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सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की संकल्पना भारत के चन्तिन में ही संभव है। राष्ट्र के सन्दर्भ में हमारी संकल्पना वश्वि के अन्य देशों की तुलना में बहुत ही भन्नि है। हम मानते हैं कि राष्ट्र में बसने वाला समाज उसकी आत्मा होता है,लेकिन वह दृश्यमान नहीं होती। पर उसके अस्तत्वि की अनुभूति सदा होती रहती है। कुछ समय से इसी हन्दिू समाज में कुछ ऐसी विकृतियां एवं धारणाएं व्याप्त हैं, जो हमारे समाज को दिन-रात खोखला किए जा रही हैं।
यह नश्चिति ही विचारणीय है कि हन्दिू समाज में ये विकृतियां कैसे आईं? यह वही सनातन समाज है, जो सभी वर्गों को साथ लेकर चलने की बात तो करता है,लेकिन इसमें से कुछ लोग वंचित वर्ग के साथ एक लम्बे समय से और वर्तमान समय में भी उनका शोषण और अपमान करते आए हैं। लेकिन भारतीय समाज को जात-पात के नाम पर तोड़ने की कोशिश किसने की? और इस जहर को हन्दिू समाज में घोलने वाला कौन था? ये तमाम सवाल हैं,जो समय-समय पर हमें विचलित करते रहते हैं। वंचित समाज जो अपने को सदैव दबा कुचला और लाचार समझता रहा है पर वह सदैव से ऐसा नहीं था। समाज में वह भी समय-समय पर प्रमुख भूमिका में रहा है। इन्हीं सभी चीजों को समेटते हुए अंग्रेजी में एक पुस्तक प्रकाशित हुई है 'कल्चरल नेशनलज्मि एण्ड दलित'। लेखक हैं डॉ. संजय पासवान, जो भारत सरकार में केन्द्रीय मंत्री रहे हैं।
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पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि वंचित समाज का भी इस देश के लिए उतना ही योगदान रहा है,जितना भारत में रहने वाले अन्य वगोंर् का। इसने भी देश के लिए अपने प्राणों की बलि दी है साथ ही इतिहास साक्षी है कि इसी वंचित समाज ने समय-समय पर देश को दिशा और कर्तव्य का बोध कराया है, लेकिन फिर भी इस वर्ग पर शोषण,अत्याचार और उन्हें नीचा दिखाने के प्रयास निरन्तर होते आए हैं और आज भी हो रहे हैं। आखिर वे कौन लोग हैं,जो हन्दिू समाज में इस जहर को घोलने का कार्य कर रहे हैं? वंचित समाज को अन्य वर्गों के समान क्यों वरीयता नहीं दी जाती? ऐसे कई सवाल हैं,जो लेखक ने पुस्तक के विभन्नि खंडों के माध्यम से समाज के सामने रखे हैं। खंड 'दलित सेज' में लिखा है 'भारतीय इतिहास वंचित समाज के संतों की गौरव गाथाओं से दीप्तिमान रहा है। आदिकवि वाल्मीकि, जो जन्म से वंचित परिवार के थे,लेकिन उन्होंने प्रसद्धि ग्रन्थ 'रामायण' की रचना की, जो आज भी हमारे समाज के लिए प्रेरणा स्वरूप है। यही समाज वाल्मीकि को ब्रह्म के समान स्थान प्रदान करता है।' ऐसा ही एक और उदाहरण शबरी का है, जो मूल रूप से वनवासी थीं,लेकिन भगवान राम ने स्वयं उनके आतथ्यि को स्वीकार कर उनके जूठे बेर खाए। यह प्रेम दिखाता है कि सनातन धर्म में कभी किसी को ऊंचा-नीचा नहीं समझा गया। भेदभाव को तो पाप समझा गया। इसी समाज से ऐसे
अनेक संत-तुकाराम, वेदव्यास, विदुर, ज्ञानेश्वर, रविदास और संत नामदेव हुए हैं, जन्हिोंने अपने ज्ञान से सम्पूर्ण समाज को दिशा दिखाई।
आज भी कुछ लोगों में यही धारणा व्याप्त है कि वंचित समाज का कोई योगदान नहीं रहा है। ये लोग कभी भी उच्च पदों पर नहीं रहे हैं। लेखक ने ऐसे ही विषय को तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया है। खंड 'दलित वॉरीयर' में बताया गया है कि इस वंचित समाज ने भी सत्ता को चलाया है और वीर योद्धाओं की एक लम्बी पांत रही है, जिसका पहला उदाहरण मगध के पहले राजा महापद्मनन्द थे, उसके बाद पाल, चालुक्य, मौर्य, गोंड जैसे राजाओं और योद्धाओं ने देश पर राज किया। लेकिन प्रश्न उठता है कि इन सबके बाद भी वंचित समाज की स्थिति लाचार और कमजोर क्यों है? लेखक ने इन षड्यंत्रों से भी परदा उठाया है।
कुल मिलाकर यह पुस्तक वंचित वर्ग को यह आभास दिलाती है कि समाज में उनकी भी उतनी ही भागीदारी है जितनी अन्य वगोंर् के लोगों की है। समाज ने उनको भी समय-समय पर पूजा है। लेकिन कुछ विकृतियां हैं, जन्हिें दूर करना है क्योंकि यह सम्पूर्ण समाज के लिए घातक है। इसके लिए विचार मंथन व इस समाज के उत्थान के उपाय भी लेखक ने पुस्तक में बताए हैं।
अश्वनी कुमार मश्रि
पुस्तक का नाम – 'कल्चरल नेशनलज्मि एण्ड दलित'
लेखक – डॉ. संजय पासवान
प्रकाशक – संवाद मीडिया प्रा. लि.
एफ 29,अंसारी मार्किट, दरियागंज
दल्लिी-110002
मूल्य – 550 रु., पृष्ठ-304
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