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भारत जब 'स्व' को जानेगा तभी उसे स्व-तंत्र प्राप्त होगा और तभी होगी वास्तविक प्रगतिल्ल सीताराम व्यासमई मास में ही सोलहवीं लोकसभा का गठन हो जाएगा। देश में मतदान की प्रक्रिया अंतिम दौर में है। देश में राजनीतिक परिर्वतन की लहर चल है। जनता ने परिर्वतन के नायक को अनौपचारिक रूप से चुन लिया है। केवल संवैधानिक अनुष्ठान की पूर्ति शेष है। यह परिर्वतन कैसे होगा? क्या सत्ता परिवर्तन से स्वराज और सुशासन आ जायेगा? क्या आने वाली सरकार जनता की सभी अपेक्षाओं को पूरा कर सकेगी? यह सत्य है कि अब देश स्वार्थ-सिद्घि के यान्त्रिक सांचे में ढली हुई दिग्भ्रान्त, कुण्ठित विवश सरकार नहीं चाहता। अब उसे देश के सवांर्गीण विकास पर केन्द्रित उर्ध्वमुखी, सर्वहितकारी सरकार की अपेक्षा है, जो राष्ट्रीय और सांस्कृतिक प्रगति के सकारात्मक, जनतांत्रिक समुत्थान के महान लक्ष्य को दृष्टि-पथ में रखकर चले। अब जनता परिवर्तन के माध्यम से स्वराज और सुशासन चाहती है, और उसेदृढ़ निश्चयी, बुद्घिमान, धर्मज्ञ, कर्त्तव्यनिष्ठनेतृव चाहिए।ऐसे समय प्रत्येक नागरिक को वैचारिक क्रान्ति की दिशा में सार्थक प्रयास करने की आवश्यकता है। इसके लिये स्व-राज के स्थायी भाव का जागरण करके नव-चैतन्य का संचार करना होगा। दुर्भाग्यवश, स्वाधीनता के पश्चात नेताओं और जनता में स्व का पूर्णत: लोप हो गया था। हम पराधीनता के पाश से तो जैसे-तैसे छुटकारा पा गये, परन्तु स्वतन्त्र नहीं हुए। प्रत्येक राष्ट्र का स्व उसकी प्रकृति होता है। स्व में व्यक्ति और राष्ट्र को गढ़ने की क्षमता होती है। प्रत्येक राष्ट्र जब अपने जन, जंगल, जमीन, जल और संस्कृति के परिवेश में तंत्र का विकास करता है तब सुशासन की स्थापना होती है। हमारे चेतना-वाहक स्वामी दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द, लोकमान्य तिलक तथ महात्मा गांधी ने स्वदेश, स्व-राज का गुणगान ही नहीं किया वरन् उसीमें रामराज्य की अवधारणा के दर्शन किये थे। उसके पीछे लोकमंगल तथा लोक-चेतना का भाव निहित था। पं. ़दीनदयाल उपाध्याय ने स्वतन्त्र की सुन्दर व्याख्या की है। उनका कहना था कि स्वतन्त्रता और परतन्त्रता का अन्तर शासन के सूत्रों का विदेशियों या स्वदेशियों के हाथों में रहना मात्र नहीं है। महत्वपूर्ण यह जान लेना है कि एक विदेशी शासक सुशासन दे सकता है पर स्वराज नहीं दे सकता। गीता में स्व की सुन्दर व्याख्या की गई है-स्वधर्मे निधनं श्रेय: पर धर्मो भयावह:।अपने धर्म के अनुसार चलना स्वतंत्रता है। इसको ह्यरिलीजनह्ण से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।स्व-राज तब आयेगा जब स्व-तन्त्र की स्थापना होगी और स्वतन्त्रता से सुशासन स्थापित होगा। प्रत्येक राष्ट्र की प्रकृति को परतन्त्रता विकृत कर देती है। हमारे राष्ट्र के साथ अब तक ऐसा ही होता आ रहा है। उदाहरणार्थ, यूपीए सरकार ने पश्चिमी तंत्र के आधार पर मल्टीब्रांन्ड विदेशी निवेश की अनुमति प्रदान कर दी है। इसका परिणाम यह होगा कि अपने देश की अर्थ-व्यवस्था विदेशियों के हाथों में जायेगी और हमारी समाज-व्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित करेगी। अस्मिता-बोध की उपेक्षा और मानसिक दासता के प्रसार से हमारी सांस्कृतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना का उत्तरोत्तर क्षरण हो रहा है और हम आत्म-विस्मृति के अन्धकार में भटक रहे हैं। वर्तमान में शासन चलाने वालों को भारतीयता से कोई प्रेम नहीं है। वे भारतीय मूल्यों और आदर्शों के अनुगामी कदापि नहीं रहे हैं। इसी प्रकार वर्तमान सरकार भारतीयता की भव्य-भावना को विकसित नहीं कर सकती। तथाकथित जन-नायकों ने दास्य-बोध से ग्रस्त होकर देश की विकास यात्रा को विनाश के कगार पर लाकर छोड़ दिया है। उसका परिणाम है कि अपना देश वेन्टीलेटर पर है। भारत के लोक पर विदेशी तन्त्र हावी हो रहा है। इसलिए भारत के लोक-मानस में राष्ट्रीय स्तर पर क्रान्ति-चेतना की छटपटाहट है। ऐसे समय में केवल परिवर्तन ही चमत्कार कर देगा, यह अपेक्षा करना उचित नहीं है। उसके लिये जन-जन में स्वदेशाभिमान, स्वावलम्बन के आधार पर सुसंगठित समाज की रचना करनी होगी। इस परिवर्तन की वेला में यह सर्वथा वांछनीय है कि भारत का प्रत्येक नागरिक भारत के संविधान तथा कानूनों का पालन राष्ट्रीय दायित्व समझकर करे। आत्मानुशासन में कर्त्तव्य-बोध निहित है और कर्त्तव्य पालन से अधिकार स्वत: प्राप्त होते हैं। दूसरी ओर यह वांछित है कि शासन -कर्त्ता जनता का विश्वास अर्जित करें। मनु स्मृति ने राजधर्म की सुन्दर व्याख्या की गई है:-,यथा सर्वाणि भूतानि धरा धारयते सममतथा सर्वाणि भूतानि विभ्रत: पार्थिव व्रतम॥9/311तात्पर्य यह है कि पृथ्वी जिस प्रकार मातृ-सदृश अपने सभी बच्चों का समान रूप से ध्यान रखती है, उसी प्रकार राजा को भी समग्र जीवों (जन) का समान रूप से ध्यान रखना चाहिए। यही राजा का राजकीय संकल्प है। ऐसा ही कौटिल्य का कथन है कि प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजा के हित में राजा का हित है।। कहने का तात्पर्य यह है कि शासक और शासित में परस्पर विश्वास और पारदर्शिता हो। शासन-कर्त्ता के लिए प्रजानुरंजन तथा प्रजारक्षण के अतिरिक्त कार्य नहीं होना चाहिए। जन-जन के नायक श्रीराम का राज पूर्ण स्व-राज था। राम-राज मेंनहिं दरिद्र कोई दु:खी न दीना।नहि कोई अबुध न लक्षण हीना।जन-नेता और जनता दोनों के सुशासन के लिए सर्वस्वार्पण के पालन से सामाजिक रूपान्तरण की प्रक्रिया में अच्छा परिणाम आयेगा।यह चुनाव समस्त राष्ट्र के लिए आत्मनिरीक्षण और आत्म मन्थन का सुअवसर है। हमने पर्याप्त प्रगति की है और हमारे देश में महाशक्ति बनने की पूरी संभावना निहित है। यह भी सत्य है कि हमने लोकतन्त्र को आन्तरिक संकटों के बावजूद सशक्त बनाया है, परन्तु हमारे शासकों ने गत 69 वर्षों में संविधान वर्णित जनता की किसी भी अपेक्षा को पूर्ण नहीं किया है। दुनिया के देश जो हमसे पीछे थे, वे आगे बढ़ गये। हमारी प्रगति में दो गतिरोध हैं। पहला, नौकरशाही और राजनेता भ्रष्टाचार में आकण्ठ संलिप्त हैं। दूसरा, आजादी के पश्चात नव-धनाढ्यों का एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ है जो हमारे अर्थ-तन्त्र को अपने पक्ष में मोड़ लेने में समर्थ है। इसीलिये काले धन की समानान्तर अर्थ-व्यवस्था चल रहीे है। होटल-संस्कृति ने जन्म लिया है। समाज में पैसे का दिखावा, चमक-दमक और येन-केन प्रकारेण धन कमाने की स्पर्धा सर्वत्र दिखायी देती है। गांव उजड़ रहे हंै। लघु-उद्योग आखिरी सांस ले रहे हंै। शिक्षा, स्वास्थ्य-सेवा आम आदमी कीपहुंच के बाहर हैं। आजादी के पश्चात कारपोरेट जगत का वर्ग तैयार हुआ है जिसने समाज के प्रत्येक वर्ग को अपने नियन्त्रण में ले लिया है। ऐसी स्थिति में अंतिम व्यक्ति का भाग्योदय कैसे होगा? यह विचारणीय प्रश्र है, परन्तु इसका समाधान भी है।इन समस्याओं का समाधान परिवर्तन की प्रक्रिया से ही निकलेगा, परन्तु हम सब देशवासियों को भी अपना दायित्व पूरी निष्ठा से निभाने की आवश्यकता है। अकेली सरकार सब कुछ ठीक कर देगी, यह मानसिकता हमको कर्त्तव्य से च्युत करती है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। वह आना चाहिए और आयेगा। ऐसी स्थिति में देश के विचारवान लोगों और सामाजिक, धार्मिक संगठनों के कार्यकर्त्ताओं तथा संतांे को अपनी निर्णायक भूमिका निभानी होगी। समाज की सज्जन -शक्ति जन-प्रबोधन, जन-प्रशिक्षण का कार्य करे। युवा शक्ति की व्यवस्था-परिवर्तन में सक्रिय सहभागिता रहे। आज युवाओं के समक्ष भावी भारत का भव्य चित्र है। उनमें वैचारिक-क्रान्ति की आकांक्षा उत्तरोत्तर तीव्र होती जा रही है। समाज की सज्जन शक्ति युवकों का सही मार्गदर्शन करे और जन-जन में सशक्त, समर्थ भारत की आकांक्षा का भाव प्रस्फुटित करे, तभी परिवर्तन का परिणाम मंगलकारी होगा। परिवर्तन की प्रक्रिया में से ही संंगठित भारत का एक भव्य चित्रउभरेगा। ल्ल
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