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-वीरेन्द्र सिंह चौहान-
केंद्र में भाजपा के सत्तारूढ़ होते ही भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 पर नए सिरे से चर्चा शुरू हो गई। कायदे से तो इसकी शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनावों के दौरान ही कर दी थी। इस संवैधानिक उपबंध से समूचे देश व खासकर जम्मू कश्मीर के लोगों को आज तक हुए नुकसान पर विमर्श होना ही चाहिए। संविधान या कानून के किसी अस्थायी प्रावधान को केवल इसलिए बनाए रखना समझदारी की बात नहीं कि उसकी समीक्षा से कुछ कट्टरपंथी या देशविरोधी लोगों को परेशानी होती है। ऐसे तत्वों को राजी रखना कांग्रेस की विवशता हो सकती है, नरेंद्र मोदी सरीखे दमदार प्रधानमंत्री और प्रचंड बहुमत के साथ सत्तासीन हुए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की नहीं।
सुखद बात यह है कि इस अनुच्छेद पर बहस और विमर्श का सिलसिला केंद्र की मौजूदा सरकार के कार्यकाल के प्रथम दिन ही नए अंदाज में चल निकला। इधर दिल्ली में चर्चा की बात हुई उधर राज्य में मौजूद भारतविरोधी तत्वों ने अनाप-शनाप बोलना प्रारंभ कर दिया। इस प्रक्रिया में हर बार की तरह सबसे आगे जुबानी धमाचौकड़ी करने निकले हैं शेख अब्दुल्ला के राजनीतिक खानदान यानी नेशनल कांफ्रेंस के लोग। स्वाभाविक रूप से प्रदेश के मुख्यमंत्री और नेहरू-शेख की राजनीतिक विरासत कंधों पर उठाए फिर रहे उमर इस अभियान की अगुआई करते दिख रहे हैं। उमर ने तो यहां तक कह दिया कि अनुच्छेद 370 नहीं रहेगा तो जम्मू-कश्मीर भारत का अंग नहीं रहेगा।
कायदे से देखा जाए तो यह सीधे तौर पर देश तोड़ने की धमकी है। भारत की एकता और अखंडता को एक निर्वाचित प्रतिनिधि की अभद्र व दुस्साहसपूर्ण चुनौती है। एक मुख्यमंत्री की इस करतूत का सरकारी तौर पर क्या प्रतिकार संभव है। मगर उमर अब्दुल्ला और उनके जैसे अन्य लोगों द्वारा अनुच्छेद 370 को लेकर जो भ्रामक दावे ठोके जा रहे हैं, उनकी तथ्यात्मक सर्जरी होना इस मुकाम पर आवश्यक है।
उमर के हालिया ट्वीट से किसी को भी यह भ्रम हो सकता है कि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय इस अनुच्छेद की नींव पर टिका हुआ है। उमर से मिलती जुलती शब्दावली पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती और कुछ अन्य पाक-परस्त अलगाववादियों की भी है।
इस प्रकार का आभास देने वाले या ऐसे किसी भ्रमजाल में जीने वाले उमर समेत तमाम लोगों को जान लेना चाहिए (अगर वे जानबूझ कर अनजान नहीं बने हुए हैं तो) कि भारत में जम्मू कश्मीर की रियासत का विलय तो अक्तूबर को हो गया था। इस दिन रियासत के तत्कालीन शासक महाराजा हरि सिंह ने अपनी रियासत के भारत में विलय के लिए विलय के लेखपत्र पर दस्तखत कर दिए थे। अगले रोज माउंटबेटन ने बतौर गवर्नर जनरल विलय को मंजूर भी कर लिया था। दूसरी ओर विवादास्पद अनुच्छेद 370 संविधान के लागू होने के दिन अर्थात 26 जनवरी 1950 को प्रभाव में आया। तथ्य यह है कि महाराजा द्वारा हस्ताक्षरित विलय पत्र में इस अनुच्छेद का और इस अनुच्छेद में विलय पत्र का कोई जिक्र तक नहीं है।
कुछ छद्म बुद्घिजीवियों ने यह कोरा झूठ प्रचारित कर रखा है कि भारत में राज्य का विलय कुछ विशेष शतोंर् के साथ हुआ था। जबकि सपाट और निर्विवाद तथ्य यह है कि जम्मू कश्मीर का भारत में विलय बिना ऐसी किसी शर्त के किया गया था जो इस राज्य को कोई विशेष दर्जा देती हो। नियमानुसार महाराजा हरि सिंह ही ऐसे एकमात्र शख्स थे जिन्हें राज्य के बारे में अंतिम निर्णय लेने का अधिकार था। इस हक का उपयोग करते हुए उन्होंने रियासत का भारत में विलय ठीक वैसे ही किया जैसा दूसरी देसी रियासतों ने किया था। विलय निस्संदेह बिना किसी शर्त के था। जिस विलय पत्र पर महाराजा ने दस्तखत कर अपनी रियासत को भारत में मिलाया था वह उनके नाम और पदनाम को छोड़ कर हूबहू वैसा था जैसे प्रपत्र का उपयोग दूसरे राजाओं, नवाबों व महाराजाओं ने अपनी-अपनी रियासत को भारत में मिलाने के लिए किया था।
विलय पर सवाल उठाने का दुस्साहस करने वाले इस ऐतिहासिक घटनाचक्र को भला कैसे झुठला सकते हैं? फिर कालचक्र वहीं तो नहीं थमा। आगे चलकर प्रदेश की संविधान सभा बनी। उस संविधान सभा में अधिकांश सदस्य नेशनल कांफ्रेंस के ही थे। इस सभा ने प्रदेश के लिए जो संविधान तैयार किया उसकी प्रस्तावना में स्पष्ट लिखा है कि राज्य का भारत में विलय अक्तूबर को हो चुका। इस स्थान पर भी कहीं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 का कहीं उल्लेख नहीं है। फिर न जाने किस आधार पर सियासी छलिया बारंबार विलय का संबंध इस अनुच्छेद से जोड़ रहे हैं।
जम्मू कश्मीर राज्य के संविधान की धारा तीन और चार का भी यहां उल्लेख करना आवश्यक है। इसमें स्पष्ट रूप से अंकित है कि जम्मू कश्मीर राज्य भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। यह भी स्पष्ट लिखा गया है कि 15 अगस्त 1947 को महाराजा के अधीन जो रियासत थी वह समूची रियासत भारत का अभिन्न अंग है। अभिप्राय यह कि पाक अधिकृत जम्मू कश्मीर की एक-एक इंच भूमि भी भारत है। इसी प्रांतीय संविधान में धारा में यह साफ उल्लेख है कि प्रदेश की विधानसभा इन धाराओं में कोई संशोधन करने में सक्षम नहीं है। ऐसा इसलिए चूंकि यह अनुच्छेद समाप्त होने के बाद भी भारतीय संविधान का अनुच्छेद एक और राज्य के संविधान की धारा तीन यथावत बरकरार रहेंगे।
उमर जैसे तंग-नजर लोग यह आभास दे रहे हैं मानो यह अनुच्छेद ही वह इकलौती डोर है जो उनके राज्य को भारतीय गणतंत्र से जोड़े हुए है। यदि महज कानून और विधान की बात की जाए तो भारत का जम्मू कश्मीर से सीधा और अटूट संबंध तो वह विलय पत्र जोड़ता है जिस पर महाराजा हरि सिंह ने दस्तखत किए थे। विलय पत्र एक निर्विवाद वैधानिक दस्तावेज है। उस पर आज तक किसी ने कोई प्रश्न खड़ा नहीं किया।
जम्मू-कश्मीर के भारत के साथ वैधानिक रिश्ते का अगला बड़ा सूत्र भारत का संविधान है जिसके पहले ही अनुच्छेद में चर्चित पहली अनुसूची है जिसमें भारत के एक राज्य के रूप में इस प्रदेश का पंद्रहवें नंबर पर उल्लेख है। वहां इस संबंध को जोड़ने में अनुच्छेद 370 की किसी भूमिका का कोई जिक्र नहीं है। इसी क्रम में तीसरी अहम और अटूट डोर राज्य का अपना संविधान है और उसकी प्रस्तावना व धारा तीन है जिसे बदलने का अधिकार राज्य की विधानसभा को भी नहीं है।
इसी क्रम में उमर को यह भी समझने की आवश्यकता है कि राज्य से भारत का रिश्ता महज वैधानिक व संवैधानिक नहीं है। हजारों वर्ष की सांस्कृतिक चेतना की डोर जो भारत के दक्षिणी छोर पर कन्याकुमारी को सुदूर उभार में हिमालय की गोद में स्थित महर्षि कश्यप की तपस्थली कश्मीर से जोड़ती है, वह इतनी कमजोर नहीं कि कोई उसे यूं ही झटक कर तोड़ दे। कुल मिलाकर यह बात शीशे की तरह साफ और कानूनन संविधान सम्मत है कि 370 के रहने या संशोधित होने या समाप्त होने से राज्य और गणराज्य के बीच के संबंधों पर रत्ती भर असर नहीं पड़ता।
दरअसल अनुच्छेद 370 भारतीय संविधान का एक ऐसा प्रावधान है जिसके तहत भारत की संसद द्वारा कुछ विषयों को छोड़कर अन्य मामलों में बनाए गए किसी भी कानून को राज्य में लागू करने के लिए वहां की सरकार की सहमति आवश्यक है। जबकि देश के अन्य राज्यों के मामले में ऐसा नहीं है। इसके कारण भारतीय संविधान के सवा सौ अधिक प्रावधान और अनेकानेक जनकल्याणकारी केंद्रीय कानून आज तक इस प्रदेश में सिर्फ इसलिए लागू नहीं है चूंकि वहां की सरकार उन्हें लागू करने को राजी नहीं है। अभिप्राय यह कि उस प्रदेश में बसने वाले भारतीय अधिकांश मामलों में अलग किस्म के कानूनों द्वारा शासित हैं।
संविधान के प्रावधानों को प्रदेश में लागू करने का जो कार्य भारतीय संविधान के निर्माण की प्रक्रिया के दौरान सब राज्यों की संविधान सभाओं को दिया गया था, वह जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तानी आक्रमण के चलते युद्घ जैसी परिस्थितियों के कारण तत्काल करना संभव नहीं था। इस क्रम में जहां अन्य राज्यों ने अपना- अपना संविधान बनाने के अधिकार को केंद्र को सौंपते हुए गणतंत्र के संविधान के तहत ही सीधे काम करने का निर्णय लिया, कश्मीर में यह निर्णय नहीं हो पाया। ऐसे में भारत के संविधान के प्रावधानों को लागू करने के लिए एक अस्थायी व्यवस्था बनाई गई जिसे संविधान में अंतत: अनुच्छेद 370 के नाम से शामिल किया गया। भारतीय संविधान सभ्भा में हुई चर्चाओं से साफ है कि इस अनुच्छेद को अब तक चले जाना चाहिए था। स्वयं इस अनुच्छेद की शब्दावली से संकेत मिलता है कि राष्ट्रपति द्वारा इसे राज्य की संविधान सभा की सहमति से समाप्त किया जाना था। मगर शेख अब्दुल्ला और पंडित नेहरू की साठगांठ ने इसे नासूर बनने दिया। शेख और उनके कुनबे ने हमेशा इसकी व्याख्या अपने निहित स्वाथोंर् की पूर्ति के लिए राज्य के लिए विशेष दर्जे के प्रावधान के रूप में की। ऐसा वे इसलिए करते हैं चूंकि इसकी आड़ में उन्हें प्रदेश में मनमाने ढंग से सरकार चलाने का रास्ता मिलता है।
मगर अनुच्छेद 370 को बारंबार पढ़ने पर भी इसमें ऐसा कोई शब्द ढ़ूंढ़ना संभव नहीं जो राज्य को किसी रूप में विशेष दर्जा देने की बात करता हो। हां, हमारे संविधान में यह अवश्य साफ तौर पर अंकित है कि यह अनुच्छेद अस्थायी है। अर्थात इसको हटाया जाना है। इस लिहाज से भी उमर, महबूबा या किसी भी अन्य को इस संवैधानिक उपबंध को स्थायी रूप से बनाए रखने की वकालत करने का अधिकार नहीं है। हां, इतना अवश्य है कि इस उपबंध की समीक्षा करने की प्रक्रिया में प्रदेश की जनता और खासकर युवा पीढ़ी को भी कायदे से यह समझाया जाए कि उन्हें आज तक सुनियोजित रूप से भ्रम में रखा गया है। इस अनुच्छेद के कारण प्रदेश के लोगों ने पाया तो कुछ विशेष नहीं मगर खोया बहुत कुछ है। इसके चलते आज तक राज्य की जनता का मानस देश की मुख्यधारा के साथ एकाकार नहीं हो पाया है। विकास और कल्याण के अनेक संवैधानिक प्रावधान जिनका सीधा संबंध महिलाओं समेत समाज के कमजोर तबकों से है, उनके लाभ से प्रदेश की जनता आज भी वंचित है चूंकि इन्हें लागू करने की राह में यह अनुच्छेद बाधा बनकर खड़ा हो जाता है। इसी प्रकार आज तक प्रदेश में अनुसूचित जातियों को राजनीतिक आरक्षण का लाभ नहीं मिल सका है और प्रदेश के लोग शिक्षा के अधिकार से भी वंचित हैं। नई केंद्र सरकार के सामने यह चुनौती भी है और अवसर भी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व भाजपा की हरियाणा इकाई में सह मीडिया प्रभारी हैं)
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