अरुंधती और माओवाद की वकालत का सच
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अरुंधती और माओवाद की वकालत का सच

by
May 31, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 31 May 2014 14:56:31

मोरेश्वर जोशी

अरुंधती और माओवाद की वकालत का सचकर पुरस्कार पाने वाली एवं भारत में मीडिया का ध्यान आकर्षित करने में माहिर सेकुलर लेखिका अरुंधती राय 12 व 13 मई को नागपुर में थीं। वैसे उनका व्यक्तित्व ऐसा नहीं है कि उनकी हर गतिविधि पर ध्यान दिया जाए। लेकिन उनके वक्तव्यों से भारत के माओवादी, जिहादी और जगह-जगह स्वतंत्र देश के लिए विद्रोह भड़काने वाले चर्च संगठनों के कामों का जायजा लिया जा सकता है। इसलिए राय किस जगह पर हैं और उस दौरान किस स्थान पर उग्रवादी हमले हो रहे हैं, इसकी सुध ली जा सकती है। इसलिए देश की पुलिस मशीनरी एवं अंतरराज्यीय गुप्तचर संगठन उन पर कड़ी निगाह रखते हैं। आमतौर पर पूरे देश में व्यक्त होने वाला यह संदेह नागपुर के बारे में भी सच सिद्घ हुआ है, क्योंकि जिस समय नागपुर में उनके कार्यक्रम चल ही रहे थे, उसी समय महाराष्ट्र के गढ़चिरोली जिले में नक्सलवादियों द्वारा पुलिस पर हमले जारी थे। गढ़चिरोली जिले के चामोर्ली नामक स्थान पर हुए हमले में सात पुलिसकर्मी मारे गए एवं दो गंभीर रूप से घायल हुए। उससे भी बढ़कर उग्रवादियों से उस इलाके में जो विस्फोटक बरामद किए गए उन्हें देखते हुए यह साबित हुआ कि उन्होंने बडे़ हमले की तैयारी की थी।
लेकिन ह्यगॉड ऑफ स्माल थिंग्सह्ण पुस्तक के लिए पुरस्कृत इस लेखिका की महारत वैसे नक्सलवाद का समर्थन करने तक सीमित नहीं है। वैसे वह स्वाभाविक रूप से ऐसा करती हंैं।़ नागपुर के भाषण में भी उन्होंने यही किया। दिल्ली में स्थापित हुई नई सरकार माओवाद एवं जिहाद पर निशाना साधेगी, उन्होंने अपने भाषण में यह घोषित कर दिया। अपने भाषण को समाचारपत्र में पहले पन्ने पर स्थान मिले इसलिए गांधीजी को महात्मा की उपाधि दिए जाने को लेकर उन्होंने विवाद खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
अरुंधती राय के इस कदम पर गौर करने का कारण यह है कि पिछले दस वषोंर् में जिहादी संगठन, माओवादी संगठन एवं सामाजिक सेवा का दिखावा करके दुनियाभर में विद्रोह भड़काने वाले चर्च संगठनों को एकत्र करने वाले जो घटक भारत में हैं, उनमें अरुंधती भी शामिल हैं। जिन उग्रवादी संगठनों की दुनियाभर में एक दूसरे से पटरी नहीं बैठती उन संगठनों को ह्यउग्रवादह्ण को सामने रखकर एकत्र करने का काम उन्होंने बड़ी सफाई से किया है। अलग-अलग उद्देश्य रखने वालों को एक मंच पर लाने की यह प्रक्रिया वषोंर् से जारी है। लेकिन पिछले दस वषोंर् में भारत में दस से अधिक राज्यों में उसके दुष्परिणाम दिखने लगे हैं। अगर इनमें से हर संगठन की विध्वंसक कार्रवाइयों की क्षमता पर नजर डालें तो उनकी साझी क्षमता कई गुणा बैठती है। किसी के पास केवल अस्त्र हैं तो किसी के पास बड़ी संख्या में आश्रयदाता परिवार हैं। इन संगठनों का एक दूसरे से संपर्क जारी रखना एवं नई-नई जानकारी पहुंचाना किसी तीसरे संगठन के लिए अधिक सहज होता है। इस तरह के तीन घटकों का एक साथ आने का परिणाम यह होता है कि उन इलाकों में उनका समानांतर प्रशासन एवं न्याय व्यवस्था -यानी कंगारू कोर्ट-तैयार होते हंै। भारत में ऐसे दस से अधिक कंगारू कोर्ट स्थापित हुए हैं।
इन उग्रवादियों को आश्रय कैसे मिलता है, इस बारे में महाराष्ट्र राज्य के उग्रवादी कार्रवाइयों से निपटने वाले पुलिस महानिरीक्षक रवींद्र कदम द्वारा पुणे में पत्रकारों को दी हुई जानकारी चौंकाने वाली है। अरुंधती राय जैसी साहित्य क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार पाकर दुनियाभर में ख्याति अर्जित करने वाली हस्ती ह्यगरीबों को न्याय के लिए बंदूक उठानी पडे़गीह्ण जैसे फरमान जारी करके भूमिगत कारवाइयों का समर्थन करती हैं। लेकिन पुलिस महानिरीक्षक कदम ने बताया कि पुणे, मुंबई, सूरत जैसे नए बनने वाले ह्यगोल्डन कॉरिडोरह्ण में इन लोगों ने अपने संगठन बनाए हैं। सूरत में हीरों के जेवर बनाने वाले कारखाने बड़ी तादाद में हैं। वहीं पुणे में विशाल पैमाने पर आई. टी. उद्योग है। उसी के साथ दुनिया में पहले स्थान का दावा करने वाला ह्यवाहन उत्पादनह्ण उद्योग है।
इस संदर्भ में ह्यब्रेकिंग इंडियाह्ण पुस्तक में अरुंधती के बारे में उल्लेख कुछ यूं है कि सरकार के माओवादियों के विरुद्ध निर्णयात्मक कार्रवाई करने का मन बनाने के बाद सरकार से चर्चा करने एवं जनमत तैयार करने का दायित्व उन्हें ही सौंपा गया था। लेकिन इस संदर्भ में राज्य सरकार के पूर्व सचिव अफजल अमानुल्ला ने सरकारी रिकार्ड में जो जानकारी दर्ज की है, वह कहीं अधिक चौंकाने वाली है। वे कहते हैं, ह्यमाओवादियों द्वारा हमले होने के बाद माओवादियों ने राय को राज्य सरकार एवं केंद्र सरकार के सामने जाकर ये फैलाने की जिम्मेदारी दी कि, माओवादी युवाओं पर बिना वजह आरोप लगाए जा रहे हैं, वे बेकसूर हैं, गरीबों के हमदर्द हैं इसलिए उन पर उग्रवादी होने के आरोप लगाए जाते हैं, आदि आदि। राय के पास बुकर ईनाम होने और दुनिया भर में उनका नाम होने तथा बोलने में माहिर होने के कारण मीडिया में बैठे सेकुलरों ने उनकी बात को खूब फैलाया।
इस संदर्भ में ब्रेकिंग इंडिया पुस्तक के लेखक डा. राजीव मल्होत्रा ने इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया है कि माओवादी हमलों के बारे में मीडिया में पक्ष रखने का दायित्व जेसुइट मिशनरियों की कुछ संस्थाओं ने संभाला है। माओवादियों के समर्थन में अरुंधती का लिखा एक विस्तृत लेख पांच वर्ष पूर्व ह्यआउटलुकह्ण पत्रिका में प्रकाशित होने के बाद माओवादियों द्वारा एक के बाद एक हमले शुरू हुए। अप्रैल 2010 में छत्तीसगढ़ में एक हमले में भारतीय जवान शहीद हुए थे। उसका एक ह्यविजयोत्सवह्ण दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुआ था। अर्थात् जेसुइट लोगों को उनके अपने अलग उद्देश्य साधने थे। भारत के वनवासियों का अपना कोई धर्म नहीं, हिंदू धर्म तो बिल्कुल नहीं, इस तरह का वातावरण खड़ा करने के लिए माओवादी उनके लिए उपयोगी थे। इस बारे में कई लेख पाकिस्तान की पत्रिकाओं में प्रकाशित होते थे।
भारत जैसे सवा सौ करोड़ जनसंख्या वाले देश में समस्त उग्रवादी संगठनों की प्रवक्ता प्रतीत होने वाली अरुंधती राय का काम जारी रखने के पीछे बड़ा कारण था कि पिछले 60-65 वषोंर् में केंद्रीय स्तर पर बहुतांश सरकारें इन उग्रवादी संगठनों का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष समर्थन पाने वाले राजनैतिक दलों की ही रही थीं। इसलिए भारत उन उग्रवादियों की जन्नत जैसा बन गया था। सत्ता में आने वाले अधिकतर राजनैतिक दलों के सार्वजनिक भाषणों में भी किसी ना किसी तरह उपरोक्त संगठनों का समर्थन किया जाता था। किसी राजनैतिक दल के लिए उपेक्षित लोगों के अधिकार के समर्थन में निर्णायक आंदोलन की भूमिका होना कोई गलत बात नहीं है, लेकिन माओवादी, जिहादी एवं इवांजेलिस्टों द्वारा समर्थित उग्रवादी संगठनों की भूमिका हमेशा विभाजनकारी रही है। केंद्र की सत्ता में परिवर्तन से उनकी ऐसी भूमिका में थोड़ा बदलाव तो आएगा, लेकिन असली जुड़ाव ज्यादातर वैसा ही रहेगा। इसलिए जिस तेजी से वे जनमानस में फैल रहे हैं, उसी तेजी से उनके बारे में वस्तुस्थिति भी जनता के सामने रखनी होगी। रक्षा क्षेत्र के विशेषज्ञ अपने अनुभव और तकनीक के अनुसार सरकार को उचित सलाह भी देंगे। जनमानस में व्याप्त विभाजनवाद की यह लड़ाई जनमानस को अपना पक्ष समझाकर ही जीतनी होगी। पचपन वर्ष पूर्व तत्कालीन मध्य प्रांत की सरकार ने आज की भौगोलिक सीमाओं में छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश एवं ओडिशा में ईसाई मिशनरियों द्वारा चल रही विभाजनवादी कार्रवाइयों की तहकीकात करने हेतु न्यायमूर्ति भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता में जांच समिति बनाई थी एवं न्यायमूर्ति नियोगी ने संकेत में ह्ययह तो बहुत बड़े विभाजन की शुरुआत हैह्ण, जैसा संकेत भी दिया था। लेकिन उसकी उचित जानकारी लेकर उसे रोकने का कोई प्रयास तो नहीं किया गया, बल्कि कुछ राजनैतिक दलों नें अपने राजनैतिक लाभ के लिए उसका फायदा उठाया। आज ये उग्रवादी संगठन अपने-अपने दूतावास बनाकर अपनी ओर से चर्चा करने की ताक में हैं। इस तरह के आंदोलन जिस तरह से खड़े होते हंै, उसी तरह उन्हें नियंत्रित भी किया जा सकता है। उसके लिए सरकार की तरह जनता को भी उसी मनोबल से खड़ा होना पड़ता है। 
 

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