आवरण कथा : नई शुरुआत की शपथ
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आवरण कथा : नई शुरुआत की शपथ

by
May 31, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 31 May 2014 16:14:31

– प्रशांत बाजपेई-

केंद्र की सत्ता में कदम रखते ही नरेंद्र मोदी ने अपने इरादों और दूरदर्शिता की झलक दे दी, जब उन्होंने दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन (दक्षेस) देशों के नेताओं को शपथ ग्रहण समारोह में आने का न्यौता भेजा। उनकी इस पहल से मृतप्राय: दक्षेस में नयी चेतना जगने के संकेत मिले हैं। भारत की विदेश नीति और बाह्य सुरक्षा की दृष्टि से दक्षेस का पुनर्जागरण मील का पत्थर सिद्घ होगा।
शपथ ग्रहण समारोह में सभी दक्षेस देशों के राष्ट्राध्यक्ष आए। सभी की प्रधानमंत्री से भेंट हुई, पर जैसी कि संभावना थी, सारे मीडिया समेत विश्वभर का ध्यान मोदी-शरीफ भेंट वार्ता पर केंद्रित रहा। इसके साथ ही ये कयास लगने भी प्रारंभ हो गए, कि क्या इसकी कोई सुखद परिणिति हो सकेगी?

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवाज शरीफ से हाथ मिलाते हुए क्षेत्रीय और द्विपक्षीय संबधों की बागडोर अपने हाथ में ली। इस पहल से पाक सैनिक प्रतिष्ठान भी हतप्रभ रह गया। क्योंकि वे तो लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद भारत में 'हिंदुत्ववादी' और कठोर इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति के सत्तासीन होने के बाद नयी रणनीति क्या हो, ये भी तय नहीं कर पाए थे। नवाज शरीफ को भी अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपना नेतृत्व सिद्घ करने के लिए भारत आना आवश्यक था। इसके लिए उन्हें पाक सेना को मनाना भी पड़ा। काफी गहमागहमी के बाद उनके आने की घोषणा हुई। बातचीत बहुत अच्छी रही। शरीफ ने भारत आगमन के पूर्व ही पाकिस्तान में बंदी भारतीय मछुआरों की रिहाई की घोषणा की। भारत आने के बाद उन्होंने पाकिस्तानी नेतृत्व की परंपरा को तोड़ते हुए कश्मीरी अलगाववादियों से बात करने में कोई रुचि नहीं दिखाई।
बातचीत सौहार्दपूर्ण वातावरण में हुई। नवाज शरीफ की भाव-भंगिमा ये बता रही थी, कि उन्हें मोदी से इस गर्मजोशी की आशा नहीं थी। आतिथ्य की मर्यादाओं और कूटनीति की परंपराओं का पालन करते हुए भी प्रधानमंत्री ने नवाज शरीफ के सामने आतंकवाद के विषय पर भारत का पक्ष दृढ़ता से रखा, तथा पाकिस्तान से आतंकवाद के विरुद्घ प्रतिबद्घता दिखाने के लिए कहा। आतंकवाद संबंधी 26/11 के मुंबई हमले जैसे लंबित विषय उठाए और स्पष्ट संदेश दिया कि गोली और वार्ता साथ-साथ नही चल सकते। जाते हुए नवाज शरीफ मोदी को पाकिस्तान आने का न्यौता दे गए। नवाज शरीफ की बेटी मरियम ने पाकिस्तान से मोदी द्वारा उनकी दादी के लिए भेजे गये शॉल के लिए धन्यवाद करते हुए भावपूर्ण ट्वीट किया। सब अच्छा रहा। अब कयास लग रहे हैं कि आगे क्या ?

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उत्तर जटिल है और तत्काल परिणाम की आशा करना अपरिपक्वता होगी। पाकिस्तान की विदेश नीति और विशेषरूप से भारत नीति पाकिस्तानी सेना के निर्देश पर चलती है और पाकिस्तानी सेना का सारा औचित्य ही भारत विरोध पर केंद्रित है। अयूब खान से लेकर जिया उल हक और मुशर्रफ तक एवं जिन्ना से लेकर जुल्फिकार अली भुट्टो तक तथा बाद में बेनजीर भुट्टो से लेकर नवाज शरीफ तक सबने इस खेल में अपने हाथ आज़माए हैं। पाकिस्तान के जन्म के बाद से लेकर पिछली सदी के अंत तक, पाकिस्तान की दोनों समांतर सत्ताओं, सेना और सरकार की धुरी, भारत विरोध ही रहा है। इसमें बड़ी और वास्तविक ताकतवर सत्ता पाकिस्तान का सैनिक प्रतिष्ठान आज भी इंच भर सरके बिना इस नीति पर डटा हुआ है।
परंतु पाकिस्तान की राजनीति थोड़ी प्रौढ़ अवश्य हुई है। जुल्फिकार अली भुट्टो जनता में हिंदुस्थान को नेस्तनाबूद कर देने की तकरीरें कर-कर के सत्ता में आए, परंतु कुछ ही समय बाद सैनिक तानाशाह जिया उल हक ने उन्हें फांसी के तख्ते तक पहुंचा दिया, और भारत द्वेष की राजनीति और रणनीति को नया आयाम दिया। जुल्फिकार अली भुट्टो की बेटी बेनजीर भुट्टो ने भी कश्मीर पर आग उगली और सत्ता तक पहुंचीं लेकिन जल्दी हटा दी गईं। बाद में जब वे दोबारा सत्ता के निकट पहुंच रही थीं, उनकी हत्या कर दी गई और षड्यंत्र के सूत्र उलझकर रह गए। इस घटना से पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने बहुत कुछ सीखा। पाकिस्तान मुस्लिम लीग ने भी ठोकरें खाई हैं। कहा जाता है कि प्रधानमंत्री रहते हुए नवाज शरीफ को भी मुशर्रफ के कारगिल दुस्साहस की जानकारी थी। पर कारगिल की पहाडि़यों पर मुंह की खाने के बाद उन्हीं मुशर्रफ ने शरीफ की सत्ता उलट दी। निर्वासित शरीफ बहुत मुश्किल से पाकिस्तान वापस लौट पाए थे।
पाकिस्तान की राजनीति में सदा उथल-पुथल मची रही और जनता में असंतोष बढ़ता रहा। विसंगति ये है कि पाकिस्तान का शोषण करते हुए पाकिस्तानी सेना प्रतिष्ठान मजे से राज कर रहा है, और पाकिस्तान की बदहाली के लिए सारी गालियां पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकारें खाती आ रही हैं। आखिरकार 'दैत्याकार भारत' से 'पाकिस्तान की रक्षा' करने वाली सेना जनता की नजर में गलत कैसे हो सकती है? इसीलिए कभी पाकिस्तान का दिफा (रक्षा) करने के नाम पर, तो कभी इस्लाम की रक्षा के नाम पर सेना सरकारों का तख्तापलट करती आई है।

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पाकिस्तान की एकमात्र सेकुलर पार्टी ए़एऩपी़ भी, जिसके 700 से अधिक सक्रिय कार्यकर्ताओं को आई़एस़आई समर्थित आतंकवादी मौत के घाट उतार चुके हैं, यही सोच रखती है, पर ये सब पाकिस्तान के असली मालिक के आगे विवश हैं। इसलिए नवाज शरीफ के ऊपर जो जिम्मेदारी है वह उनके कन्धों से कहीं बड़ी है। पाकिस्तान की पुलिस और जांच एजेंसियां भी पहला सलाम फौज को ही ठोकती हैं और न्यायपालिका फौज को खुश रखते हुए काम करती है। ऐसे में 26/11 को अथवा दाउद इब्राहिम को लेकर बहुत कुछ होगा, ऐसी आशा करना जल्दबाजी होगी।

ध्यान रहे कि, जहां एक ओर पाकिस्तानी सेना ने नवाज शरीफ को भारत आने की सहमति दी, वहीं दूसरी ओर इस भेंट पर ग्रहण लगाने के लिए अफगानिस्तान में भारतीय काउंसलेट पर आतंकी हमला करवाया। अंदेशा है कि इस हमले का उद्देश्य भारतीय राजनयिकों को बंदी बनाकर पहली ही बार में भारत की नयी सरकार के घुटने टिकवाना था। पाकिस्तानी सेना ने एक बार फिर अपने मन की बात को उजागर कर दिया। मोदी ने समय की आवश्यकता को अच्छी तरह समझा और नवाज शरीफ से धैर्य, स्पष्टता और गर्मजोशी से बात की। भारत की इस पहल का पाकिस्तान की जनता में अच्छा संदेश गया।
शीतयुद्घ के उत्तर काल में पाकिस्तान अफगानिस्तान में अमरीका द्वारा प्रायोजित 'जिहाद' का मोहरा बना। अफगानिस्तान से रूस के पलायन को पाकिस्तान में इस्लाम की विजय कहकर प्रचारित किया गया। 'विजय' का ये खुमार जब उतरा तो पाकिस्तानियों ने पाया कि उनकी जेबें खाली हैं, और उनके हाथों में भाड़े के हथियार हैं। शिक्षा के नाम पर मदरसों की बाढ़ है, और उनके सहयोगी उनको छोड़कर जा चुके हैं। असंतोष बढ़ने लगा। रही-सही कसर राजनैतिक अस्थिरता ने पूरी कर दी।
सारे पाकिस्तान में मजहबी और नस्लीय हिंसा अपने चरम पर है। ऐसे में भारत में आतंकवाद की असली जनक पाक फौज का सबसे बड़ा दु:स्वप्न यही हो सकता है कि लोकतांत्रिक और समृद्घ भारत की खुशहाली का संदेश पाकिस्तानी जनता के मनों तक पहुंचे। साथ ही भारत से सहयोग करने को इच्छुक दिख रही पाक राजनीति और फौज के बीच घर्षण धीरे-धीरे बढ़ता रहे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दोनों काम संुदरता से किए हैं। अब प्रश्न है कि आगे क्या होगा?
कूटनीति और विदेशनीति राष्ट्र के सुरक्षा घेरे का महत्वपूर्ण अंग होती हैं। शरीफ-मोदी वार्ता के दूसरे दिन 28 मई को दिए गए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के प्रेस वक्तव्य को इसी कड़ी में जोड़कर देखना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री की दक्षेस राष्ट्राध्यक्षों के साथ वार्ता सफल रही है और सरकार की प्राथमिकता होगी कि शक्तिशाली भारत के अपने पड़ोसियों, रणनीतिक सहयोगियों सहित अफ्रीकी, यूरोपीय तथा अन्य देशों से मजबूत संबंध बनें। पाकिस्तान संबंधी प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री ने पड़ोसी देशों के साथ मित्रवत संबंधों पर अपनी प्रतिबद्घता दोहराई है, परंतु साथ ही 26/11 के दोषियों पर, जो पाकिस्तान में हैंं, कड़ी कार्यवाही करने को कहा है। भारत सरकार ने गेंद को कुशलता से पाकिस्तानी सैनिक प्रतिष्ठान के पाले में डाल दिया है। अमरीका अफगानिस्तान से निकलने की जल्दी में है। ऐसे में भविष्य के रास्ते घुमावदार रहने वाले हैं।
पाकिस्तान की सेना के कई अधिकारियों ने रिटायरमेंट के बाद पाक फौज द्वारा किए जा रहे षड्यंत्रों के विरुद्घ बोलना शुरू किया है। उन्हें लगता है कि फौज पाकिस्तान का शोषण कर रही है। पाकिस्तान के सेवानिवृत्त एयर वाइस मार्शल शहजाद चौधरी का एक लेख 23 मई को प्रकाशित हुआ है। शीर्षक है – 'मैनेजिंग मोदी'। शहजाद ने मोदी की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा है कि 'भारत सदा के लिए बदलने जा रहा है, एवं अधिक समृद्घ और शक्तिशाली होने जा रहा है। भारत समानतामूलक न्याय आधारित समाज बनने की दिशा में बढ़ेगा और अपना स्वप्न पूरा करेगा।' शहजाद आगे प्रश्न उठाते हैं कि बेतुकी बातों से दूर, ईमानदार और समस्याओं का सामना करने को इच्छुक इस भारतीय नेतृत्व के सामने पाक नेतृत्व कैसा सिद्घ होगा? वो कहते हैं कि मोदी पाकिस्तान के साथ युद्घ के लिए नहीं जाएंगे, पर भारत की सैन्य क्षमता को उन्नत करने के लिए निरंतर काम करेंगे, ताकि 26/11 के मुंबई हमले जैसी स्थिति में भारत सही उत्तर देने के लिए तैयार रहे।
भारत को अपना सामर्थ्य बढ़ाते हुए, कूटनीतिक भाषा में जिसे 'हार्ड पावर ऑर सॉफ्ट पावर' कहा जाता है, दोनों की साधना करनी होगी। भारत की सुरक्षा के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष आयामों पर कार्य करना होगा। प्रथम पग शुभ रहा है। ल्ल 

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