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– तुफैल चतुर्वेदी-
ब्लासफेमी या ईश निंदा, ये दोनों शब्द किसी भी भारतीय के लिये लगभग अपरिचित हैं। हमारी परंपरा हमें ईश की निंदा या आलोचना पर आतंकित करना तो दूर, रोकती ही नहीं है बल्कि कुछ भी नहीं कहती। सभी भारतीय भाषाओं में राम-कृष्ण को आधार बना कर व्यंग्य लिखे जाते रहे हैं। ब्रह्म सत्य है या जगत, ईश्वर है या नहीं, मूर्ति पूजा का मंडन या खंडन, आत्मा को मानना या न मानना, वेदों को प्रमाण मानना या वेदों की निंदा करना कभी गंभीर विषय नहीं होते। यहां चार्वाक को ऋषि कहा जाता है। अनंतकाल से बहती आ रही सनातन-सरिता में जैन, बौद्घ, सिख, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, ब्रह्म समाज, न जाने कितनी शाखाएं फूटती रही हंै जो मूल धारा में परिवर्तन करने का प्रयास करती हैं, कुछ दूर और देर अलग चलती हैं फिर उसी में मिल जाती हैं। हजारों साल के इस काल-क्रम में कभी किसी भी मत-विश्वासी को उसके विश्वास के कारण दण्डित नहीं किया गया। रोमिला थापर जैसे धूर्त और झूठे लोगों के प्रलाप कि, सनातनियों ने बौद्घ लोगों को नष्ट किया, के न श्रौत परंपरा यानी लोक मानस में, न लिखित इतिहास में कभी कहीं 4 पुष्ट प्रमाण भी नहीं मिल पाये। उसका एक मात्र कारण भारत की यह सोच है कि सत्य एक है और उस तक अनेक मार्ग जाते हैं, मैं आपके विपरीत बोल-सोच सकता हूं, मगर केवल इस कारण आपमें और मुझमें मतभिन्नता होती है, मनमुटाव नहीं होता।
यही सामान्य सा विषय हमारे ही अहस्तगत भाग पाकिस्तान में बिल्कुल दूसरा अर्थ रखता है। कल्पना कीजिये कि पचीसों मीलों तक मुसलमानों से घिरे क्षेत्र में एक-दो या कुछ घर हिन्दुओं, ईसाइयों के हैं। एक किसी भी सामान्य डरावने और भयानक दिन कुछ मुल्ला बस्ती के लोगों को यह कहकर उकसा कर लाते हैं कि इस परिवार के लोगों ने कुरआन को खुदाई नहीं बल्कि अनेक मजहबी किताबों में से केवल एक किताब भर बताया है या मुहम्मद को अन्य ईश दूतों के जैसा एक दूत माना है या इस्लाम को अन्य मजहबों के बराबर कहा है। देखते ही देखते उस परिवार के लोगों की पत्थर मार-मार कर हत्या कर दी जाती है। पुलिस, प्रशासन, न्यायपालिका सभी मौन, बल्कि इस लोम-हर्षक कांड के पक्ष में कार्य करते हैं। वहां किसी हिन्दू या ईसाई परिवार की लड़की किसी मुल्ला को पसंद आ जाती है। सामान्य व्यवहार और शिष्टाचार तो यही है कि उस लड़की या उसके परिवार के मुखिया से संपर्क किया जाये। अपनी योग्यता और गुणवत्ता बताई जाये। यदि उन्हें स्वीकार हो तो विवाह कर जीवन आगे बढ़ाया जाय। मगर वहां होता ये है कि उस परिवार पर कुरआन जलाने का आरोप लगा दिया जाता है़ उस के मुखिया की हत्या कर दी जाती है और इस तरह परिवार का ध्वंस कर लड़की को अपहृत कर लिया जाता है। उसको किसी मुसलमान को जबरन सौंप दिया जाता है और इस बलात्कार को 'निकाह' के नाम से पुकारा जाता है। इस भयंकर आतंक, जिससे किसी भारतीय का आज तक पाला ही नहीं पड़ा, का हमारे ही अब तक गुलाम बचे हिस्से में चलना कैसे संभव हुआ? ये हमारे ही समाज के अलग हुए हिस्से के लोग हैं। इनमें ऐसा परिवर्तन कैसे आया? इसी प्रश्न के उत्तर में छुपी है सैकड़ों वषोंर् की दारुण गाथा। गुरुओं के बच्चों के दीवार में चुनवाये जाने की करुण कथा, वीर हकीकत राय की हत्या जैसे लाखों प्रसंग क्यों घटित हुए?
छत्रपति शिवाजी महाराज के काल के बाद भारत ने स्वयं पर पड़ी गुलामी की बेडि़यों को तोड़ दिया था और उसके बाद इस धरती के वीर सपूतों ने लगातार स्वतंत्रता के इस संघर्ष को चलाया। ब्रिटिश काल में ये मूढ़ सोच बिल्कुल परास्त हो गयी थी मगर खंडित स्वतंत्रता के पूर्व के 25 वषोंर् की राजनीति इतनी कायर थी कि देश का खासा भाग गुलाम ही रह गया। भारत के अब तक गुलाम हिस्सों, पाकिस्तान और बंगलादेश में हिन्दुओं का जीवन सदैव से ही संकटपूर्ण था मगर उनके कष्टों को कानूनी जामा पाकिस्तान में जिया उल हक के काल में पहनाया गया। इस कानून का नाम ईश निंदा कानून है। इसके अनुसार इस्लाम, उसकी आस्था, उसकी चिंतन प्रणाली ़.़.इत्यादि पर किसी भी प्रकार की आलोचनात्मक चर्चा नहीं की जा सकती। ऐसा करने के दोषी मृत्युदंड के पात्र हैं।
यह कहती हैं इस सन्दर्भ में इस्लाम के मूल ग्रंथों की कुछ आयतें
इस्लाम अपनी दृष्टि में जीवन की स्वयं में परिपूर्ण, बिल्कुल सही और इतनी उचित प्रणाली है कि अगर उसके इतर कोई बात सोची-कही जाती है तो उसका नष्ट किया जाना ही उसकी दृष्टि में उपयुक्त होता है। इस्लाम दुनिया के दो हिस्से मानता है। पहला ईमान वाले लोग यानी मुसलमान और दूसरे काफिर यानी इस्लाम के सिवा सभी लोग। इस्लाम के पांच अंग हंै। उनमें पहला तौहीद है अर्थात खुदा एक है और यही उसका मूल आधार है। अल्लाह के सिवा कोई पूजनीय नहीं है। कुरआन उसकी भेजी किताब है और मुहम्मद उसका अंतिम पैगम्बर है। ये बातें किसी हिन्दू के लिये अजीब हो सकती हैं किन्तु चिंता का विषय नहीं होती। मगर इस्लाम के संदर्भ में ये अत्यंत भयंकर है चूंकि यहां एक पेंच है। ये मनमाने दावे किसी अन्य विचार जैसे नहीं हंै। इसके बाद इन विश्वासों के अनुसार जीवन चलाने और न मानने वालों के साथ मुसलमानों के कर्तव्य का चरण आता है। इस्लाम की दृष्टि में इस्लाम के सिवा सभी लोग वाजिबुल-कत्ल अर्थात मार दिये जाने के लायक हैं।
इस मनमानी सोच का प्रचलन विश्व भर में सदियों तक रहा है। जहां-जहां इस्लाम गया उसने जघन्य नरसंहार किये। इस बेढब और बेतुकी सोच को अपढ़ और कुपढ़ इस्लामी दुनिया में तो समझा जा सकता था, मगर अब शेष दुनिया तो आगे बढ़ ही गयी, मुल्ला पार्टी की भरपूर कोशिशों के बावजूद मुसलमान भी जहां-तहां पढ़ लिख रहे हैं। स्वतंत्र चिंतन सदैव से ही इस्लाम के लिये वर्जित पदार्थ रहा है। इस्लामी सोच इस सिलसिले में सर्वाधिक जघन्य रही है मगर क्या कीजिये कि शिक्षा आंख खोलने का कार्य करती है। अब इस्लामी देशों में ही इस मूढ़ चिंतन-प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगाये जाने लगे हैं। उसी क्रम में पाकिस्तान में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने पाकिस्तान के ईशनिंदा कानून की व्याख्या करते हुए कहा कि इस कानून का लाभ सभी मत-पंथों को समान रूप से मिला हुआ है। पाकिस्तान पीनल कोड की धारा 295 की व्याख्या करते हुए श्री जिलानी ने कहा कि 'किसी मत के खिलाफ हिंसा ईशनिंदा कानून के दायरे में आती है।' पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की दशा बहुत अच्छी कभी नहीं रही है। पाकिस्तान में इसी ईशनिंदा कानून की आड़ में हिन्दुओं पर हमले होते हैं और अब ईसाइयों पर भी हमले बढ़ने लगे हैं। पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश ने सिन्ध इलाके में एक चर्च पर हुए हमले के बाद स्वतंत्र संज्ञान लेते हुए यह टिप्पणी की है। मुख्य न्यायाधीश ने सिर्फ ईशनिंदा कानून की व्याख्या नये सिरे से करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री नहीं कर ली बल्कि उन्होंने पाकिस्तान के एडवोकेट जनरल को कहा है कि वे अल्पसंख्यकों के बारे में एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करें, उसे अदालत के सामने प्रस्तुत करें ताकि उनकी सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किये जा सकें। अपनी सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश ने माना कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए जो कुछ होना चाहिए था वह नहीं हो पाया, लेकिन साथ ही उन्होंने भारत के सर्वोच्च न्यायालय के रुख की सराहना भी की, कि भारत में सर्वोच्च न्यायालय अल्पसंख्यकों के मामले में बहुत सराहनीय रुख अख्तियार करता है।
ये बहुत गंभीर कदम है। इस घटना को मूढ़ता के किले की दीवार टूटने और उसकी राह से मानवाधिकार की प्रबल तार्किक फौज के घुस जाने की तरह देखा जाना चाहिए। इस चरण के बाद धीरे-धीरे इस्लाम और इस तरह की किसी भी जड़ सोच का तिरस्कार और तदुपरांत त्यागना आएगा। देर से सही किन्तु इस्लामी सोच के सबसे बौड़म देशों में से एक पाकिस्तान के लोगों ने आवाज उठानी शुरू की है। इस का भरपूर स्वागत होना चाहिए था। किन्तु भारत का मीडिया इतनी बड़ी घटना के पक्ष में खड़े होकर तालियां बजाने की जगह देश में मोदी लहर के खिलाफ काम करने में जुटा रहा। वह मुंह के बल गिरा, दांत तुड़वाये और अब ठोड़ी सहला रहा है। ल्ल
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