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नया शिक्षा सत्र आरंभ होने के बाद पहले दो-ढाई महीने ज्यादातर विश्वविद्यालयों में सेमिनारों, राष्ट्रीय स्तर के विचारकों के भाषणों एवं कुछ कला जगत के कार्यक्रम होते हैं। पिछले कुछ वषोंर् से कुछ वामपंथी विचारधारा के संगठन कश्मीर में आत्मनिर्णय के अधिकार, तमिल लोगों की अस्मिता जैसे विषयों पर चर्चा सत्र आयोजित करते दिखते हैं। कश्मीर एवं तमिलनाडु राज्य देश के अन्य किसी भी राज्यों की तरह ही हंै, इसलिए उन राज्यों के मुद्दों पर चर्चा होने में कोई अलग बात नहीं है। लेकिन इनमें कश्मीर के आत्मनिर्णय का अधिकार अर्थात् 'उन्हें भारत से अलग जाने का अधिकार है', और तमिलनाडु के निवासियों की संस्कृति उत्तर भारत की आर्य संस्कृति से अलग है और वह संस्कृति अफ्रीका से होते हुए ईसाई संस्कृति से जु़ड़ी है, यह दुष्प्रचार करने का प्रयास किया जाता है। यानी समाज में विभाजन के बीज सीधे बोने का उनका प्रयास होता है। किसी विषय का यदि समय पर उत्तर न दिया जाए तो वह पहाड़ जैसा बन जाता है। इसका ये प्रत्यक्ष उदाहरण है।
लेकिन इसमें दिलचस्प तथ्य यह है कि ये बातें तमिलनाडु अथवा कश्मीर के किसी संगठन से नहीं आतीं बल्कि अमरीकी विश्वविद्यालयों से उनका सूत्रपात होता है। विश्व के अनेक देशों में इस तरह विद्रोह के बीज बोने का काम अमरीका के ये विश्वविद्यालय करते हैं। युवा पीढ़ी को इस ओर ध्यान देना चाहिए। ये समस्या अकेले भारत तक सीमित नहीं है। अफ्रीका में विद्रोह, चीन में पिछले पांच वषोंर् से जारी विद्रोह एवं रूस में नए सिरे से उभरते उग्रवाद आदि के अध्ययन करने वाले केंद्र भी अमरीकी विश्वविद्यालयों में दिखाई पड़ते हैं। विश्व के विचारकों का यह विश्वास है कि इन केंद्रों का उद्देश्य अनेक देशों में उग्रवादी घटनाओं का अध्ययन करने तक सीमित नहीं है बल्कि ऐसे विद्रोहों का सृजन करके शह भी वही देते हैं। 'ब्रेकिंग इंडिया' नामक 600 पृष्ठों की पुस्तक के बहुतांश पन्नों पर इसकी विस्तृत जानकारी दी गई है। बताया गया है कि पश्चिमी महासत्ताओं को विश्व पर अपना आधिपत्य कायम रखने के लिए विश्व के तमाम देशोें, राज्यों, जिलों तथा गली-कूचों में भी ये लड़ाइयां सतत जारी रहनी होंगी,यही इन महासत्ताओं का प्रयास होता है। इतना ही नहीं बल्कि पिछली दो सदियों से उस दिशा में सुनियोजित तरीके से प्रयास जारी हैं। वास्तव में अमरीकी सरकार, वेटिकन के कैथोलिक साम्राज्य वाली सरकार, बहुतांश यूरोपीय देश, खासकर ब्रिटेन कई वषोंर् से यह प्रयास कर रहा है। लेकिन विश्व के जिन हिस्सों में ये पश्चिमी राजनयिक नहीं पहुंच सकते, वहां 'विश्व के गरीब समाजों का अध्ययन करना, वहां के युवाओं की उन्नति के लिए मदद करना,उन समाजों के लिए यथासंभव योजनाएं बनाने में मदद करना आदि उद्देश्य दिखाकर इन कामों को आरंभ किया जाता है। वहीं से तमाम देशों एवं उपमहाद्वीप को भी हिला देने वाले पूरी सदी चलने वाले विद्रोह तैयार होते हैं।
इसके लिए इस सूची में प्रथम स्थान विश्व के गरीब देशों का है। लेकिन चीन और रूस भी इससे नहीं बचे हैं। चीन की साम्यवादी राजसत्ता और उस देश को भौगोलिक कारणों से मिली फौलादी संरक्षक दीवार, इन कारणों से चीन की क्रांति के बाद पिछले 60-65 वषोंर् में इनको बाधा नहीं पहंुची थी। लेकिन पिछले पांच वषोंर् में ही एक राज्य में फैले उग्रवाद का असर दिखने लगा है। भारत में जिस तरह उग्रवादियों के प्रकार है, उनमें से नक्सलियों को छोड़कर अन्य घटक चीन में है। हाल में तो एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब भारत की तरह उग्रवादी हमलों की खबर अन्य बड़े देश से न आती हो। अफ्रीका में रवांडा नामक देश में 21 वर्ष पूर्व एक महीने में दस लाख लोगों का नरसंहार हुआ। उसके पीछे भी यूरोप से निकला सेमेटिक बनाम हेमेटिक विवाद ही कारण था, यह आज स्पष्ट हो रहा है। सोवियत संघ के पतन के बाद वहां की स्थिति अनेक मायनों में यूपी-बिहार जैसी हुई है। कश्मीर का प्रश्न जिस तरह पंडितों के लिए बाधक हुआ, वहां जिहादी वर्चस्व की समस्याएं खड़ी हुई हैं। सोवियत संघ के पतन के बाद 25 वषोंर् में जिहादियों की संख्या 250 प्रतिशत बढ़ी है। इसका अर्थ यह नहीं कि विश्व के सारे विद्रोह अमरीका के विश्वविद्यालयों से उपजेे हैं, बल्कि 'थर्ड वर्ल्ड 'की सूची में शामिल देशों में उग्रवादी गतिविधियां अमरीकी विश्वविद्यालयों से ही आरंभ होने के अनेक प्रमाण आज उजागर हो चुके हैं।
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कश्मीर में उग्रवाद एवं तमिलनाडु में विभाजन के आंदोलन की जडें़ वहीं होने के कई प्रमाण सामने आ रहे हैं। किसी देश का अविभाज्य भाग रहने वाला राज्य पांच हजार किलोमीटर दूर के किसी अन्य देश का और वहां के मजहब का हिस्सा है, यह दिखाने को तमिलनाडु में जो चलता है वह विश्व के गिने-चुने उदाहरणों में से है। यह दुष्प्रचार किया जाता है कि भारतीय जनजीवन, भारतीय संस्कृति एवं यहां के साधु-संतों के विचारों और भाषाओं का अविभाज्य हिस्सा रहने वाला तमिलनाडु ईसाइयत के आरंभ से ही ईसाई है, वहां का भरतनाट्यम, शिल्पकला, दक्षिण भारतीय संगीत आदि ईसाई संस्कृति का हिस्सा है, इतना ही नहीं वहां के संत तिरुवल्लुवर, गांव-गांव में समाया शैव संप्रदाय और हर गांव में हनुमान और गणपती की तरह पांच से पचास मंदिरों में विराजे देव अयप्पा भी असल में ईसाई हैं। यह 'साबित' करने के लिए केवल चार पांच पुस्तकें ही नहीं लिखी गईं बल्कि उसके लिए उग्रवाद का भी सहारा लिया गया। भारत के हर राज्य को तमिलनाडु, नागालैंड और मिजोरम बनाने का उनका एजेंडा सक्रियहै। पिछले पांच सौ वषोंर् में विश्व के सैकड़ों देशों को परतंत्रता के माध्यम से लूटने की यूरोपीय देशों को लगी लत ही इसका कारण है। तमिलनाडु में इसकी शुरुआत सेंट जेेवियर के बाद आए सेंट डिनोबिली ने की। यह समय शिवाजी के काल के आसपास का था। उन्नीसवीं सदी में आर्य यूरोप से भारत में आए। यह फैलाने का प्रयास उसी उद्देश्य का हिस्सा था। 'आर्य एक भारतीय वंश है और वह यूरोप से आया है', इस वक्तव्य के समर्थन में जो भी मुद्दे रखे गए, उनका उसी दृढ़ता से खंडन करने वाले सबसे बड़े विचारक हैं बाबासाहेब अंबेडकर। आर्य वंश भारत के बाहर से आया है, इसके समर्थन में जो 'नाक की लंबाई एवं स्वरुप' का मुद्दा यूरोप से आगे आया,उसे अंबेडकर ने तुरंत खंडित किया था।
'21वीं सदी में ही भारत को ईसाईस्थान बनाएंगे', पोप की वह घोषणा आज भी हर मिशनरी के कानों में गूंज रही है। सन् 1905 के दौरान लार्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन यानी बंगभंग की घोषणा की थी। लेकिन लोकमान्य तिलक ने कहा था,'यह बंगभंग नहीं बल्कि भारतभंग है', और उससे पूरे देश में ब्रिटिश विरोधी वातावरण तैयार हुआ था। |
पिछले 50 वषोंर् में नागालैंड और मिजोरम को अलग करने के लिए बैप्टिस्ट मिशनरियों ने जो प्रयास किये, वे इस पीढ़ी अथवा पिछली पीढ़ी को पता हैं। लेकिन यही प्रयोग सर्वप्रथम तमिलनाडु पर हुआ था, इसकी स्मृति धुंधली हुई है। लगभग 150 वर्ष बाद भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का राज समाप्त होकर ब्रिटिश रानी का राज शुरू होने के बाद ब्रिटिश अधिकारी और ईसाई मिशनरियों ने संयुक्त रूप से इसके लिए प्रयास शुरू किए। इसके लिए तमिल, तेलुगू, कन्नड़ भाषाओं का व्याकरण यूरोपीय भाषाओं से कैसे मिलता जुलता है, यह दिखाने का प्रयास किया। सत्ता के सूत्र हाथ में लेने के कारण तमिल भाषा से संस्कृत शब्द और उत्तर भारतीय शब्द हटाए गए। संस्कृत सहित सभी भारतीय भाषाएं भारतीय नहीं बल्कि बायबिल से तैयार हुई हैं। यह बताकर तत्कालिन प्रशासकीय सेवा में भी ये संकल्पनाएं जमाई गईं। भरतनाट्यम एवं वहां आज भी अचंभित करने वाली जो शिल्पकला है वह ईसाई संस्कृती से आई है, इस तरह के अनेक प्रबंध कई विश्वविद्यालयों में लिखे गए। 150-200 वर्र्ष पूर्व शुरु हुए वे प्रयास आज भी उसी तीव्रता आगे बढ़ाए जा रहे हैं। एक तरफ यह कहना कि भारतीय शैववाद एवं वैष्णववाद सेंट थॉमस द्वारा सन् 1954 में भारत में लाई गई ईसाइयत में से तैयार हुए हैं, और दूसरी तरफ भारत का वंशवाद विश्व में अशांति का कारण है, यह दिखाने के लिए कुछ संस्थाओं की निर्मिती करना, यह मामला शुरू हुआ है। वास्तव में 1200 वर्र्ष पूर्व आद्य शंकराचार्य और काशी के विद्वान मंडन मिश्र में जो वाद-विवाद हुआ था, उसमें इन सारे प्रश्नों के उत्तर हैं। तमिलनाडु में संगम साहित्य नाम से परिचित लगभग दो हजार वर्र्ष पूर्व 473 कवियों और संत-महात्माओं द्वारा रचित जो काव्य है उसमें सभी के उत्तर हैं। इस काव्य की संख्या 2279 है। वेदों के विचारों की आत्मा तमिल साहित्य में है, ऐसी इस साहित्य की भूमिका है।
आज यह विषय सामने लाने का कारण यह ही है कि तमिल जीवनशैली आज एजेंडे में सबसे आगे है वहीं उसके बाद भारत के और दूसरे राज्य हैं। अगर यह मानें कि 'तमिल संस्कृती वेद, पुराण, रामायण, महाभारत की बजाय बायबिल से अधिक जुड़ी है'और तत्कालीन स्थानीय सरकार में व्याप्त प्रभाव की मदद से उसे सरकारी कामकाज का हिस्सा बनाया गया था,यह कालखंड अगर तीन सौ वर्र्ष का है, तो भारत के प्रत्येक राज्य में यह अंतर कहीं सौ वर्ष तो कहीं 150 वर्ष तक नापा जा चुका है। विश्व में 500 से अधिक देशों पर गुलामी लादकर लूट मचाने के इतिहास वाले यूरोपीय तंत्र को सदियों से ऐसे विषय संभालने का कौशल प्राप्त हुआ है। देश के प्रत्येक राज्य में इस बारे में क्या परिस्थिति है, इसका अध्ययन युवाओं को करना चाहिए। '21वीं सदी में ही भारत को ईसाईस्थान बनाएंगे', पोप की वह घोषणा आज भी हर मिशनरी के कानों में गूंज रही है। सन् 1905 के दौरान लार्ड कर्जन ने बंगाल के विभाजन यानी बंगभंग की घोषणा की थी। पूरा बंगाल उसके विरोध में भड़क उठा था। लेकिन लोकमान्य तिलक ने कहा था,'यह बंगभंग नहीं बल्कि भारतभंग है',और उससे पूरे देश में ब्रिटिश विरोधी वातावरण तैयार हुआ था। शिक्षा सत्र के प्रारंभ में देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में 'कश्मीर के आत्मनिर्णय का अधिकार' और तमिल अस्मिता का मुद्दा लेकर विभाजन के बीज बोने वाली एक बडी मशीनरी पूरे देश में काम करती ह। उसका उसी स्थान पर यदि प्रतिवाद हो तो देश विभाजन के छोटे छोटे बीज बोने का जो काम पूरे देश में चालू है, उसकी अपने आप रोकथाम हो जाएगी।
-मोरेश्वर जोशी
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