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इन्द्रधनुष : आदि-अनादि संवाददाता नारद

by
May 31, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 31 May 2014 14:14:50

-रमेश शर्मा-

कुछ विधाएं ऐसी होती हैं, जो कालजयी होती हैं। समय और परिस्थितियां उनकी जरूरत व महत्व को प्रभावित नहीं कर पातीं। बस उनका नाम और रूप बदलता है। कहने-सुनने या उन्हें इस्तेमाल करने का अंदाज बदलता है, लेकिन उनका मूल तत्व नहीं बदलता। पत्रकारिता ऐसी ही विधा है। पत्रकारिता करने वालों को पत्रकार कहें, संवाददाता कहें अथवा मीडियाकर्मी। यह नाम समय के बदलाव और तकनीक के विकास के कारण बदले। जब संचार के आधुनिक साधन नहीं थे या संवाद संप्रेषण के लिये कागज-कलम का प्रयोग नहीं होता था तब तक इस विधा से जुड़े लोग संवाददाता ही कहलाते थे। अपनी भावनाओं, अपनी जरूरतों या अपने अनुभव का संदेश देना और दूसरे से संदेश लेना प्रत्येक प्राणी का प्राकृतिक गुण व स्वभाव है। अब वह ध्वनि में हो या संकेत में, सभी प्राणी ऐसा करते देखे जाते हैं। मनुष्य ने अपना विकास किया। उसने ध्वनि को पहले स्वर में बदला फिर शब्दों में और शब्दों को संवाद में। वह संवाद संप्रेषण करता है और ग्रहण भी। जीवन का दायरा बढ़ने के साथ संदेशों की जिज्ञासाएं भी बढ़ीं और आवश्यकताएं भी।
महर्षि नारद इसी आवश्यकता की पूर्ति करने वाले पहले संवाददाता प्रतीत होते हैं। हो सकता है उनसे पहले स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर कुछ संवाददाता रहे हों, किंतु उनका उल्लेख नहीं मिलता। एक संवाददाता के रूप में पहला उल्लेख केवल नारद जी का ही मिलता है। उनका संपर्क संसार के हर कोने में, हर प्रमुख व्यक्ति से मिलता है।
भारतीय वांगमय की ऐसी कोई पुस्तक नहीं जिसमें उनका जिक्र न हो। प्रत्येक पुराण कथा में नारद जी एक महत्वपूर्ण पात्र हैं। वे घटनाओं को केवल देखते भर नहीं हैं, बल्कि उन्हें एक सकारात्मक और सृजनात्मक दिशा देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। संसार में घटने वाली हरेक घटना एवं व्यक्ति का विवरण उनकी जिह्वा पर होता है। वे हर उस स्थान पर दिखाई देते हैं, जहां उनकी जरूरत होती है। वे कहीं जाने के लिये आमंत्रण की प्रतीक्षा नहीं करते और न संवाद संप्रेषण के लिये किसी प्रेस-नोट की। वे अपनी शैली में संवाद तैयार करते हैं और संप्रेषित करते हैं। उनका कोई भी संवाद निरर्थक नहीं होता। हरेक संवाद सार्थक है और समाज को दिशा देने वाला। उनकी प्रत्येक गतिविधि प्रत्येक क्रिया आज भी सार्थक है और सीखने लायक।
नारद जी के बारे में माना जाता है कि कभी किसी स्थान पर रुकते नहीं थे, सदैव भ्रमणशील रहते थे। इसका संदेश है कि पत्रकारों अथवा मीडियाकर्मियों को भी सदैव सक्रिय रहना चाहिये। समाचार या संवाद के लिये किसी एक व्यक्ति अथवा एक स्थान पर निर्भर न रहें। आज के मीडिया में विसंगतियां केवल इसलिये हैं कि मीडियाकर्मी अधिकांश समय पार्टी मुख्यालय, शासन मुख्यालय अथवा प्रवक्ताओं पर आश्रित रहते हैं। उनके अपने संवाद सूत्र कम होते हैं। बड़े-बड़े स्टिंग ऑपरेशन अथवा घोटालों का भंडाफोड़ भी इसलिये हो पाया कि पत्रकारों ने उनसे संपर्क किया। लेकिन नारद जी के मामले में ऐसा नहीं था। उनकी दृष्टि की तीक्ष्णता अथवा श्रवण शक्ति की अनंतता का आशय है कि विभिन्न क्षेत्रों में उनके सूत्र कायम रहे होंगे। उनका अपना व्यापक सूचना तंत्र इतना तगड़ा रहा होगा कि उन्हें प्रत्येक महत्वपूर्ण सूचना समय पर मिल जाती थी।
नारद जी का समय-समय पर नैमिषारण्य में ऋषियों की सभा में, कैलाश पर शिव के ज्ञान सत्संग में जाने, पुलस्त्य से अभिराम (परशुराम) कथा गरुड़ से रामकथा सुनने में तप करने के प्रसंग मिलते हैं। इन प्रसंगों का संदेश है कि मीडियाकर्मियों को अपने लिये निर्धारित कार्यों के बीच में समय निकालकर स्वयं के लिये ज्ञानार्जन का काम भी करना चाहिये। तप करने का अर्थ कुछ दिनों के लिये थोड़ा हटकर ध्यान हो सकता है। हम अपने सीमित ज्ञान से असीमित काम नहीं कर सकते। जिस प्रकार कम्प्यूटर के सॉफ्टवेयर को डाटा अपडेशन की जरूरत होती है, ठीक उसी प्रकार हमारे मस्तिष्क को भी ताजी जानकारियों, बदली परिस्थिति के अनुरूप स्वयं को अपडेट करने की जरूरत होती है। जिन पत्रकारों ने ऐसा नहीं किया वे आउट ऑफ डेट हो गए। नारद युगों तक इसलिये प्रासंगिक रहे कि ऋषियों के पास जाकर स्वयं को अपडेट करते रहे। ऋषियों के पास जाने से उन्हें दोहरा लाभ मिलता था। एक तो वे ज्ञान विज्ञान की दृष्टि से अपडेट होते थे दूसरा उन्हें संसार की सूचनाएं मिलती थीं। उस युग में ऋषि आश्रम सामाजिक गतिविधियों, संस्कार, शिक्षा और व्यवस्थात्मक मार्गदर्शन का केन्द्र होते थे।
आज भी ऐसे व्यक्ति हैं जिनके पास अनुभव है, वे चलती-फिरती संस्थाएं हैं और उनका जनसंपर्क बहुत है। यदि मीडियाकर्मी उनसे मिलेंगे, कुछ समय उनके साथ बिताएंगे तो सूचनाएं मिलेंगी। समाचार के नये विचार मिलेंगे और अनुभव का लाभ अलग से मिलेगा। इसी तरह आज की भागदौड़ से भरे जीवन में बहुत तनाव है, प्रतियोगिता है, जिससे तनाव होता है। इसका निराकरण ध्यान से होता है, जो उस युग में तप के रूप में जाना जाता था, जो नारद वद्रिकाश्रम में जाकर करते थे। नारद जी का संपर्क व्यापक था। वे देवों में जाते थे और दैत्यों में भी । वे गंधवार्ें के बीच भी जाते और असुर-राक्षसों के पास भी। वे धरती पर मनुष्यों के बीच भी पहुंचते थे एवं नागों-मरुतों के बीच भी। उनका सब समान आदर करते थे। ऐसे उदाहरण तो हैं कि किसी को उनका आना पसंद न था, लेकिन ऐसा एक भी प्रसंग नहीं है कि कहीं उनका अपमान हुआ हो। इसकी नौबत आने से पहले ही वह वहां से चल देते थे। उनकी इस शैली से आज के मीडियाकर्मियों को संदेश है कि वे अपना संपर्क कायम रखें। कोई भी उन्हें दुश्मन न समझे। यदि किसी के विरुद्ध भी हों तो भी चेहरे से, भाव-भाषा से न झलके। भावनाएं चाहे जैसी हों लेकिन व्यवहार के स्तर पर सबसे समान व्यवहार करें। सबसे मीठा बोलो, सबको लगना चाहिये कि वे उनके हित की बातें कर रहे हैं। नारद जी के चरित्र से एक बात साफ झलकती है वह ये कि उनका समर्पण 'नारायण के प्रति यानी अंतिम सत्य' के प्रति था। वे अधिकांश सूचनाएं नारायण को ही दिया करते थे। उन्हीं का नाम सदैव उनकी जिह्वा पर होता था और उन्होंने नारायण के विरुद्ध षड्यंत्र करने वालों के विरुद्ध योजनापूर्वक अभियान भी चलाया। उनके इस गुण में दो विशेषताएं साफ हैं एक तो उन्होंने नारायण के प्रति अपना समर्पण नहीं भुलाया और दूसरा यह कि जब उन्होंने नारायण के विरोधियों के विरुद्ध अभियान चलाया तो यह तथ्य अंत तक किसी को पता नहीं चला और न उन्होंने इसका श्रेय लेने का प्रयास किया। इसका उदाहरण हम हिरण्यकश्यप के प्रसंग में देख सकते हैं। उनकी पत्नी कयादु को नारद जी ने ही शरण दी। उन्हीं के संरक्षण में प्रह्लाद का जन्म हुआ उन्होंने ही प्रह्लाद को नारायण के प्रति समर्पण की शिक्षा दी। इतना बड़ा अभियान बहुत धीमी गति से वर्षों चला और जब प्रह्लाद के आह्वान पर भगवान नरसिंह ने हिरण्यकश्यप का वध किया तब नारद वहां दिखाई नहीं देते। स्वयं श्रेय लेने का प्रयास नहीं करते, वे लग जाते हैं किसी दूसरे अभियान में। इस प्रसंग में आज के मीडियाकर्मियों या पत्रकारों को संदेश है कि वे सदैव सत्य के संस्थापकों के संपर्क में रहें। सत्य के विरोधी और अहंकारी की ताकत कितनी भी प्रबल क्यों न हो उससे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है बल्कि उसी के बीच से रास्ता निकाला जाता है। यदि कोई अहंकारी है, अराजक तत्व है जिससे राष्ट्र को, संस्कृति को और सत्य को हानि हो रही है तब उसके परिवार में घुसकर सूत्र बनाना, संवाद संग्रह करना बड़ी युक्ति और धीरज से होना चाहिये। वह भी श्रेय लेने की लालसा से दूर रहकर, जैसा नारद जी ने किया लेकिन आज उलटा हो रहा है। अराजक तत्वों, आतंकवादियों या नक्सलवादियों की मीडियाकर्मियों के माध्यम से जितनी सूचनाएं शासन तक जाती हैं उससे ज्यादा उन्हें मिल जाती हैं। यही कारण है कि उनके हमलों से जन सामान्य आक्रांत हो रहा है।
नारद जी की इतनी विशेषताएं होने के बावजूद उनके चरित्र की समाज में नकारात्मक प्रस्तुति की गई है। उन्हें लड़ाने वाला और इधर की बात उधर करने वाला माना जाता है। इसके संभवत: दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि भारत लगभग एक हजार वर्ष तक परतंत्र रहा। कोई भी समाज परतंत्र तब रहता है, जब उस समाज या देश के संस्कार, संगठन, स्वाभिमान और शक्ति समाप्त हो जाये। इसके लिये जरूरी है कि उसे उसकी जड़ों से दूर किया जाये। उसके गौरव प्रतीकों की जानकारी न दी जाये। भारत में योजनापूर्वक भारतीय महापुरुषों को, गौरव के प्रतीकों को प्रस्तुत किया गया। नारद जी उसमें से एक हैं। विष्णु कर्मेश्वर हैं, योगेश्वर हैं, नीतेश्वर हैं, लेकिन उनके रास के प्रसंगों के अतिरिक्त चर्चा नहीं होती। परशुराम जी के चरित्र को कैसा प्रस्तुत किया जाता है यह किसी से छिपा नहीं है। राम के चरित्र को कल्पना बताया जाता है, जबकि विदेशी आक्रांताओं को महान कहकर महिमा मंडित किया जाता है। इसका कारण यह हो सकता है कि हम अपने बच्चों को ऐसा चरित्र समझाने से बचना चाहते हैं, जो यश-ऐश्वर्य के साधन अर्जित करने के बजाय 24 घंटे सेवा में लगा रहे। आज की पीढ़ी इस वास्तविकता को समझ रही है और चरित्रों का अन्वेषण करके सत्य सामने ला रही है। नारद जी के चरित्र पर होने वाले कार्यक्रम, संगोष्ठियां इस दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल हैं। नारद जी के भक्तिसूत्र और नीतिसूत्र भी हैं। उनके नीतिसूत्र में राजकाज चलाने, दंड देने आदि की बातंे हैं, जो आज के पत्रकारों को इस बात का संदेश हैं कि वे अपने अध्ययन, अनुभव, और चिंतन के आधार पर कोई ऐसा संदेश समाज को दें, जो आने वाली पीढियों का मार्गदर्शन कर सके । आज के कितने पत्रकार हैं जो अखबार से हटते ही या टीवी चैनल से दूर होते ही अप्रासंगिक हो जाते हैं। इसका कारण यह है कि उनका जीवन अध्ययन कम होता है, राष्ट्रबोध कम होता है। इसलिये अनुभव परिपक्व नहीं होता। नारद जी जीवन भर अपना काम करने के साथ-साथ अध्ययन भी करते रहे जिससे वे भक्तिसूत्र और नीतिसूत्र तैयार कर सके। हजारों-लाखों वषोंर् बाद भी नारद जी का चरित्र हमारे लिये आदर्श और तकनीक विकास के बावजूद आज के मीडियाकर्मियों के लिये मार्गदर्शक भी है।

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