन में ले आई। इस दौरान मेरा जिम्मे राजनीतिक बंदियों के परिवार के बीच संयोजन और सहायता का काम था। इसके बाद जब चुनावों की घोषणा हुई तो विपक्ष के बहुत से वरिष्ठ नेता जेल में थे। लोग सार्वजनिक स्थानों पर कोई भी चर्चा करने से डरते थे। मैंने जनता के साथ कुछ बैठक करने की सलाह दी। यह सीधे तौर पर राजनीति से जुड़ने का मेरा पहला मौका था। इसी दौरान मेरा स्वर्गीय कुशाभाऊ से परिचय हुआ। मैं उन्हीं की प्रेरणा से सक्रिय राजनीति में आई। ठाकरे जी और इंदिरा जी की वजह से मेरा सक्रिय राजनीति में प्रवेश हुआ।
लोगों को सत्र के पहले ही दिन अनुभव हुआ कि शोर-शराबे वाली कक्षा को एक 'सही प्रधानाचार्य' मिल गई हैं। वैसे, आप की छवि स्नेहिल व नम्र स्वभाव वाली ताई की है। क्या आपको लगता है कि आपकी यह छवि सदन में अनुशासन स्थापित करने में अड़चन बन सकती है ?
यदि वास्तविकता की बात करें तो जो लोग सदन में शोर-शराबा करते हैं वे भलीभांति संसद के नियम व कायदों से परिचित होते हैं। यदि नियमों को नहीं मानते हैं तो वे नए चुनकर आए लोगों के सामने एक गलत उदाहरण पेश करेंगे। लोकसभा अध्यक्ष होने के नाते संसद के नियमानुसार कार्य करना मेरा कर्तव्य है। जहां तक मेरी छवि की बात है तो जो लोग मुझे करीब से जानते हैं उन्हें मालूम है कि मैं नियमों और कायदों से कोई समझौता नहीं करती। सदन में सभी के लिए मेरा व्यवहार वैसा ही होगा फिर चाहे वह कोई भी हो।
जब आपको अपनी इस नई जिम्मेदारी के बारे में पता चला तो क्या आपने इसके लिए कोई विशेष तैयारी की थी ?
ईमानदारी से कहूं तो मुझे कुछ बहुत ज्यादा करने का मौका नहीं मिला। वैसे एक सांसद के तौर पर मैंने सदन की कार्यवाही में लगातार भाग लिया है और बारीकी से सबकुछ देखा और समझा है। मेरा नाम इस पद के पैनल में लंबे समय से रहा है। मैं संसद की कार्यवाही उसके नियम व कायदों के बारे में अच्छी तरह से जानती हूं। भाजपा के सांसद के तौर पर सदन की कार्यवाही में शामिल होने के दौरान जब राजनीति के चलते कोई सांसद गलत व्यवहार करता था तो मुझे दुख होता था। इस संंबंध में मैंने कई बार वरिष्ठ नेताओं से बातचीत की। मैंने इससे पहले रहे लोकसभा अध्यक्षों की कार्यशैली और सदन में उनकी भूमिका का अध्ययन किया है।
अध्यक्ष पद पर बैठे व्यक्ति के लिए सभी सदस्य एक समान हैं लेकिन महिला सांसदों को आपसे कुछ ज्यादा अपेक्षाएं होंगी। आमतौर पर होता यह है कि महिला सांसदों की बात पुरुषों की आवाज में दब जाती है, आपकी अध्यक्षता में क्या यह तस्वीर बदलेगी?
एक महिला होने के नाते एक सांसद के तौर पर मुझसे यह सवाल अक्सर पूछा जाता है। मैं हमेशा कहती हूं कि मैं अपने चुनाव क्षेत्र के सभी लोगों की प्रतिनिधि हूं इसलिए मैं उनकी सबकी तरफ से आवाज उठाऊंगी। मैं निश्चित तौर पर महिलाओं की वास्तविक समस्याओं का निराकरण करने की कोशिश करूंगी। मैं यह भी महसूस करती हूं कि महिलाओं को आगे आना चाहिए और कुछ मुद्दों पर अध्ययन करके सदन में अपनी छाप छोड़नी चाहिए। महिलाओं सहित सभी सांसदों को आक्रामक हुए बिना तर्क का स्तर ऊंचा रखते हुए प्रभावी तौर पर बिन्दुवार अपनी बात कहना सीखना होगा। कुछ विषयों पर तैयार भी रहना होगा। जैसे कि, मैं जानबूझकर वित्त विधेयक पर बोलने के लिए समय मांगा करती थी। इसके लिए मुझे कराधान के बारे में पढ़ने में काफी समय लगाना पड़ता था।
इस लोकसभा में 300 से ज्यादा नए (पहली बार चुने गए) सांसद हैं। आप उनसे क्या अपेक्षा करती हैं ? क्या उनके प्रशिक्षण का भी कोई प्रावधान है।
पहले तो हमें ये समझना चाहिए कि हम जब ये कहते हैं कि कुछ पहली बार चुने गए हैं, उसके बावजूद उनमें से कुछ राज्य विधानसभाओं के सदस्य रह चुके होते हैं। कुछ को तो स्थानीय सरकारों का अनुभव भी होता है। नियम और प्रक्रियाएं अलग हो सकती हैं, लेकिन साधारण क्रियान्वयन और अपेक्षाएं वहीं रहती हैं। कुछ ही हैं जो पहली बार चुने गए होते हैं। अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठकर मैं सदस्यों को उनके अनुभव के आधार पर वर्गीकृत करके उनसे व्यवहार करती हूं। लोकसभा सांसदों के लिए प्रशिक्षण का भी प्रावधान है। मैं इसे और सामंजस्यपूर्ण तथा अलग तरह का बनाने की कोशिश करूंगी। संसद के पुस्तकालय को भी ज्यादा आकर्षक बनाना होगा। यह बहुत अच्छे पुस्तकालयों में से एक है, सांसदों को उपलब्ध संसाधनों के बारे में जागरूक करना होगा।
भारतीय संसदीय प्रणाली में कुछ चीजें महज सजावटी हैं, अनेक तो विदेशी परंपराओं की कोरी नकल हैं। क्या आप इनमें बदलाव आता देखती हैं ?
कुछ सजावटी चीजें महत्वपूर्ण भी हैं। उनका संरक्षण किया जाना चाहिए। हमारा संविधान भी दूसरे कई संविधानों की चीजों को लेकर तैयार हुआ है। उन्हें यह भी याद रखना होगा कि संविधान निर्माताओं के मन में हमारी महान परंपरा के मूल्य मौजूद थे। इसलिए श्लोक और वेद की ऋचाएं संसद में उकेरी गई हैं। हम 'धार्मिक' या 'धर्म विरोधी' अर्थ में 'पंथ निरपेक्ष' नहीं हैं। यह 'धार्मिक' के साथ पूरी तरह मेल खाता है। हमें और संसद के कई सदस्यों को इसकी जानकारी नहीं है। मैं ही थी जिसने एक बार संसद में वेदों को संरक्षित करने का सुझाव दिया था क्योंकि वे हमारे प्राचीन समग्र ज्ञान को परिलक्षित करते हैं। यह एक धीमी और मानवता का पोषण करने वाली प्रक्रिया है। जब कभी भी जरूरी होगा आवश्यक बदलाव किए जाएंगे लेकिन परंपराओं से बहुत ज्यादा दूर होने की कोई जरूरत नहीं है।
लोकसभा अध्यक्ष के नाते आपकी प्राथमिकताएं और तीन चुनौतियां कौन सी हैं?
जब एक तरफ पूर्ण बहुमत है और विपक्ष बंटा हुआ है। ऐसे में संसदीय परंपराओं को पार्टी लाइन से ऊपर रखते हुए हर एक को बराबर मौका देना सबसे बड़ी चुनौती है। आमजन में विधायी प्रक्रियाओं के कामकाज और प्रभाव के बारे में भरोसा बहाल करना एक और चुनौती होगी। इसमें मीडिया को भी संतुलन की भूमिक निभानी होगी। संसदीय बहसों की विशेष कवरेज हुआ करती थी जो अब उतनी नहीं होती। शोर करने वाले और तर्क करने वाले सांसदों की बजाय ज्यादा वक्त और कवरेज उसे मिलनी चाहिए जो संसद में अर्थपूर्ण योगदान दे रहा हो। सकारात्मकता का भाव जगाना तीसरी चुनौती होगी। अधिकतम काम, पार्टी के अंदर समन्वय और संसद का अच्छी प्रकार कार्य करना मेरी प्राथमिकताओं में है। प्राथकिताएं चुनौतियों के साथ-साथ चलेंगी
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