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.सोलहवीं लोकसभा का वर्तमान सत्र इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि इसके द्वारा देश को नई सरकार के नीतिपत्र के पहले औपचारिक दर्शन हो रहे हैं। कार्यक्रमों की विस्तृत रूपरेखा के आधार पर नीतियों का विवेचन तो बाद में होगा फिलहाल पहले दिन सांसदों के शपथ ग्रहण कार्यक्रम से सरकार की भावना का परिचय जरूर मिल गया है। इस सरकार का प्रथम संदेश स्पष्ट है, भारतीयता के भाव की सम्मान बहाली और राष्ट्र सर्वोपरि की सोच।
संस्कृत और हिन्दी के अतिरिक्त उडि़या, कन्नड़, मलयालम, मैथिली और कश्मीरी तक विभिन्न भारतीय भाषाओं में शपथ ग्रहण का उत्साह बताता है कि बदलते भारत का संकल्प उन अंग्रेजी रूढि़यों को तोड़ने के लिए बेचैन है जो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी हमें जकड़े रहीं।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में दिए हिन्दी भाषण के बाद भारतीय राजनीति का यह दूसरा अहम मौका है जब केन्द्रीय सत्ता हिन्दी के सम्मान की खातिर गर्वपूर्वक खड़ी हुई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह संकेत कि विदेशी राजनयिकों से भी अब हिन्दी में बातचीत होगी, पूरे देश में आत्मगौरव का संचार करने वाला संदेश है। यह सरकारी स्कूलों में पढ़ी उस आम जनता की भावनाओं का स्वर है जिसे प्रतिभा और निष्ठा के बावजूद हमेशा द्वितीय श्रेणी का समझा जाता रहा।
जापान, जर्मनी, फ्रांस आदि विभिन्न विकसित देश हमेशा वैश्विक मंचों पर अंग्रेजी को छोड़ अपनी-अपनी भाषा के प्रति आग्रही रहे हैं। परंतु अंग्रेजियत में पगे ज्यादातर भारतीय राजनेता अब तक हिन्दी से भागते रहे। इस बार तस्वीर बदली है। भाषाई स्वाभिमान रखने वाले राष्ट्रों की श्रेणी में भारत ने भी पदार्पण कर दिया है।
क्षेत्रीयता का सम्मान करते हुए राष्ट्रभाषा के प्रति आग्रह रखना भारतीय राजनीति की वह आवश्यकता है जो परस्पर विरोधी विचारों को भी जोड़ने की ताकत रखती है। हिन्दी की प्रतिष्ठा के मुद्दे पर समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव भी केन्द्र सरकार से सहमत ही होंगे। यह अच्छा है। परंतु सपा प्रमुख को इससे कहीं आगे भी सोचना होगा, यह समय की मांग है।
दरअसल, भाषा सिर्फ विशिष्ट लिपि में व्यक्त होने वाला भाव मात्र नहीं है। यह अपने साथ स्थान और सभ्यता विशेष के संस्कार भी लाती है। संस्कार समझ बढ़ाते हैं। पूर्वजों की रीति-नीति से वंशजों को बांधने वाला संस्कार सेतु मातृभाषा से ही बनता है। व्यक्ति को समाज के प्रति दायित्व का बोध होता है। समाज के प्रति जिम्मेदारी का यही भाव समाजवादी पार्टी शासित उत्तर प्रदेश में तिरोहित हो गया लगता है। एक ओर जहां केन्द्रीय सत्ता वैश्विक स्तर पर मां भारती का नाम ऊंचा करने को कमर कस रही है, उत्तर प्रदेश ने दुनिया की नजरों में इस पूरे देश की किरकिरी कराई है।
बदायूं प्रकरण एक दुर्घटना है। अन्य राज्यों में भी ऐसी दुर्घटनाएं होती हैं। यह प्रकरण भी मीडिया में सिर्फ दुर्घटना के ही तौर पर जगह पाता यदि समय-समय पर सपा नेताओं के बयानों से उनकी सोच जाहिर ना हुई होती। हिन्दी के लिए तड़प रखने वाले मुलायम यदि मां-बहनों की बिन्दी के लिए भी इतने ही फिक्रमंद रहते तो उत्तर प्रदेश अपराध और अव्यवस्था के उस गर्त में ना गिरता जहां वह आज नजर आ रहा है। राम मंदिर के विरोधी रहे मुलायम ने यदि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का बाली वध द्वारा दुराचारियों को कठोरतम दंड देने का संदेश,
अनुज बधू भगिनी सुत नारी।
सुनु सठ कन्या सम ए चारी।।
इन्हहिं कुदृष्टि बिलोकइ जोई।
ताहि बधें कछु पाप न होई।।
पढ़ा होता, तो संभवत: प्रजा को संतान मानने वाले देश में शासन का यह पतन, व्यवस्था की ऐसी दुर्दशा ना हुई होती। बदायूं बलात्कार का पर्याय नहीं है। परंतु बलात्कार जैसे अपराध पर सपा के दृष्टिकोण ने उसे भय और अव्यवस्था के शासन का पर्याय जरूर बना दिया है।
बहरहाल, हिन्दी-संस्कृत और इस देश की अन्य मातृभाषाओं में शपथ के स्वर तब तक अधूरे और अलग-थलग रहेंगे जब तक कि मातृ शक्ति के भय का निवारण करने की शपथ हम सब नहीं लेते।
भाषा और भगिनी के सम्मान के इस अभियान में मोदी-मुलायम हर किसी को साथ आना होगा।
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